प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में अनन्यतारहीम ने भी इस साखी के स्वरों में अपना स्वर मिलाया है- अंजन दियौ तो किरकिरी, सुरमा दियौ न जाय। काजल या सुरमा तो साकार वस्तु है, उन अनुरागिनी आँखों में तो निराकार नींद भी नहीं ठहरने पाती- आठ पहर चौंसठ घरी, मेरे और न कोय। काजल देने या नींद के ठहराने की वहाँ ऐसी कोई जरूरत भी तो नहीं है। उनका सबका अभाव तो प्रियतम के निवास से ही पूरा हो जाता है। प्रियतम ही कलित कज्जल है और प्रियतम ही मीठी नींद है। कैसा ऊँचा तादात्म्य है इस प्रेमान्यता में! अनन्य व्रत असि धारा व्रत से भी कठिन है। इस व्रत का व्रती एक पपीहा है। प्रेमी चातक का स्थान वस्तुतः प्रेम जगत् में बहुत ऊंचा है। उसका प्रेम पात्र उस पर क्रोध से गरजता है, तरजता है, पत्थर बरसाता है और कभी कभी तो बेचारे पर वज्र भी गिराता है, पर उस पक्षी की अनन्यता देखो, अपने प्यारे मेघ को छोड़ क्या उसने कबी किसी और से प्रेम की भीख माँगी है? उपल बरधि गरजत तरजि, डारत कुलिस कठोर।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज