- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 104 में आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
भीष्म-युधिष्ठिर संवाद
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य की आयु सौ वर्षों की होती है। वह सैकड़ों प्रकार शक्ति लेकर जन्म धारण करता है। किंतु देखता हूँ कि कितने ही मनुष्य बचपन में ही मर जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? मनुष्य किस उपाय से दीर्घ आयु होता है अथवा किस कारण से उसकी आयु कम हो जाती है? क्या करने वह कीर्ति पाता है और क्या करने से उसे संपत्ति की प्राप्ति होती है? पितामह! मनुष्य, मन, वाणी अथवा शरीर के द्वारा तप, ब्रह्मचर्य, जप, होम तथा ओषध आदि में से किसका आश्रय ले, जिससे वह श्रेय का भागी हो, वह मुझे बताइये।
भीष्मी जी ने कहा- युधिष्ठिर! तुम मुझ से जो पूछ रहे हो, इसका उत्तर देता हूँ। मनुष्य जिस कारण से अल्पायु होता है, जिस उपाय से दीर्घ आयु होता है, जिससे वह कीर्ति और संपत्ति का भागी होता है तथा जिस वर्ताव से पुरुष को श्रेय का संयोग प्राप्त होता है, वह सब बताता हूं, सुनो। सदाचार से ही मनुष्य को आयु की प्राप्ति होती है, सदाचार से ही वह संपत्ति पाता है तथा सदाचार से ही उसे इहलोक और परलोक में भी कीर्ति की प्राप्ति होती है। दुराचारी पुरुष, जिससे समस्त प्राणी डरते और तिरस्कृत होते हैं, इस संसार में बड़ी आयु नहीं पाता। अत: यदि मनुष्य अपना कल्याण चाहता हो तो उसे इस जगत में सदाचार का पालन करना चाहिये। जिसका सारा शरीर ही पापमय है, वह भी यदि सदाचार का पालन करे तो वह उसके शरीर और मन के बुरे लक्षणों को दबा देता है।
सदाचार ही धर्म का लक्षण है। सच्चारित्रता ही श्रेष्ठ पुरुषों की पहचान है। श्रेष्ठ पुरुष जैसा वर्ताव करते हैं; वही सदाचार का स्वरुप अथवा लक्षण है। जो मनुष्य धर्म का आचरण करता है और लोक कल्याण के कार्य में लगा रहता है, उसका दर्शन न हुआ हो तो भी मनुष्य केवल नाम सुनकर उससे प्रेम करने लगते हैं। जो नास्तिक, क्रियाहीन, गुरु और शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले, धर्म को न जानने वाले और दुराचारी हैं, उन मनुष्यों की आयु क्षीण हो जाती है। जो मनुष्य शीलहीन, सदा धर्म की मर्यादा भंग करने वाले तथा दूसरे वर्ण की स्त्रियों के साथ सम्पर्क रखने वाले हैं; वे इस लोक में अल्पायु होते और मरने के बाद नरक में पड़ते हैं।
सब प्रकार के शुभ लक्षणों से हीन होने पर भी जो मनुष्य सदाचारी, श्रद्धालु और दोषदृष्टि से रहित होता है, वह सौ वर्षों तक जीवित रहता है। जो क्रोधहीन, सत्यवादी किसी भी प्राणी की हिंसा न करने वाला, अदोषदर्शी और कपट शून्य है, वह सौ वर्षों तक जीवित रहता है। जो ढेले फोड़ता है, तिनके तोड़ता, नख चबाता तथा सदा ही उच्छिष्ट (अशुद्ध) एवं चंचल रहता है, ऐसे कुलक्ष्ण युक्त मनुष्य को दीर्घायु नहीं प्राप्त होती। प्रतिदिन ब्रह्म मुहुर्त में (अर्थात सूर्योदय से दो घड़ी पहले) जागे तथा धर्म और अर्थ विषय में विचार करे। फिर शैय्या से उठकर शौक-स्नान के पश्चात आचमन करके हाथ जोड़े हुए प्रात:काल की संध्या करे।[1]
इसी प्रकार सांयकाल में भी मौन रहकर संध्योपासना करे। उदय और अस्त के समय सूर्य की ओर कदापि न देखे। ग्रहण और मध्याह्न के समय भी सूर्य की ओर दृष्टिपात न करे तथा जल में स्थित सूर्य के प्रतिबिम्ब की ओर भी न देखे। ऋषियों ने प्रतिदिन संध्योपासन करने से दी दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इसलिये सदा मौन रहकर द्विजमात्र प्रात:काल और सांयकाल की संध्या अवश्य करनी चाहिये। जो द्विज न तो प्रातकाल की संख्या करते है और न सांयकाल की ही, उन सबको धार्मिक राजा शूद्रोचित कर्म करावे।
