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प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रकृति में ईश्वर प्रेमउस दूध जैसी मुसकान की प्याली में यदि हम अपने जीवन को मिश्री की डली की तरह घोलकर एकरस कर दें, तो हमारी सारी प्रकृति उसी क्षण सौंदर्य सागर में कलोल करने लगे। यह अभिलाषा ही कितनी मधुर है! हमारी यह प्रकृति अभिलाषा जितनी ही जल्दी प्रेम धारा में डूब जाय, उतना ही अच्छा है। कैसी विशद व्यापकता है उस सुंदरतम के सौंदर्य की। अखिल ब्रह्माण्ड में सौंदर्य और माधुर्य को छोड़ और है ही क्या? उसने अपने सौंदर्य के बाणों से प्यारी प्रकृति का रोम रोम बेध डाला है। कैसा अलौकिक आखेटक है वह प्यारा पुरुषोत्तम! उन बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा।। उस अनोखे शिकारी ने अपने अचूक तीरों से सभी को बेध दिया है, किसी को अछूता नहीं छोड़ा। प्रकृति का प्रत्येक अणु परमाणु सौंदर्य बाणों से आहत होकर तड़प रहा है। सभी उसी तीर चलाने वाले की खोज में है। प्रकृति उस सुंदरतम के पूर्ण सौंदर्य को देखने के लिए न जाने कब से विरहाकुल है। उस लौ से लिपट जाने को दुनिया भर के प्रेमी पतंगे प्रयत्न करते रहते हैं, पर उनकी अवशेष अहंभावना उन्हें वहाँ तक पहुँचने नहीं देती और उनकी साध पूरी नहीं हो पाती। न सूरज ही उस अलबेले तीरंदाज के पास तक पहुँच पाया और न चाँद ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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