प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्यसांसारिक अभिलाषाओं का अंकुर सच्चे भक्त के हृदय स्थल में जम ही नहीं करता, क्योंकि राग द्वेषादि तभी तक जीव की सद् वृत्तियों को लूटते रहते हैं, घर तभी तक उसे जेलखाना है और मोह तभी तक उसके पैर की बेड़ी है, जब तक नाथ! वह तुम्हारा दास नहीं हो गया- तावद्रगादयः स्तेनास्तावत्कारागृहं गृहम्। जिसका तुमसे स्वाभाविक प्रेम हो गया, जो तुमसे सिवा तुम्हारी कृपा के और कुछ नहीं चाहता, उसके हृदय में भला रागादि लुटेरे अपना अड्डा जमायेंगे! उसका मनोमंदिर तो प्रभो! तुम्हारा खास निवास स्थान है- जाहि न चाहिय कबहुँ कछु, तुम्ह सन सहज सनेहु। जहाँ राम हैं, वहाँ काम का क्या काम! काम वहीं रहेगा, जहाँ राम न होंगे- जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम। नाथ! मैं मैं और अनन्य दास! असम्भव है, मेरे लिये असम्भ है अनन्य दासत्व की प्राप्ति। अनन्य दास का लक्षण तो तुमने भक्ताग्रगण्य मारुति से कुछ ऐसा कहा था- सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमन्त। मैं तो जन्म जन्म का अपराधी हूँ, कृतघ्न हूँ, नख से शिख तक विकारों से भरा हुआ हूँ। सच पूछो तो विनती करना तो दूर है, मैं तुम्हें अपना मुँह दिखाने लायक भी नहीं हूँ। कबीर ने बिल्कुल सच कहा है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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