कर्मों का वर्णन
किसी भी वर्ण के पुरुष को कभी भी परायी स्त्रियों से संसर्ग नहीं करना चाहिये। परस्त्री-सेवन से मनुष्य की आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। संसार में परस्त्री समागम के समान दूसरा कोई कार्य नहीं है। स्त्रियों के शरीर में जितने रोमरुप होते हैं, उतने ही हजार वर्षों तक व्यभिचारी पुरुषों को नरक में रहना पड़ता है। केशों का संवारना, आंखों में अंजन लगाना, दांत-मुंह धोना और देवताओं की पूजा करना- ये सब कार्य दिन के पहले प्रहर में ही करने चाहिये। मल-मू्त्र की ओर न देखे, उस पर कभी पैर न रखे। अत्यन्त सबेरे, अधिक सांझ हो जाने पर और ठीक दोपहर के समय की बाहर न जाय। न तो अपरिचित पुरुषों के साथ यात्रा करे, न शूद्रों के साथ और न अकेला ही।
ब्राह्मण, गाय, राजा, वृद्व पुरुष, गर्भिणी स्त्री, दुर्बल और भारपीड़ित मनुष्य यदि सामने आते हो तो स्वयं किनारे हटकर उन्हें जाने का मार्ग देना चाहिये। मार्ग में चलते समय अश्वत्थ आदि परिचित वृक्षों तथा समस्त चौराहों को दाहिने करके जाना चाहिये। दोपहर में, रात में, विशेषत: आधी रात के समय और दोनो संध्या के समय कभी चौराहों पर न रहे। दूसरों के पहने हुए वस्त्र और जूते न पहने। सदा ब्रह्मचर्य का पालन करे। पैर से पैर को न दबावे। सभी पक्षों की अमावस्या, पौर्णमासी,चर्तुदशी और अष्टमी तिथि को सदा ब्रह्मचारी रहे- स्त्री समागम न करे। किसी की निंदा, बदनाम और चुगली न करे। दूसरों के मर्म पर आघात न करे। क्रूरतापूर्ण बात न बोले, औरों को नीचा न दिखावे। जिसके कहने से दूसरों के उद्वेग होता हो वह रुखाई से भरी हुई बात पापियों के लोक में ले जान वाली होती है। अत: वैसी बात कभी बोले।
वचनरुपी बाण मुंह से निकलते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोक में पड़ा रहता है। अत: जो दूसरों के मर्मस्थानों पर चोट करते हैं, ऐसे वचन विद्वान पुरुष दूसरों के प्रति कभी न कहे। बाणों से बिंधा और फरसे से कटा हुआ वन पुन: अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचनरुपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव नहीं भरता है। कर्णि, नालीक और नाराच-ये शरीर में यदि गड़ जायेंतो चिकित्सक मनुष्य हन्हें शरीर सें निकाल देते हैं, किंतु वचन रुपी बाण को निकालना असंभव होता है: क्योंकि हृदय के भीतर चुभा होता है। हीनांग (अंधे-काने आदि), अधिकांग (छांगुर आदि), विद्याहीन, निन्दित, कुरुप, निर्धन और निर्बल मनुष्यों पर आक्षेप करना उचित नहीं हैं। नास्तिकता, वेदों की निंदा, देवताओंक को कोसना, द्वेष उद्दण्डता, अभिमान और कठोरता-इन दुर्गुणों का त्याग करना देना चाहिये।[2]
क्रोध में आकर पुत्र या शिष्य के सिवा दूसरे किसी को न तो डंडा मारे, न उसे पृथ्वी पर ही गिरावे। हां, शिक्षक के लिये पुत्र या शिष्य को ताड़ना देना उचित माना गया है। ब्राह्मण की निंदा न करें, घर-घर घूम-घूम कर नक्षत्र और किसी पक्ष की तिथि न बताया करें। ऐसा करने से मनुष्य की आयु क्षीण नहीं होती है। अमावस्या के सिवा प्रतिदिन दंतधावन करना चाहिये। इतिहास, पुराणों का पाठ, वेदों का स्वाध्याय, दान, एक्राचित्त होकर संध्योपासना और गायत्री मंत्र का जप- ये सब कर्म नित्य करने चाहिये।
मल-मूत्र त्यागने और रास्ता चलने के बाद तथा स्वाध्याय और भोजन करने से पहले पैर धो लेने चाहिये। जिस पर किसी की दूषित दृष्टि न पड़ी हो, जो जल से धोया गया हो तथा जिसकी ब्राह्मण लोग वाणी द्वारा प्रशंसा करते हों- ये ही तीन वस्तुऐं देवताओं ने ब्राह्मण के उपयोग में लाने योग्य और पवित्र बतायी हैं।। जौ के आटे का हलवा,खिचड़ी, फल का गूदा, पुड़ी और खीर- ये सब वस्तुऐं अपने लिये नहीं बनानी चाहिये। देवताओं को अपर्ण करने के लिये ही इनको तैयार करना चाहिये।
