प्रेम योग -वियोगी हरि
मधुर रतिजिसके घायल कलेजे में बार बार प्रेम की हुक उठ रही हो, विरह की चोट कड़क रही हो, वह सती बिना अपने जीवन धन के कैसे जीवित रह सकती है। उसके लिए कहाँ के तो भूषण वसन और कहाँ का सुहाग सिंगार। यहसब तो उसका नजर में जहर है। प्रेम पीयूष की प्यास, भला, भोग विलासों के विष से शान्त हो सकती है। धन्य है उस सती को, जो सदा अपने स्वामी के चरणों में ही लौ लगाये रहती है, उससे मिलने को मछली की तरह तड़पा करती है। मधुर रति उन्मादिनी जीवात्मा कहती है कि मेरा प्रियतम मुझसे दूर नहीं है, जो संदेसा भेजकर उसे बुलाती फिरूँ। यह विरहोन्माद तो मेरी लगन का एक रंग है, मेरी मस्तीकी एक लहर है- प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय विदेस। कबीन्द्र रवीन्द के शब्दों में वह विरहिणी कहती है- Come to my heart and see अर्थात- हिय घुसि ताकौ रूप विलोकौ छलकत अँसुअन मेरे, वह कहती है कि मैं उसे बुलाने नहीं जाती, वह मुझे बुला रहा है। पर मैं कैसे जाऊँ! कैसे उस प्यारे के पैर जा पकड़ूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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