भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अपूर्ण स्वयंवर
लोकपाल–देवाधिपति इन्द्र राजाओं को आदेश नहीं दे सकते, यह कहने का साहस कौन करता? सब उत्सुक थे यह आदेश सुनने को। कैशिक ने सुनाया–देवराज कहते हैं कि श्रीकृष्ण उनके छोटे भाई उपेन्द्र हैं। जब वे कल सिंहासनासीन हों, सभी राजाओं को उनको राजेंद्र पद पर अभिषिक्त करना चाहिए। यहा कार्य देवता कर सकते तो देवराज स्वयं समस्त सुरों के साथ आकर इसे संपन्न करते, किंतु मनुष्यों के राजेंद्र पर पर अभिषेक राजा ही कर सकते हैं। कुण्डिनपुर में उपस्थित नरेशों में जो भी श्रीकृष्ण के अभिषेक में सम्मिलित नहीं होंगे, वे इनके वध्य हो जाएंगे। सुर उनकी कोई सहायता नहीं करेंगे। कैशिक ने यह भी बतलाया–वह दिव्य पुरुष आठ अक्षय कलश दे गया है कल के श्रीकृष्ण के अभिषेक के लिए। यह कलश स्वत: आकाश में स्थिर होकर श्रीकृष्ण पर दिव्य रस एवं सुर गंगा के जल की धारा गिराएंगे। ऐसे दृश्य पृथ्वी पर दुर्लभ हैं। सचमुच पृथ्वी पर ऐसा दृश्य दुर्लभ है। राज लोग उत्सुक हो गए थे यह दृश्य देखने को। उन्हें श्रीकृष्ण का वध्य भी नहीं बनना था। केवल मगधराज का संकोच–सब जरासन्ध का मुख देखने लगे थे। मैं एक बार भी श्रीकृष्ण के विरुद्ध आप सबकी रक्षा में समर्थ नहीं हो सका। अत: आप उनकी शत्रुता लें, ऐसी सम्मति आपको में नहीं दे सकता। जरासन्ध ने शांत स्वर में कहा–आप सबको श्रीकृष्ण के अभिषेक में कल जाना चाहिए। अद्भुत दृश्य–गगन से निरंत होती सुमन वर्षा, सुरों के सस्वर वाद्य–केवल सुना था इनके संबंध में लोगों ने। आज प्रत्यक्ष हो गया यह दृश्य। आठों कलशों पर वस्त्र लिपटे थे–रत्नोज्वल दिव्य वस्त्र। उनके मुख आम्र पल्लवों से युक्त थे। निराधार गगन में स्थित उन कलशों से श्रीकृष्ण पर दूध, दधि, घृत, मधु और सुगन्धित जल की अजस्र धाराएं झर रही थीं। गगन में अदृश्य मुनि वर्ग सस्वर मंत्र पाठ कर रहे थे। कैशिक ने सब नरेशों का स्वागत किया। उन्हें आसन दिया। सब आश्चर्य से देखते रहे कि जलधारा स्नान के पश्चात उन कलशों से ही दिव्य वस्त्र, आभूषण, माल्य, अनुलेपन भी निकले और स्वयं श्रीकृष्ण के श्री अंग पर उचित स्थान पर सज्जित हो गए। भगवान बलराम और गरुड़ श्रीकृष्ण की दाहिनी ओर बैठे। क्रथ–कैशिक को साग्रह उन जगदीश्वर ने वाम–पार्श्व में बिठाया। अब नरपति गण श्रेष्ठत्व के क्रम से उठने लगे। उन्होंने यथायोग्य पूजन किया भगवान वासुदेव का। केवल जरासन्ध और शिशुपाल नहीं आए इस महोत्सव में। श्रीकृष्ण चंद्र ने प्रत्येक नरेश को एक लक्ष स्वर्ण मुद्राएं पुरस्कार में दीं। वे अक्षय कलश अब पर्याप्त नीचे आ गए थे। श्रीकृष्ण केवल पुरस्कार राशि का उच्चारण करते थे। किसी भी कलश से उतनी स्वर्ण मुद्रा खनखनाती गिर पड़ती थीं पुरस्कृत के सम्मुख। राजाओं ने सादर ग्रहण किया वह पुरस्कार। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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