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प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रकृति में ईश्वर प्रेमरसिकवर नागरीदासजी कहते हैं- पूरन सरद ससि उदित प्रकाशमान, यह चाँदनी नहीं है, यह तो ज्ञान की गंगा प्रेम की सागर से मिलने भेंट ने आयी है। निर्गुण ब्रह्म की ज्योति सगुण श्याम के चेहरे पर झिलमिला रही है। प्रकृति की प्रेम धारा में उछल उछलकर नहाना क्या उस प्यारे कृष्ण को रिझाना नही है? अहा! उस मोहन की मधुर मुसकान प्रकृति के इस निखरे हुए रूप में हमारे मन को कैसा मोह रही है! खोल चंद्र की खिड़की जब तू स्वर्ग सदन से हँसता है, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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