प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमियों की अभिलाषाएँहे नाथ! मेरा मन ऐसा कब कर दोगे, जब हाथ में तो होगा माटी का करवा और गले में पड़ी होगी गुंजाओं की माला। कब कुंजों में बसेरा लेता और व्रज वासियों के जूठे टुकड़े खाता फिरूँगा! जब भूख लगेगी, तब घर घर से छाछ महेरी माँग लिया करूँगा। फिर क्या साँझ और क्या सबेरा। सिर्फ एक माटी का करवा ही अब आपकी सारी संपत्ति होगी। इस फकीरी में भी गजब की शाहंशाही है। व्यासजी के भाग्य को धन्य है! तीन गाँठ कौपीन में, बिन भाजी बिन नौन। रसिक वर सहचरिशरण की भी एक उत्कण्ठापूर्ण लालसा देखते चलिये। इन शब्दों में कितनी व्याकुलता और अधीरता है- छिति पति लेत मोल पसु पच्छिन, इहि बिधि कबै लहौगे? प्यारे, लो, आज बता तो दो, मुझे उस तरह कभी खरीदोगे- मुफ्त ही सही जिस तरह राजा पशु पक्षियों को मोल लिया करता है, जैसे यमुना और गंगा निरंतर भूमि प बहती रहती हैं, वैसे ही क्या कभी तुम अपना प्रेम रस मेरे पाषाणवत् हृदय पर बहाओगे? अच्छा, यह सब रहने दो, मुझे तुम वैसे कब पकड़ लोगे, जैसे किसी कीट को एक भृंग पकड़ लेता है? प्यारे, मान सरोवर में जैसे हंस क्रीड़ा करता है, वैसे तुम इस मानस में कभी विहार करोगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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