प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 188

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमियों का सत्संग

यदि कहीं मिल जाय तो, फिर क्या पूछना-

प्रेमी से प्रेमी मिलै, सहज प्रेम दृढ़ होय। - कबीर

यों तो बहुतेरे दुनियावी आशिक़ मिले, पर उस मालिका का सच्चा आशिक तो हमें कोई नहीं मिला-

दिल मेरा जिससे बहलता, कोई ऐसा न मिला;
बुतके बन्दे मिले, अल्लाह का बन्दा न मिला। - अकबर

इसी से अब यहाँ जी नहीं लगता-

इन उजड़ी हुई बस्तियों में जी नहीं लगता,
है जी में वहीं जा बसें वीराना जहाँ हो। - मीर

इन बने हुए प्रेमियों के साथ रहने में अब दिल घबरा सा रहाहै। क्या समझ रक्खा है इन भले आदमियों ने प्रेम को! ऐसे तो पचासों मिलते हैं, पर वैसा एक भी नहीं मिलता। किसके आगे यह दर्द भरा दिल खोलकर रक्खा जाय, उसके दर पर अपना रोना रोया जाय। सुनने वाले बहुत है, पर सुनकर मर्म तक पहुंचने वाला कहाँ है! हाँ, हँसने वाले यहाँ बहुत हैं। इसी से तो जी मे आता है कि-

रहिए अब ऐसी जगह चलकर, जहाँ कोई न हो।
हम सखुन कोई न हो, औ हमजाबाँ कोई न हो।
बेदरो दीवार सा इक घर बनाना चाहिए,
कोई हमसाया न हो औ पासवाँ कोई न हो।
पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार,
और अगर भर जाइये तो नोहाख्वाँ कोई न हो। - गालिब

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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