प्रेम योग -वियोगी हरि
सख्यमुझे तुम कोई और सखा तो समझ न लेना, मैं श्रीदामा हूँ, श्रीदामा समझे! मुझसे तुम पार न, पाओगे। गेंद की गेंद फेंक दी और ऊपर से आप गरम पड़ते हैं। बातों बातों झगड़ा बहुत बढ़ गया। कृष्ण ने श्रीदामा को एक के बदले तो गेंदें तक देनी चाहीं, पर वह न माना। अपनी ही गेंद लेने पर अड़ गया। आखिर यह हुआ कि- रिस करि लीनी फेंट छुड़ाई। यह बुरी बीती। मैया से इस दुष्ट ने अब की शिकायत! श्रीदामा! भैया श्रीदामा! लौट आओ, मैं तुम्हारी वहीं गेंद उठाये, लाता हूँ। मैया से न कहो, श्रीदामा! ‘सखा, सखा!’ कहि स्याम पुकारय्यौ, गेंद आपुनी लेहु न आई। लो, श्रीदामा, अब तो हो गयी तुम्हारे मन की! कृष्ण को कालीदह में कुदाकर ही माने! अब क्यों घबराते हो? तुमने न, एक गेंदे के लिए अपने प्यारे गोपाल को अथाह यमुना में कुदा दिया। यह दुखद समाचार फैलते ही हाहाकार मच गया। यशोदा और नन्द मूर्च्छित हो गिर पड़े। पर बलराम ने धैर्य न छोड़ा। सबको आप खड़े खड़े सान्त्वना देते रहे। आश्चर्य! यह क्या! कालीदह से इस महाविकराल सर्प को नाथे हुए यह कौन ऊपर आ रहा है? अरे, यह तो हमारे प्यारे कृष्ण हैं। सहस्रों कमल पुष्प भी यह उसी सर्प के मस्तक पर लाद लाये हैं। श्रीदामा सखा की गेंद भी ढूँढ़ ढाँढकर ला रहे हैं! धन्य यह नटवर वेश! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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