प्रेम योग -वियोगी हरि
मधुर रतिप्यारे की लगन की आग में जो अपनी खुदी को जला देती है। जिसकी लौ उसी एक के चरमों में लगी रहती है, वही पतिव्रता है, वही सुहागिनी है, वही सती है। दुनियाँ उसका मजाक उड़ाती है, पर वह उस पर कोई ध्यान नहीं देती। कुछ भी हो, वह अपने प्रियतम का साथ छोड़ने वाली नहीं। प्रेम की सेज सजाकर वह लगन की लहर से अपने साईँ को सदा रिझाती रहती है। उसकी रहनी का क्या पूछते हो। तुम्हारे संसारी भोग विलासों से उसे क्या मतलब है। वहाँ कहाँ की भूख और कहाँ की प्यास। उसकी साँ भी तभी तक जानो, जब तक उसे अपने प्राणेश्वर की याद है। वह दिन रात मौज की मस्ती में डूबी रहती ह। प्यारे के रंग में रंगी रहती है। उससे पूछते क्या हो- उसे अपनी देह तक की तो सुध है नहीं। वह कुछ न कहेगी! बोलेगी भी, तो अपने प्यारे के ही बुलाने पर बोलेगी। ऐसी परमानुरागिणी सती क्यों न उस प्रियतम को अपने हाथ में कर ले? जरा उस विरहिणी सती को अपने स्वामी से मिलने की तड़प तो देखो- बिरहिन रहै अकेलि, सो कैसे कै जीवै हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज