भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
फिर कारागार
‘कंस से भागकर वे जाते भी कहां?’ विद्रुप पूर्ण स्वर में बोला वह। ‘क्यों–क्या तुम समझते हो कि त्रिभुवन में एक तुम्हीं शूर रह गये हो?’ एक वृद्ध ने शान्त उत्तर दिया– ‘तुम्हारे श्वसुर जरासन्ध ही शरण आये को त्याग देंगे?’ वाणासुर या भौम तुम्हारे मित्र सही, किन्तु कोई प्राण बचाने उनके यहाँ जायेगा तो वे कापुरुष निकलेंगे? वसुदेव तो अपने पुत्रों के पास व्रजपति के यहाँ भी जा सकते हैं। राम-श्याम का क्या बिगाड़ लिया तुमने कि उनके पिता वहाँ पहुँच जायें तो कुछ कर लोगे?’ कंस चुप हो गया। वह चौंक गया। सचमुच यदि वसुदेव देवकी को लेकर नन्दराय के यहाँ चले जायें तो? शरण लेने जाने पर तो उन्हें वाण, भौम या मगधराज भी अस्वीकार नहीं करेंगे। क्या रह जायेगा तब उन पर अपना अधिकार और वे यहाँ से चले जायें–उनके पुत्रों पर दबाव देने का भी कोई साधन नहीं रह जायेगा। कंस ने वहीं आदेश दिया-वसुदेव-देवकी को कारागार में पहुँचा देने का। उसी समय उसके अनुचर दौड़ पड़े थे। वही कारागार, वही कक्ष। अब भी वसुदेव जी द्वारा सूतिका-रक्षण के लिए रखा उस समय का लोहा रखा था वहाँ। अब भी उस समय जलायी गयी अग्नि की राख पड़ी थी कक्ष में। हथकड़ी और बेड़ी से जकड़े दम्पत्ति फिर वहाँ सात द्वार भीतर बन्द कर दिये गये। कुशल यह हुई कि बालिका सुभद्रा उस समय शूरसेन जी के यहाँ थी। वह दस वर्ष की बच्ची अब प्राय: पितामह के यहाँ ही रहती थी। उस समय उसे माता-पिता के बन्दीगृह ले जाने को कोई पता नहीं लगा और जब पता लगा–उसने यह भी सुना कि उसके भाई मथुरा आने वाले हैं परसों ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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