- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 6 में दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर द्वारा प्रश्न पूछना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने कहा- सम्पूर्ण शास्त्रों के विशेषज्ञ महाप्राज्ञ पितामह! दैव और पुरुषार्थ में कौन श्रेष्ठ है?
भीष्म का संवाद
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में वसिष्ठ और ब्रह्मा जी के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। प्राचीन काल की बात है, भगवान वसिष्ठ ने लोकपितामह ब्रह्मा जी से पूछा- ‘प्रभो! दैव और पुरुषार्थ में कौन श्रेष्ठ है?’ राजन्! तब कमल जन्मा देवाधिदेव पितामह ने मधुर स्वर में युक्ति युक्त सार्थक वचन कहा- ब्रह्मा जी ने कहा- मुने! बीज से अंकुर की उत्पति होती है, अंकुर से पत्ते होते हैं। पत्तों से नाल, नाल से तने और डालियों होती हैं। उनसे पुष्प प्रकट होता है। फूल से फल लगता है और फल से बीज उत्पन्न होता है और बीज कभी निष्फल नहीं बताया गया है। बीच के बिना कुछ भी पैदा नहीं होता, बीज के बिना फल भी नहीं लगता। बीज से बीज प्रकट होता है, और बीज से ही फल की उत्पति मानी जाती है। किसान खेत में जाकर जैसा बीज बोता है उसी के अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार पुण्य या पाप-जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है।
दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का वर्णन
इसी प्रकार पुण्य या पाप-जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है। जैसे बीज खेत में बोये बिना फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार दैव (प्रारब्ध) भी पुरुषार्थ के बिना नहीं सिद्ध होता। पुरुषार्थ खेत है और दैव को बीज बताया गया है। खेत और बीज के संयोग से ही अनाज पैदा होता है। कर्म करने वाला मनुष्य अपने भले या बुरे कर्म का फल स्वयं ही भोगता है। यह बात संसार में प्रत्यक्ष दिखायी देती है। शुभ कर्म करने से सुख और पाप कर्म करने से दु:ख मिलता है। अपना किया हुआ कर्म सर्वत्र ही फल देता है। बिना किये हुए कर्म का फल कहीं नहीं भोगा जाता। पुरुषार्थी मनुष्य सर्वत्र भाग्य के अनुसार प्रतिष्ठा पाता है, परंतु जो अकर्मण्य है वह सम्मान से भ्रष्ट होकर घाव पर नमक छिड़कने के समान असहृा दु:ख भोगता है। मनुष्य को तपस्या से रूप, सौभाग्य और नाना प्रकार के रत्न प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कर्म से सब कुछ मिल सकता है, परंतु भाग्य के भरोसे निकम्मे बैठे रहने वाले को कुछ नहीं मिलता। इस जगत में पुरुषार्थ करने से स्वर्ग, भोग, धर्म में निष्ठा और बुद्धिमत्ता- इन सब की उपलब्धि होती है। नक्ष्ात्र, देवता, नाग, यक्ष, चन्द्रमा, सूर्य और वायु आदि सभी पुरुषार्थ करके ही मनुष्य लोक से देवलोक को गये हैं। जो पुरुषार्थ नहीं करते वे धन, मित्रवर्ग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्मी का भी उपभोग नहीं कर सकते। ब्राह्मण शौचाचार से, क्षत्रिय पराक्रम से वैश्य उद्योग से तथा शूद्र तीनों वर्णों की सेवा से सम्पत्ति पाता है। न तो दान न देने वाले कंजूस को धन मिलता है, न नपुंसक को, न अकर्मण्य को, न काम से जी चुराने वाले को, ये शौर्य हीन को न तपस्या न करने वाले को ही मिलता है। जिन्होंने तीनों लोकों, दैत्यों तथा सम्पूर्ण देवताओं की भी सृष्टि की है, वे ही ये भगवान विष्णु समुद्र में रहकर तपस्या करते हैं।
