प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 309

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मधुर रति

तेरे हाथ में आज अनायास ही अनमोल हीरा आ गया है। उसे यों ही न खो दे, पगली! तू कहा करती थी न कि-

जो अब प्रीतम मिलै, करूँ मैं निमिष न न्यारा।

सो वह प्राण प्यारा अब मिल तो गया। पर उससे तू परदा क्यों कर रही है? वह तुझे अपना दीदार ते तो रहा है। बेखुदी की मस्ती में डूबकर उसे भेंट क्यों नहीं लेती? क्यों सो रही है अब तक? देखती नहीं, तेरा प्राण प्यारा स्वामी कब से तेरे पास खड़ा है?

तू मति सोवै, री परी, कहौं तोहि मैं टेरि।
सजि सुभ भूषन बसन, अब पिया मिलन की बेरि।।
पिया मिलन की बेरि, छाड़ि अजहूँ लरिकापन।
सूधे दृगसों हेरि, फेरि मुख ना, दै तन मन।।
वरनै ‘दीनदयाल’ छमैगी चूकन हूँ पति।
जागि चरन में लागि, सुहागिन! सोवै तू मति।।

तुझे क्या खबर कि वह तुझे कितना प्यार करता है! क्यों नहीं लूट लेती उसके मधुर प्रेम का खजाना? वह लुटा तो रहा है। न जाने तेरी नींद कब जायेगी और कब अपने प्रियतम के दीदार का मीठा

मीठा रस पियेगा। हाय, हाय!
तू सुख सूती नींद भरि, जागै तेरा पीव।
क्यों करि मेला होइगा, जागै नाहीं जीव।। - दादूदयाल

इससे, एक बार फिर तुझे चेतावनी दी जाती है-

जागि चरन में लागि, सुहागिन! सोवै तू मति।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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