प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्यक्या मुख लै बिनती करौं, लाज लगत है मोहि। पर सुना है कि तुम्हारी कृपा अनन्त है। केवल उसी का मुझे बल भरोस है। अब मेरे अपराधों और अपनी कृपा की ओर देखकर जो तुम्हें अच्छा लगे सो करो- औगुन किये तो बहु किये, करत न मानी हार। विश्वास तो यही है कि तुम अपने सेवक को दण्डित न करोगे, उसके अगणित अपराधों को क्षमा ही कर दोगे, क्योंकि तुम मेरे गरीब निवाज मालिक ही नहीं हो, मेरे पिता भी हो। मेरी लाज तुम्हारे ही हाथ में है- औगुन मेरे बापजो, बकस गरीब निवाज। कुछ भी हो, मेरे मालिक, अब मैं तुम्हारी नौकरी छोड़ने वाला नहीं। हाथ में आया यह दाव कैसे छोड़ दूँ, स्वामी! तुम्हरी भक्ति न छोड़हूँ, तन मन सिर किन जाव। सीस झुकाऊँगा तो तुम्हारे ही साथ। अब तो मैं तुम्हारे ही चरणों के अधीन हूँ- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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