यदि अपने कर्मों का फल न प्राप्त हो तो सारा कर्म ही निष्फल हो जाय और सब लोग भाग्य को ही देखते हुए कर्म करने से उदासीन हो जाय। मनुष्य के योग्य कर्म न करके जो पुरुष केवल दैव का अनुसरण करता है वह दैव का आश्रय लेकर व्यर्थ ही कष्ट उठाता है। जैसे कोई स्त्री अपने नपुंसक पति को पाकर भी कष्ट ही भोगती है। इस मनुष्य लोक में शुभाशुभ कर्मों से उतना भय नहीं प्राप्त होता, जितना कि देवलोक में थोड़े ही पाप से भय होता है। किया हुआ पुरुषार्थ ही दैव का अनुसरण करता है, परंतु पुरुषार्थ न करने पर दैव किसी को कुछ नहीं दे सकता। देवताओं में भी जो इन्द्रादि के स्थान हैं वे अनित्य देखे जाते हैं। पुण्य कर्म के बिना दैव कैसे स्थिर रख सकेगा। देवता भी इस लोक में किसी के पुण्य कर्म का अनुमोदन नहीं करते हैं, अपितु अपनी पराजय की आशंका से वे पुण्यात्मा पुरुष में भयंकर आसक्ति पैदा कर देते हैं।[2] ऋषियों और देवताओं में सदा कलह होता रहता है।[3] फिर भी दैव के बिना केवल कथन मात्र से किसको सुख या दु:ख मिल सकता है ? क्योंकि कर्म के मूल में दैव का ही हाथ है। दैव के बिना पुरुषार्थ की उत्पति कैसे हो सकती है?
क्योंकि प्रवृति का मूल कारण दैव ही है (जिन्होंने पूर्व जन्म में पूण्यकर्म किये हैं, वे ही दूसरे जन्म में भी पूर्व संस्कारवश पुण्य में प्रवृत होते हैं। यदि ऐसा न हो तो सभी पुण्यकर्मों में ही लग जाये)। देवलोक में भी दैववश ही बहुत-से गुण (सुखद साधन) उपलब्ध होते हैं। आत्मा ही अपना बन्धु है, आत्मा ही अपना शत्रु है तथा आत्मा ही अपने कर्म और अकर्म का साक्षी है। प्रबल पुरुषार्थ करने से पहले का किया हुआ भी कोई कर्म बिना किया हुआ-सा हो जाता है और वह प्रबल कर्म ही सिद्ध होकर फल प्रदान करता है। इस तरह पुण्य या पापकर्म अपने यथार्थ फल को नहीं दे पाते हैं। देवताओं का आश्रय पुण्य ही है। पुण्य से ही सब कुछ प्राप्त होता है। पुण्यात्मा पुरुष को पाकर दैव क्या करेगा? पूर्वकाल में राजा ययाति पुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग से च्यूत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े थे, परंतु उनके पुण्यकर्मा दौहित्रों ने उन्हें पुन: स्वर्गलोक में पहुँचा दिया। इसी तरह पूर्वाकाल में ऐल नाम से विख्यात राजर्षि पुरूवा ब्राह्मणों के आशीर्वाद देने पर स्वर्गलोक को प्राप्त हुए थे। (अब इसके विपरीत दृष्टांत देते है) अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा सम्मानित होने पर भी कौशल नरेश सौदास को महर्षि वसिष्ठ के शाप से नरभक्षी राक्षस होना पड़ा। इसी प्रकार अश्वत्थामा और परशुराम- ये दोनों ही ऋषि पुत्र ओर धनुर्धर वीर हैं। इन दोनों ने पुण्यकर्म भी किये हैं तथापि उस कर्म के प्रभाव से स्वर्ग में नहीं गये। द्वितीय इन्द्र के समान सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके भी राजा वसु एक ही मिथ्या भाषण के दोष से रसातल को चले गये।[4]
