प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 283

प्रेम योग -वियोगी हरि

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सख्य

या तनतें बिछुरे तौ कहा, मनतें अनतें जु बसौ तब जानौं।

पर उनमें हृदय से भाग जाने की सामर्थ्य कहाँ है। प्रेमियों के हृदयभवन से प्यारे कृष्ण का निकल जाना कोई खेल नहीं है। दिल कोई मामूली कैदखाना तो है नहीं। प्रियतम को बाँध ले आने के लिए तो प्रेम का एक कच्चा धागा ही काफी होता है।

गोपाल कृष्ण एक दिन गोप कुमारों के साथ यमुना के तट पर गेंद खेल रहे थे। खेलते खेलते कृष्ण हार गये और श्रीदामा नाम का एक बालसखा जीत गया। लो, हारते ही नन्दनन्दन को रिस आ गयी और यमुना में उसकी गेंद फेंककर उसे गालियाँ बकने लगे। कुछ भी हो जाय, मैं इसे हार तो न दूँगा। हें! एक मामूली ग्वाले का लड़का मुझसे हार लेगा! पर श्रीदामा यों मानने वाला न था। पकड़ लिया कन्हैया का फेंटा और बोला- भैया हो! अब भाग न पाओगे। लाओ मेरी गेंद। मैं तो अपनी वही गेंद लूँगा, और तुम्हें देनी पड़ेगी। क्या हुआ जो तुम एक जागीरदार के लड़के हो। तुम अपने घर के राजा हो, तो हम भी अपने घर के राजा हैं। तुम्हारी छाया में तो हम कुछ बसते नहीं। क्या इसी से बड़ा अधिकार जता रहे हो कि तुम्हारे घर में हमारे यहाँ से कुछ अधिक गायें हैं? बड़े बने फिरते हो कहीं के राजकुमार! खबरदार, जो यहाँ से बिना गेंद और हार दिये आगे बढ़े। आँखें दिखाते हैं, वाह! हाँ, सच तो कहते हैं, खेल में कौन किसका स्वामी और कौन किसका सेवक?

खेलत में को काकौ गुसैयाँ?
तुम हारे हरि, हम जीते तौ बरबस ही कत करत रिसैयाँ।।
जाति पाँति कछु हमते नाहीं, ना हम बसत तुहारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातें, अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ।।
श्रीदामा गहि फेंट कह्यौ, हम तुम इक जोटा।
कहा भयौ, जो नंद बड़े तुम तिनके ढोटा।।
खेलत में कहा छोट बड़, हमहुँ महर के पूत।
गेंद दिये ही पै बनै, छाड़ि देहु मद धूत।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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