प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 71

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम में अनन्यता

धन्य चातक, धन्य!

जियत न नाई नारि, चातक घन तजि दूसरहि।
सुरसरिहू को वारि, मरत न माँगेउ अरध जल।। - तुलसी

प्रेमास्पद अपने प्रेमी को कितना ही तिरस्कृत करे, उसके प्रति कितना ही उदासीन रहे, पर वह तो अनन्यभाव से अन्त तक यही कहता जायेगा कि ‘मैं तो उसी प्रियतम का हूँ, उसी एक प्राणधार का कोई हूँ।’ बेचारा वह मर्माहत प्रेमी तो यही कहेगा-

तुमही गत हौ, तुमही मत हौ, तुमही पत हौ अति दीनन की।
नित प्रीति करौ गुन हीननि सों यह रीति सुजान प्रवीनन की।।
बरसौ ‘घन आनंद’ जीवनकों, सरसौ सुधि चातक छीनन की।
मृदु हौ चितके पन पै इकके, निधि हौ हितके, रुचि मीनन की।।- आनन्दघन

वह सरल हृदय प्रेमी कुलिश कठोर प्रेमास्पद के हृदय को भी ‘मृदुल’ और ‘प्रेम निधि’ ही कहता जायेगा; क्योंकि उसकी गति, उसकी मति और उसकी पत वही एक है। उसके लिए जगत् में वही तो एक ठौर है। वह कहता है-

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै पावै।। - सूर

यह है सच्ची प्रेमानन्यता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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