प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमियों का मत मज़हबमतलब यह है कि असल में वह आशनापरस्त है, प्रेम भगवान् का पुजारी है। ‘सौदा’ ने कहा है- हिंदू हैं बुतरस्त मुसल्माँ खुदापरस्त, जफ़र ने उसके धर्म को और भी साफ तौर से खोल दिया है- मेरी मिल्लत है मुहब्बत, मेरा मजहब इश्क है, भाई! चाहे मुझे नास्तिकों में गिना लो, चाहे आस्तिकों में, मेरा मजहब तो बस इश्क है, मेरा धर्म तो बस प्रेम है। काफिर कहो या दीदार, मुझे कोई गिला नहीं- क्या मुसलमान महिला ताज को हिंदुओं के वेद शास्त्रों ने अपनी ओर खींच कर उससे यह कहलाया था कि ‘मैं हूँ तो मुगलानी पर अब हिंदुवानी होकर रहूँगी?’ क्या उसका किसी ने शुद्धि संस्कार किया था? नहीं, कदापि नहीं, उसे तो प्रेम ने ही इसलाम के कूचे से मोड़कर कृष्ण पंथ की फकीरनी बना दिया था। किसी धर्म ने नहीं, बल्कि पवित्र प्रेम ने उसे हिंदुवानी हो जाने को मजबूर किया था। कितनी गहरी लगन थी नन्द नन्दन के साथ उस पगली ताज की! बलिहारी! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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