प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम प्यालाप्रेम प्याले को ओंठ से लगाते ही हृदय में एक मीठी हूक उठा करती है। फिर पीने वाला किसी मीठे दर्द में मस्त हो जाता है, बेहोश हो जाता हॉ। किसी एक ओर उसकी लौ लग जाती है। उसे इस बात की याद भी नहीं रहती कि कौन उसका साथी है और वह किसका साथी है। जब देखो तब मतवाले हाथी की तरह घूमता झूमता नजर आता है। उसकी दृष्टि में न कोई राजा है, न कोई रंक। संसारी मोह के जितने नाते या बंधन हैं उन सबको तोड़ ताड़कर वह निर्भय विचरा करता है। उसके हृदय में तब किसी वासना या कामना के लिए जगह ही नहीं रह जाती। अपने प्यारे से मिलकर वह उसी का रूप हो जाता है। उस प्याले का प्रेमी प्रेममद्य को पीते पीते ही उस घर को पहुँच जाता है, जहाँ से लौटकर फिर कोई आवागमन के चक्र में नहीं पड़ता। अनायास ही उसे मुक्ति लाभ हो जाता है। पर मोक्षपद को वह कुछ अधिक आदर नहीं देता। वह तो अपने प्रिय के दर्शन में ही सदा मस्त रहता है। कबीर साहब ने कहा है- राता माता पीवका, पीया प्रेम अघाय। प्रेम की सुरा पीने से जीवन मरण का भय हृदय से निःशेष हो जाता है। जो इसमें छक गया, उसकी दृष्टि में संसार संसार नहीं। या तो वह निश्चिन्त विचरता रहता है या मतवाला होकर मौज के हौज में पड़ा रहता है। एक बार भी जिसने इस प्रेम मदिरा को ओंठ से लगा लिया, वह फिर बिना उसके रह ही नहीं सकता- वह तो सदा उसकी चाह में ही डूबा रहता है। धन दौलत को वह पानी की तरह बहा देता है। सर्वस्व ही क्यों न चला जाय, पर वह प्रेम सुराका पीना न छोड़ेगा- सुनु धन, प्रम सुरा के पिए। मरन जियन डर रहै न हिए।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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