विरोचन कुमार बलि कों देवताओं ने धर्मपाश से बांध लिया और भगवान विष्णु के पुरुषार्थ से वे पातालवासी बना दिये गये। राजा जनमेजय द्विज स्त्रियों का वध करके इन्द्र के चरण का आश्रय ले जब स्वर्गलोक को प्रस्थित हुए, उस समय दैव ने उसे आकर क्यों नहीं रोका। ब्रह्मर्षि वैशम्पायन अज्ञानवश ब्राह्मण की हत्या करके बाल-वध के पाप से भी लिप्त हो गये थे तो भी दैव ने उन्हें स्वर्ग जाने से क्यों नहीं रोका। पूर्वकाल में राजर्षि नृग बड़े दानी थे। एक बार किसी महायज्ञ में ब्राह्मणों को गोदान करते समय उनसे भूल हो गयी, अर्थात एक गउ को दुबारा दान में दे दिया जिसके कारण उन्हें गिरगिट की योनि में जाना पड़ा। राजर्षि धुन्धमार यज्ञ करते-करते बूढ़े हो गये तथापि देवताओं के प्रसन्नतापूर्वक दिये हुए वरदान को त्यागकर गिरिव्रज में सो गये (यज्ञ का फल नहीं पा सके)। महाबली धृतराष्ट्र- पुत्रों ने पाण्डवों का राज्य हड़प लिया था। उसे पाण्डवों ने पुन: बाहुबल से ही वापस लिया। दैव के भरोसे नहीं। तप औन नियमन संयुक्त रहकर कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि क्या दैवबल से ही किसी को शाप देते हैं, पुरुषार्थ के बल से नहीं ?
दैव द्वारा संकट से बचन
संसार में समस्त सुदुर्लभ सुख-भोग किसी पापी को प्राप्त हो जाय तो भी वह उसके पास टिकता नहीं, शीघ्र ही उसे छोड़कर चल देता है। जो मनुष्य लोभ और मोह में डूबा हुआ है उसे दैव भी संकट से नहीं बचा सकता। जैसे थोड़ी-सी वायु का सहारा पाकर बहुत बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ का सहारा पाकर देव का बल विशेष बढ़ जाता है। जैसे तेल समाप्त हो जाने से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर दैव भी नष्ट हो जाता है। उद्योगहीन मनुष्य धन का बहुत बड़ा भण्डार, तरह-तरह के भोग और स्त्रियों को पाकर भी उनका उपभोग नहीं कर सकता, किंतु सदा उद्योग में लगा रहने वाला महामनस्वी पुरुष देवताओं द्वारा सुरक्षित तथा गाड़कर रखे हुए धन को भी प्राप्त कर लेता है। जो दान करने के कारण निर्धन हो गया है, ऐसे सत्पुरुष के पास उसके सत्कर्म के कारण देवता भी पहुँचते हैं और इस प्रकार उसका घर मनुष्य लोक की अपेक्षा श्रेष्ठ देवलोक-सा हो जाता है। परंतु जहाँ दान नहीं होता वह घर बड़ी भारी समृद्धि से भरा हो तो भी देवताओं की दृष्टि में वह श्मशान के ही तुल्य जान पड़ता है। इस जीव-जगत में उद्योग मनुष्य कभी फूलता-फलता नहीं दिखायी देता। दैव में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगा दे। जैसे शिष्य गुरु को आगे करके चलता है उसी तरह दैव पुरुषार्थ को ही आगे करे स्वयं उसके पीछे चलता है। संचित किया हुआ पुरुषार्थ ही दैव को जहाँ चाहता है, वहां-वहाँ ले जाता है। मुनिश्रेष्ठ! मैंने सदा पुरुषार्थ के ही फल को प्रत्यक्ष देखकर यथार्थ रूप से ये सारी बातें तुम्हें बतायी हैं। मनुष्य दैव के उत्थान से आरम्भ किये हुए पुरुषार्थ से उत्तम विधि और शास्त्रोक्त सत्कर्म से ही स्वर्गलोक का मार्ग पा सकता है।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-18
- ↑ जिससे उनके धर्म में विध्न उपस्थित हो जाय
- ↑ देवता ऋषियों की तपस्या में विध्न डालते हैं तथा ऋषि अपने तपोबल से देवताओं को स्थान भ्रष्ट कर देते हैं।
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 6 श्लोक 19-34
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 6 श्लोक 35-49
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| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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