भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्री बलराम विवाह
श्री बलराम जी ने हाथ उठाकर रेवती के कराग्र को किसी प्रकार स्पर्श कर लिया। इतना ही पाणिग्रहण पर्याप्त था। महाराज ककुदमी जैसे गगन से आए थे–आकाश मार्ग से ही उत्तर चले गए। अब पृथ्वी उनके सञ्चरण के अयोग्य हो चुकी थी। आर्य! भाभी का यह प्रलम्ब आकार? श्रीकृष्ण चंद्र अब खुल कर हंसे। अच्छा! हंसे श्री बलराम जी भी। उन्होंने अपना दिव्य हल उठाया। रेवती जी के कन्धे पर लगा उन्हें खींचा नीचे को। उन सत्य संकल्प का संकल्प ही सार्थक होना था, अन्यथा आप जानते हैं कि किसी देहधारी का शरीर न खींचने से बढ़ सकता और न दबाने से घट सकता। किसी के कर–पाद, कर्ण, नासिकादि को पृथक–पृथक दबा कर कोई कैसे छोटा कर सकता है? श्री संकर्षण सत्य संकल्प हैं। हल से खींचना केवल उनके संकल्प का व्यक्त स्वरूप मात्र बनना था। रेवती जी का शरीर भी पार्थिव देह तो था नहीं। यज्ञाग्नि समुद्भव वह दिव्य देह–हल का कन्धे से स्पर्श हुआ और वह ज्योतिर्मय दिव्य शरीर जैसे सिकुड़ कर छोटा हो गया। रेवती जी का शरीर इतना छोटा हो गया कि वे ऊंचाई में श्री बलराम के कर्णपर्यंत ऊंची रह गईं। उनके आभूषण वस्त्र, माल्यादि भी उनके अंग के अनुरूप हो गए। केवल एक परिवर्तन हुआ। श्री रेवती जी अत्यंत कृशांगी थीं। जैसे ज्योति की रेखा हों। अब इस रूप में उनका शरीर कुछ दुहरा–तनिक स्थूलता की ओर झुका हो गया। इस परिवर्तन के साथ उनका श्री मुख लज्जा से सिंदूरारुण हो गया। श्री कृष्ण चंद्र तो लगभग दौड़ते नगर में गए और उन्होंने स्वयं पिता को, माताओं को, महाराज उग्रसेन को, पितामह शूरसेन जी तक को यह समाचार अत्यंत उल्लासपूर्वक दिया। नगर से कुछ क्षणों में ही महाराज उग्रसेन और श्री वसुदेव जी मंगल वाद्यों के साथ अपनी दिव्य पुत्रवधू का स्वागत करके उसे लेने निकल पड़े। गर्गाचार्य जी ने विवाह–मुहूर्त निर्णय किया। मथुरा में तो रेवती जी के पदार्पण के साथ ही महोत्सव प्रारंभ हो गया था। श्री वसुदेव जी को अपने बड़े पुत्र का विवाह पूरे उत्साह से करना था। देवकी जी की उमंग भी सीमा में नहीं थी। केवल माता रोहिणी की स्थिर शांत मुद्रा परिवर्तित नहीं हुई। मथुरा में श्रीकृष्ण चंद्र के मुखारविंद पर पहली बार निर्बाध आनंद क्रीड़ा करता देखा गया। वे स्वयं अग्रज विवाह की समस्त प्रस्तुति का निरीक्षण करने में लग गए थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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