प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में तन्मयतामहाकवि देव ने मोहन के मुग्ध मन को राधामय और राधा के प्रेमोन्मत मन को मोहनमय अंकित किया है। कवि ने दोनों का पारस्परिक प्रेम पराकाष्ठा को पहुँचाकर तन्मयता में लीन कर दिया है। दोनों एक दूसरे पर रीझते हैं; पुलकित होते हैं और हँसते हैं। दोनों आहें भरते हैं, आँखें डबडबाते हैं और विरह में ‘हा दई, हा दई!!’ पुकारा करतरे है। कभी चौंक पड़ते हैं, कभी चकित हो जाते हैं, कभी उचक पड़ते हैं, कभी जके से रह जाते हैं और कभी जो मन में आया वही बकने लगते हैं। दोनों ही एक दूसरे के रूप और गुणों का बखान करते फिरते हैं। वे दोनों घर में तो एक क्षण भीनहीं ठहरते। दोनों प्रेमी। प्रेम की कैसी नयी नयी रीति निकालते रहते हैं। प्रेम में दोनों ही तन्मय हो रहे हैं। मोहन का मन राधामय और राधा का मन मोहनमय हो गया है। क्या ही ऊँची तल्लीनता है- रीझि रीझि, रहसि रहसि, हँसि हँसि उठैं, प्रेम तन्मयता का एक प्रसंग याद आ गया है। वेदान्तपरांगत उद्धव प्रेम रंगीली गोपिकाओं को योग शिक्षा देने आये हैं। पर वे गँवार गोपियाँ गुरु महाराज से दीक्षा नहीं ले रही हैं। कहती हैं, न तो हमें यम नियम आदि साधने की ही आवश्यकता है और न प्राणायाम, ध्यान धारणा वा समाधिका ही। वियोगिनी होती हुई भी आज हम वियोगिनी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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