प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 195

प्रेम योग -वियोगी हरि

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कुछ आदर्श प्रेमी

मीन बियोग न सहि सकै, नीर न पूछै बात।
देखि जु तू ताकी गतिहि, रति न घटै, तन जात।। - सूर

तब भी मीन के प्रेम में कमी नहीं आने पाती। धन्य है उस अनन्य प्रेम का एकांगी प्रेम।

‘जीवन हो मेरो’ यह भाषत सकल नेही,
पालिबो सहज नाहीं कठिन करार कौ;
पैयतु हैं यामें, यातें गैयतु जगत जसु,
दूजो न करैया कोउ ऐसे निरधार कौ।
वाहि कछु, देखिये, न रंच परवाह परी,
वाहवा इकंगी ह्वै तरैया प्रेम धार कौ;
होतही बिहीन देह देय तजि प्राननिकों
देख्यो मैं ‘नवीन’ यों सनेह मीन वार कौ।।

जीते जी तो प्यारे जल को छोड़ेगी ही क्यों, मरने पर भी मछली उसे ही चाहती और उसी का प्रेम मांगती है। मरकर काटे जाने पर भी पानी से ही स्वच्छ होती है और पकाकर खाये जाने पर जल की ही चाह करती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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