प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में अनन्यताधन्य चातक, धन्य! जियत न नाई नारि, चातक घन तजि दूसरहि। प्रेमास्पद अपने प्रेमी को कितना ही तिरस्कृत करे, उसके प्रति कितना ही उदासीन रहे, पर वह तो अनन्यभाव से अन्त तक यही कहता जायेगा कि ‘मैं तो उसी प्रियतम का हूँ, उसी एक प्राणधार का कोई हूँ।’ बेचारा वह मर्माहत प्रेमी तो यही कहेगा- तुमही गत हौ, तुमही मत हौ, तुमही पत हौ अति दीनन की। वह सरल हृदय प्रेमी कुलिश कठोर प्रेमास्पद के हृदय को भी ‘मृदुल’ और ‘प्रेम निधि’ ही कहता जायेगा; क्योंकि उसकी गति, उसकी मति और उसकी पत वही एक है। उसके लिए जगत् में वही तो एक ठौर है। वह कहता है- मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै। यह है सच्ची प्रेमानन्यता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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