प्रेम योग -वियोगी हरि
सख्यपर उनमें हृदय से भाग जाने की सामर्थ्य कहाँ है। प्रेमियों के हृदयभवन से प्यारे कृष्ण का निकल जाना कोई खेल नहीं है। दिल कोई मामूली कैदखाना तो है नहीं। प्रियतम को बाँध ले आने के लिए तो प्रेम का एक कच्चा धागा ही काफी होता है। गोपाल कृष्ण एक दिन गोप कुमारों के साथ यमुना के तट पर गेंद खेल रहे थे। खेलते खेलते कृष्ण हार गये और श्रीदामा नाम का एक बालसखा जीत गया। लो, हारते ही नन्दनन्दन को रिस आ गयी और यमुना में उसकी गेंद फेंककर उसे गालियाँ बकने लगे। कुछ भी हो जाय, मैं इसे हार तो न दूँगा। हें! एक मामूली ग्वाले का लड़का मुझसे हार लेगा! पर श्रीदामा यों मानने वाला न था। पकड़ लिया कन्हैया का फेंटा और बोला- भैया हो! अब भाग न पाओगे। लाओ मेरी गेंद। मैं तो अपनी वही गेंद लूँगा, और तुम्हें देनी पड़ेगी। क्या हुआ जो तुम एक जागीरदार के लड़के हो। तुम अपने घर के राजा हो, तो हम भी अपने घर के राजा हैं। तुम्हारी छाया में तो हम कुछ बसते नहीं। क्या इसी से बड़ा अधिकार जता रहे हो कि तुम्हारे घर में हमारे यहाँ से कुछ अधिक गायें हैं? बड़े बने फिरते हो कहीं के राजकुमार! खबरदार, जो यहाँ से बिना गेंद और हार दिये आगे बढ़े। आँखें दिखाते हैं, वाह! हाँ, सच तो कहते हैं, खेल में कौन किसका स्वामी और कौन किसका सेवक? खेलत में को काकौ गुसैयाँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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