प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमीएक कृष्णानु रागिनी गोपिका का कहती है- कोऊ कहौ कुलटा, कुलीन अकुलीन कहौ, इस विकल व्रजांगना की प्रीति सरिता को कौन बाँधकर रोक सकता है? लोक परलोक के बड़े बड़े पर्वतों को तोड़ती फोड़ती हुई वह तो कृष्ण महोदधि से मिलकर ही दम लेगी। कितना ऊँचा आत्मोत्सर्ग है! धन्य! तन जाव, मन जाव, ‘देव’ गुरुजन जाव, जब उसने ऐसी कठिन टेक पकड़ ली तब वह पीतपटवाला साँवला उस हठीली ग्वालिन को क्यों न निहाल करेगा? गोसाईं तुलसीदासजी की यह धारणा है- पर कठिनता तो यह है कि सत्य स्नेह हमारे इन नीरस हृदयों में कैसे अंकुरितत होगा? प्रेम रस का खेल तो वही खेल सकेगा, जो अपने सरके साथ खेलता जानता होगा! जिसे प्रेम का थपेड़ा लग चुका है, वही प्यारे के पैरों तक पहुँच सकेगा- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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