प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 325

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रकृति में ईश्वर प्रेम

रसिकवर नागरीदासजी कहते हैं-

पूरन सरद ससि उदित प्रकाशमान,
कैसी छबि छाई देखौ बिमल जुन्हाई है।
अवनि अकास गिरि कानन औ जल थल
व्यापक गई सो जिय लागति सुहाई है।।
मुकता, कपूर चूर, पारद, रजत आदि,
उपमा ये उजल पै ‘नागर’ न भाई है।
बृंदाबन चंद्र चारू सगुन बिलोकिबेकों
निरगुन ज्योति मानो कुंजन में आई है।।

यह चाँदनी नहीं है, यह तो ज्ञान की गंगा प्रेम की सागर से मिलने भेंट ने आयी है। निर्गुण ब्रह्म की ज्योति सगुण श्याम के चेहरे पर झिलमिला रही है। प्रकृति की प्रेम धारा में उछल उछलकर नहाना क्या उस प्यारे कृष्ण को रिझाना नही है? अहा! उस मोहन की मधुर मुसकान प्रकृति के इस निखरे हुए रूप में हमारे मन को कैसा मोह रही है!

खोल चंद्र की खिड़की जब तू स्वर्ग सदन से हँसता है,
पृथिवी पर नवीन जीवन का नया विकास विकसता है।।
जी में आता है, किरनों में घुलकर केवल पलभर में,
बरस पड़ूँ मैं इस पृथिवी पर विस्तृत शोभा सागर में। - रामनरेश त्रिपाठी

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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