प्रेम योग -वियोगी हरि
दीनों पर प्रेमदीनों को सताकर उनकी आह से कौन मुर्ख अपने स्वर्गीय जीवन को नारकीय बनाना चाहेगा, कौन ईश्वर विद्रोह करने का दुस्साहस करेगा? गरीब की आह भला कभी निष्फल जा सकीत है- ‘तुलसी’ हाय गरीब की, कबहुँ न निष्फल जाय। और की बात हम नहीं जानते, पर जिसके हृदय में थोड़ा सा भी प्रेम है, वह दीन दुर्बलताओं को कभी सता ही नहीं सकता। प्रेमी निर्दय कैसे हो सकता है? उसका उदार हृदय तो दया का आगार होता है। दीन को वह अपनी प्रेममयी दया का सबसे बड़ा और पवित्र पात्र समझता है। दीन के सकरुण नेत्रों में उसे अपने प्रेमदेव की मनोमोहिनी मूर्ति का दर्शन अनायास प्राप्त हो जाता है। दीन की मर्मभेदिनी आह में उस पागल को अपने प्रियतम का मधुर आह्वान सुनायी देता है। इधर वह अपने दिल का दरवाजा दीन हीनों के लिए दिन रात खोले खड़ा रहता है, और उधर परमात्मा का हृदय द्वार उस दीन प्रेमी का स्वागत करने को उत्सुक रहा करता है। प्रेमी का हृदय दीनों का भवन है, दीनों का हृदय दीनबंधु भगवान् का मंदिर है और भगवान् का हृदय प्रेमी का वास स्थान है। प्रेमी के हृद्देश में दरिद्रनारायण ही एकमात्र प्रेम पात्र है। दरिद्र सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है। दीनदयालु ही आस्तिक है, ज्ञानी है, भक्त है और प्रेमी है। दीन दुखियों के दर्द का मर्मी ही महात्मा है। गरीबों का पीर जानने हारा ही सच्चा पीर है। कबीर ने कहा है- ‘कबिरा’ सोई पीर है, जो जानै पर पीर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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