प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 149

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम और विरह

युगों से कसक सो रही है। इसी से जीव भी बेहोश पड़ा है और सुरत भी सो रही है। कौन इन्हें जगावे। द्वार पर खड़े प्यारे स्वामी से कौन इस जीव को मिलावे। बस, विरह ही कसक को जगा सकता है और कसक जीव को जगा सकती है और सुरत को जीव जगा लेगा। संतवर दादूदयाल कहते हैं-

बिरह जगावै दरद को, दरद जगावै जीव।
जीव जगावै सुरत को, पंच पुकारै पीव।।

ऐसी महिमा है महात्मा विरह देव की। प्रियविरह निश्चयपूर्वक सुरत और जीव का सद्गुरु है। जिसने इस महामहिम से गुरुमंत्र ले लिया, उसका उसी क्षण प्रेम देव से तादात्म्य हो गया। जिसने यह दुस्साध्य साधन साध लिया, उसे आत्म साक्षात्कार हो गया। पर विरहात्मक प्रेम का साधक यहाँ मिलेगा कहाँ? इस लेन देन की दुनियाँ में उसका दर्शन दुर्लभ है। शायद ही लाख करोड़ में कहीं एकाध सच्चा विरही देखने में आये। उसकी पहचान भी बड़ी कठिन है। उसका भेद पा लेना आसान नहीं। संत चरणदास ने विरह साधना में मतवाली विरहिणी कैसी सच्ची तसवीर खींची है-

गदगद बानो कंठ में, आँसू टपकैं नैन।
वह तो बिरहिन रामकी, तलफति है दिन रैन।।
वह बिरहिन बौरी भई, जानत ना कोई भेद।
अगिन बरै, हियरा जरे, भये कलेजे छेद।।
जाप करै तो पीव का, ध्यान करै तो पीव।
जिव बिरहिनका पीव है, पिव बिरहिन का जीव।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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