प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 332

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दीनों पर प्रेम

दीनों को सताकर उनकी आह से कौन मुर्ख अपने स्वर्गीय जीवन को नारकीय बनाना चाहेगा, कौन ईश्वर विद्रोह करने का दुस्साहस करेगा? गरीब की आह भला कभी निष्फल जा सकीत है-

‘तुलसी’ हाय गरीब की, कबहुँ न निष्फल जाय।
मरे बैल के चामसों, लोह भसम ह्वै जाय।।

और की बात हम नहीं जानते, पर जिसके हृदय में थोड़ा सा भी प्रेम है, वह दीन दुर्बलताओं को कभी सता ही नहीं सकता। प्रेमी निर्दय कैसे हो सकता है? उसका उदार हृदय तो दया का आगार होता है। दीन को वह अपनी प्रेममयी दया का सबसे बड़ा और पवित्र पात्र समझता है। दीन के सकरुण नेत्रों में उसे अपने प्रेमदेव की मनोमोहिनी मूर्ति का दर्शन अनायास प्राप्त हो जाता है। दीन की मर्मभेदिनी आह में उस पागल को अपने प्रियतम का मधुर आह्वान सुनायी देता है। इधर वह अपने दिल का दरवाजा दीन हीनों के लिए दिन रात खोले खड़ा रहता है, और उधर परमात्मा का हृदय द्वार उस दीन प्रेमी का स्वागत करने को उत्सुक रहा करता है। प्रेमी का हृदय दीनों का भवन है, दीनों का हृदय दीनबंधु भगवान् का मंदिर है और भगवान् का हृदय प्रेमी का वास स्थान है। प्रेमी के हृद्देश में दरिद्रनारायण ही एकमात्र प्रेम पात्र है। दरिद्र सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है। दीनदयालु ही आस्तिक है, ज्ञानी है, भक्त है और प्रेमी है। दीन दुखियों के दर्द का मर्मी ही महात्मा है। गरीबों का पीर जानने हारा ही सच्चा पीर है। कबीर ने कहा है-

‘कबिरा’ सोई पीर है, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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