प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 278

प्रेम योग -वियोगी हरि

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वात्सल्य और तुलसीदास

सूर ने गायों की पर्यायोक्ति द्वारा वात्सल्य रति को प्रकट किया है, तो तुसली भी वही स्वाभाविक स्नेह, घोड़ों का स्मरण कराकर व्यक्त कर रहे हैं। यहाँ भी वही बात है-

जे पय प्याइ पोखि कर पंकज बार बार चुचुकारे।
क्यं जीवहिं मेरे राम लाड़िले! ते अब निपट बिसारे।।

इन दोनों महाकवियों के वर्णनों में, यहाँ कैसा सुंदर भाव सादृश्य हुआ! एक और भाव साम्य देखिये। सूर की दो मर्म भेदिनी पंक्तियाँ हैं-

प्रातः समय उठि माखन रोटी को बिनु माँगे देहै?
को मेरे बालक कुँवर कान्ह कौ छन छन आगो लेहै?

अब, तुलसी की करुणामयी पंक्तियों का इनसे मिलान करें-

को अब प्रात कलेऊ माँगत रूठि चलैगो, माई।
स्यामतामरस नैन स्रवत जल काहि लेउँ उर लाई।।

कौशल्या आदि माताओं की वात्सल्य रति का एक सुंदर दृश्य और देखते चलें। आज वनवास की वह लम्बी अवधि समाप्त हुई है। लंकेश्वर विजेता राघवोत्तम राम, वीर श्रेष्ठ लक्ष्मण और मिथिलेश नन्दिनी सीता का अयोध्या में शुभागमन हुआ है। स्नेहोत्कण्ठिता माताओं की मिलन अधीरता का गोसाईं जी ने जो चारु चित्रण किया है, वह कैसा स्वाभाविक और अनुपमेय हुआ है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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