भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
यादव महराज उग्रसेन
मथुरा के अधिदेवता तो सदा से श्रीहरि हैं। भगवान कपिल वाराह यहाँ के देवता हैं। भूतेश्वर क्षेत्रपाल हैं। चण्डिका देवी नगर-रक्षिका हैं। ध्रुव की इस तपस्थली को माहिष्मती छोड़ने के पश्चात यादव कुल ने अपनी राजधानी बनाया। माथुर मण्डल के अधिपति महाराज अन्धक के पश्चात उनके पुत्र दुन्दुभि सिंहासन पर बैठे। उनके पुत्र अरिद्योत हुए और उनसे पुनर्वसु हुए। इन महाराज पुनर्वसु के पुत्र हुए महाराज आहुक। महाराज आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। यदुवंश की परम्परा के अनुसार छोटे पुत्र उग्रसेन जी मथुरा-नरेश हुए। महाराज उग्रसेन तक चलती परम्परा को उनके ज्येष्ठ पुत्र कंस ने भंग किया था। वह स्वयं पिता को बन्दी बनाकर सिंहासनासीन हुआ; किन्तु उस कलंक को भगवान वासुदेव ने धो दिया। महाराज उग्रसेन ही यादवाधिप बने रहे अन्त तक। कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंक, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि, और तुष्टिमान ये नौ पुत्र महाराज उग्रसेन के हुए; किन्तु क्या लाभ ऐसे पुत्रों से? यादव-कुल की मर्यादा चल पाती तो सबसे छोटे तुष्टिमान को सिंहासन प्राप्त होता; किन्तु भगवान वासुदेव ने जब यदुकुल-कलंक कंस को सिंहासन से नीचे फेंक कर परम धाम पहुँचाया, उसके आठों भाई झपट पड़े थे शस्त्र उठाकर। फल जो होना था, वही हुआ। भगवान अनन्त ने परिघ उठा लिया और कंस के साथ ही उन सबकी अन्त्येष्टि उसी दिन हो गयी। सिंहासन पर वृद्ध उग्रसेन को बैठाये बिना यदुकुल में चली आती महाराज ययाति के शाप की मर्यादा बचायी नहीं जा सकती थी। महाराज उग्रसेन के कंसा, कंसवती, कंका, शुरभू और राष्ट्रपालिका ये पांच कन्यायें हुईं। महाराज ने उनके अग्रज देवकीजी ने निश्चय कर लिया था कि वे अपनी कन्यायें मथुरा से बाहर नहीं भेजेंगे। मथुरा में तो शूरसेनजी का ही कुल था। जहाँ महाराज कन्या का विवाह कर सकें। फलत: सबका विवाह उसी कुल में हुआ। महाराज उग्रसेन अत्यन्त सौम्य रहे। उनमें कोई महत्वाकांक्षा कभी नहीं दिखी और न उन्हें कभी रुष्ट होते देखा गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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