प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमियों का मत मज़हबबुल्लेशाह ने क्या खूब कहा है- कुछ तो इन पंडितों के अपने वितण्डावाद में और कुछ किताबों के झगड़े में वह प्यारा कोहनूर, वह हरि हीरा खो गया है। अरे, हाँ! मेरा हीरा हिरायगा कचरे में। कहाँ खोजते फिरते हो उसे, उस लापते को! न वह काशी में मिलेगा, न काबे में। इन दोनों मकानों में तो एक झमेला ही नजर आता है। अपने दिल से किसी बेदिल ने कहा है- दिल, और कहीं ले चल, ये दैरो हरम छूटें, मंदिर में भी झगड़ा और मसजिद में भी झगड़ा! अब प्रेमी बेचारा कहाँ जाय, कहाँ रहे। उसे कहीं भी तो ठौर- ठिकाना नहीं। संतवर बुल्लेशाह ने कहा है- धर्मशाला बिच धाड़वी रहंदे, ठाकुर द्वारे ठग्ग। धर्मशाला में डाकुओं ने अड्डा जमा रखा है, बने हुए धर्म धुरंधरों ने आसन जमा लिया है, ठाकुर द्वारों पर ठगों ने अपना अधिकार कर रखा है और मसजिदों में बदमाशों की तूती बोल रही है। इसी से उस साईं का आशिक अब इन सबसे अलग रहता है। उसे अपने प्यारे कृष्ण का दर्शन किसी और ही ठाकुर द्वारे में मिल रहा है। किसी और ही मसजिदों में वह नमाज पढ़ लिया करता है। वह एक साथ ही बतपरस्त और खुदापरस्त है। हिंदू भी है और मुसल्मान भी है और इससे भी आगे कुछ और है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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