प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 108

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमोन्माद

ऐसे होते हैं प्रेमोन्मादी। वह पगला अपनी खुदमस्ती में उछल कूद करने वाले शैतान मन को कुचलकर चूर चूर कर देता है। मन मातंग को वह प्रेम जंजीर से जकड़कर बाँध देता है। उसकी मस्ती के आगे मनरूपी मस्त हाथी मुर्दा सा पड़ा रहता है-

मन मतंग महमंत था, फिर नागहिर गंभीर।
दोहरी तेहरी, चौहरी परि गई प्रेम जंजीर।। - कबीर

वह पागल बकती सी बातें करता है, बिल्कुल बेमतलब, बेमानी। कबी खिलखिलाकर हँस पड़ता है, तो कभी आँसुओं का तार बाँध देता है। कौन जाने, किसलिए रोता और किसलिए हँसता है? पर इतना तो हम अवश्यक जानते हैं, कि वह रहता मौज में है। उसके रोने में भी रहस्य है और हँसने में भी रहस्य है।

प्रेमोन्मत्त भक्तवर सुतीक्ष्ण की सी कोटि की प्रेम विह्वलता को गोसाई तुलसीदास जी ने जिस कौशल से चित्रित किया है, वह देखते ही बनता है। अहा!

निर्भर प्रेममगन मुनि ज्ञानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी।।
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। ‘को मैं, चलेउँ कहाँ’ नहीं बूझा।।
कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई।।

उस पगले प्रेमी का जात पाँत से कोई नाता नहीं रह जाता। एक झटके से ही सब तोड़ ताड़कर अलग जा खड़ा होता है। लोग उसे पागल कहते हैं, और सका साथ छोड़ देते हैं। वह मस्तराम अपनी देहत को नहीं सँभाल सकता। रखना चाहता है पैर कहीं और पड़ता है कहीं! पर कुशल है, उसका प्यारा सदा उसके साथ रहता है। वही उसे गिरने पड़ने से संभाल लेता है। कभी चुप हो जाता है, कभी प्रीति के गीत गाने लगता है और कभी फूट फूटकर रोने लगता है! न जाने, किसका ध्यान करता है। कुछ पता नहीं चलता। बेसुध ही देखने में आता है। पर कभी कभी वह बेहोश पगला होशयार की तरह काम करने लगता है। उसके हृदय सिन्धु में आनन्द की हिलोरें उठा करती हैं। वह दीवाना न तो खुद ही किसी का साथ पसंद करता है, और न उसे ही कोई अपना संगी साथी बनाना चाहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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