प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 39

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमी

एक कृष्णानु रागिनी गोपिका का कहती है-

कोऊ कहौ कुलटा, कुलीन अकुलीन कहौ,
कोऊ कहौ रंकिनि कलंकिनि कुनारी हौं,
कैसो परलोक नरलोक वर लोकन में,
लीनी मैं अलीक, लोक लीकन में न्यारी हौं।
तन जाव, मन जाव, ‘देव’ गुरुजन जाव,
जीव क्यों न जाव टेक टरति न टारी हौंच
वृन्दावनवारी बनवारी के मुकुट पर-
पीतपटवारी वाहि मूरतिपै वारी हौं।।

इस विकल व्रजांगना की प्रीति सरिता को कौन बाँधकर रोक सकता है? लोक परलोक के बड़े बड़े पर्वतों को तोड़ती फोड़ती हुई वह तो कृष्ण महोदधि से मिलकर ही दम लेगी। कितना ऊँचा आत्मोत्सर्ग है! धन्य!

तन जाव, मन जाव, ‘देव’ गुरुजन जाव,
जीव क्यों न जाव, टेक टरति न टारी हौं।

जब उसने ऐसी कठिन टेक पकड़ ली तब वह पीतपटवाला साँवला उस हठीली ग्वालिन को क्यों न निहाल करेगा? गोसाईं तुलसीदासजी की यह धारणा है-

जाकर जापर सत्य सनेहूँ। सो तेहि मिलै न कछु संदेहू।।

पर कठिनता तो यह है कि सत्य स्नेह हमारे इन नीरस हृदयों में कैसे अंकुरितत होगा? प्रेम रस का खेल तो वही खेल सकेगा, जो अपने सरके साथ खेलता जानता होगा! जिसे प्रेम का थपेड़ा लग चुका है, वही प्यारे के पैरों तक पहुँच सकेगा-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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