प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 326

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रकृति में ईश्वर प्रेम

उस दूध जैसी मुसकान की प्याली में यदि हम अपने जीवन को मिश्री की डली की तरह घोलकर एकरस कर दें, तो हमारी सारी प्रकृति उसी क्षण सौंदर्य सागर में कलोल करने लगे। यह अभिलाषा ही कितनी मधुर है! हमारी यह प्रकृति अभिलाषा जितनी ही जल्दी प्रेम धारा में डूब जाय, उतना ही अच्छा है।

कैसी विशद व्यापकता है उस सुंदरतम के सौंदर्य की। अखिल ब्रह्माण्ड में सौंदर्य और माधुर्य को छोड़ और है ही क्या? उसने अपने सौंदर्य के बाणों से प्यारी प्रकृति का रोम रोम बेध डाला है। कैसा अलौकिक आखेटक है वह प्यारा पुरुषोत्तम!

उन बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा।।
गगन नखत जो जाहिं न गने। वै सब बान ओहिके हने।।
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी।।
रोवँ रोवँ मानुस तन ठाढ़े। सूतहि सूत बेधि अस गाढ़े।।
बरुनि बान अस ओ पहँ, बेधे रन बन ढाँख। - जायसी

उस अनोखे शिकारी ने अपने अचूक तीरों से सभी को बेध दिया है, किसी को अछूता नहीं छोड़ा। प्रकृति का प्रत्येक अणु परमाणु सौंदर्य बाणों से आहत होकर तड़प रहा है। सभी उसी तीर चलाने वाले की खोज में है। प्रकृति उस सुंदरतम के पूर्ण सौंदर्य को देखने के लिए न जाने कब से विरहाकुल है। उस लौ से लिपट जाने को दुनिया भर के प्रेमी पतंगे प्रयत्न करते रहते हैं, पर उनकी अवशेष अहंभावना उन्हें वहाँ तक पहुँचने नहीं देती और उनकी साध पूरी नहीं हो पाती। न सूरज ही उस अलबेले तीरंदाज के पास तक पहुँच पाया और न चाँद ही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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