प्रेम योग -वियोगी हरि
अव्यक्त प्रेमप्रेम को प्रकट कर देने से क्षुद्र अहंकार और भी अधिक फूलने फलने लगता है। ‘मैं प्रेमी हूँ’- बस, इतना ही तो अहंकार चाहता है। ‘मैं तुम्हें चाहता हूँ’- बस, यही खुदी तो प्रेम का मीठा मजा नहीं लूटने देती। ब्रह्मात्मैक्य के पूर्ण अनुभवी को ‘सोऽहं, सोऽहं’ की रट लगाने से कोई लाभ? महाकवि गालिब ने क्या अच्छा कहा है- कतरा अपना भी हकीकत मे है दरिया लेकिन। मैं भी तो बूँद नहीं हूँ, समुद्र ही हूँ- जीव नहीं ब्रह्म ही हूँ- पर मुझे मंसूर के ऐसा हलकापन पसंद नहीं है। मैं अनलहक़ कह कहकर अपना और ईश्वर का अभेदत्व प्रकट नहीं करना चाहता। जो हूँ सो हूँ, कहने से क्या लाभ। सच बात तो यह है कि सच्चा प्रेम प्रकट किया ही नहीं जा सकता। जिसने उस प्यारे को देख लिया वह कुछ कहता नहीं और जो उसके बारे में कहता फिरता है, समझ लो, उसे उसका दर्शन अभी मिला ही नहीं। कबीर की एक साखी है- जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखै नाहिं। इसलिए प्रेम तो, प्यारे, गोपनीय ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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