प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 89

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमियों की अभिलाषाएँ

हे नाथ! मेरा मन ऐसा कब कर दोगे, जब हाथ में तो होगा माटी का करवा और गले में पड़ी होगी गुंजाओं की माला। कब कुंजों में बसेरा लेता और व्रज वासियों के जूठे टुकड़े खाता फिरूँगा! जब भूख लगेगी, तब घर घर से छाछ महेरी माँग लिया करूँगा। फिर क्या साँझ और क्या सबेरा। सिर्फ एक माटी का करवा ही अब आपकी सारी संपत्ति होगी। इस फकीरी में भी गजब की शाहंशाही है। व्यासजी के भाग्य को धन्य है!

तीन गाँठ कौपीन में, बिन भाजी बिन नौन।
‘तुलसी’ मन संतोष जो, इन्द्र बापुरो कौन।।

रसिक वर सहचरिशरण की भी एक उत्कण्ठापूर्ण लालसा देखते चलिये। इन शब्दों में कितनी व्याकुलता और अधीरता है-

छिति पति लेत मोल पसु पच्छिन, इहि बिधि कबै लहौगे?
रबि दुहिता सुर सरित भूमि जिमि रस उर कबै बहौगे?
पकरत भृंग कीटकों जैसे, तैसे कबै गहौगे?
‘सहचरि सरन’ मराल मान सर मन इमि कबै रहौगे?

प्यारे, लो, आज बता तो दो, मुझे उस तरह कभी खरीदोगे- मुफ्त ही सही जिस तरह राजा पशु पक्षियों को मोल लिया करता है, जैसे यमुना और गंगा निरंतर भूमि प बहती रहती हैं, वैसे ही क्या कभी तुम अपना प्रेम रस मेरे पाषाणवत् हृदय पर बहाओगे? अच्छा, यह सब रहने दो, मुझे तुम वैसे कब पकड़ लोगे, जैसे किसी कीट को एक भृंग पकड़ लेता है? प्यारे, मान सरोवर में जैसे हंस क्रीड़ा करता है, वैसे तुम इस मानस में कभी विहार करोगे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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