प्रतिदिन अग्नि की सेवा करें, नित्य प्रति भिक्षु को भिक्षा दें और मौन होकर प्रतिदिन दंतधावन करें। सांय काल में न सोयें, नित्य स्नान करें और सदा पवित्रता पूर्वक रहें। सूर्य उदय होने तक कभी न सोयें। यदि किसी दिन ऐसा हो जाये तो प्रायश्चित करे। प्रतिदिन प्रात: काल सोकर उठने के बाद पहले माता-पिता को प्रणाम करे। फरि आचार्य तथा अन्य गुरुजनों का अभिवादन करे। इससे दीर्घआयु प्राप्त होती है। शास्त्रोंमें जिन काष्ठों का दांतन निसिद्व माना गया है, उन्हें सदा ही त्याग दें- कभी काम में न लें। शास्त्र विहित काष्ठ का ही दंतधावन करें; परंतु पर्व के दिन उसका भी परित्याग कर दें। सदा एकाग्रचित्त हो दिन में उत्तर की ओर मुंह कर के ही मल-मूत्र का त्याग करें। दंतधावन किये बिना देवताओं की पूजा न करें। देव पूजा किये बिना गुरु, वृद्व, धार्मिक तथा विद्वान पुरुषको छोड़कर दूसरे किसी के पास न जाये। अत्यन्त बुद्धिमान पुरुषों को मलिन दर्पण में कभी अपना मुंह नहीं देखना चाहिये। अपरिचित तथा गर्भिणी स्त्री के पास भी न जायें।
विद्वान पुरुष विवाह से पहले मैथुन न करे, अन्यथा वह ब्रह्मचर्य-व्रत को भंग करने का अपराधी माना जाता है। ऐसी दशा में उसे प्रायश्चित करना चाहिये। वह परायी स्त्री की ओर न तो देखे और न एकान्त में उसके साथ एक आसन पर बैठे ही। इन्द्रियों को सदा अपने वश में रखे। स्वप्न में भी शुद्ध मन वाला होकर रहे। उत्तर तथा पश्चिम की ओर सिर करके न सोयें। विद्वान पुरुष को पूर्व अथवा दक्षिण की ओर सिर करके ही सोना चाहिये। टूटी और ढीली खाट पर नहीं सोना चाहिये। अंधेरे में पडी हुई शय्या पर भी सहसा शयन नहीं करना उचित नहीं है (उजाला करके उसे अच्छी तरह देख लेना चाहिये)। किसी दूसरे के साथ एक खाट पर न सोये। इसी तरह पलंग पर कभी तिरछा होकर नहीं, सदा सीधे ही सोना चाहिये।[3]
नास्तिकों के साथ काम पड़ने पर भी न जायें। उनके शपथ खाने या प्रतिज्ञा करने पर भी उनके साथ यात्रा न करें। आसन को पैर से खींचकर मनुष्य उस पर न बैठे। विद्वान पुरुष कभी नग्न होकर स्नान न करें। रात में कभी न नहाऐं। स्नान के पश्चात अपने अंगों में तेल आदि की मालिश न करावें। स्नान किये बिना अपने अंगों में चंदन या अंराग न लगावे। स्नान कर लेने पर गीले वस्त्र न झटकारे। मनुष्य भीगे वस्त्र कभी न पहने। गले में पड़ी हुई माला को कभी न खींचे। उसे कपड़े के ऊपर न धारण करे। रजस्वला स्त्री के साथ कभी बातचीत न करे। बाये हुए खेत में, गांव के आस-पास तथा पानी में कभी मल-मू्त्र का त्याग न करे।
देव मन्दिर, गौओं के समुदाय, देव सम्बन्धी वृक्ष और विश्राम स्थान निकट तथा बढ़ी हुई खेती में भी मल-मू्त्र का त्याग नहीं करना चाहिये। भोजन कर लेने पर, छींक आने पर, रास्ता चलने पर तथा मल-मूत्र का त्याग करने पर यथोचित शुद्धि करके दो बार आचमन करे। आचमन में इतना जल पीये कि वह हृदय तक पहुँच जाये। भोजन करने की इच्छा वाला पुरुष पहले तीन बार मुख से जल का स्पर्श (आचमन) करे। फिर भोजन के पश्चात भी तीन आचमन करे। फिर अंगुष्ठ के मूल भाग से दो बार मूंह को पोंछें। भोजन करने वाला पुरुष प्रतिदिन पूर्व ओर मुंह करके मौन भाव से भोजन करे। भोजन करते समय परोसे हुऐ अन्न की निंदान करे। किंचिन मात्र अन्न थाली में छोड दें और भोजन करके मन ही मन अग्नि का स्मरण करें।
जो मनुष्य पूर्व दिशा की ओर मुंह करके भोजन करता है, उसे दीर्घायु, जो दक्षिण की ओर मुंह करके भोजन करता है उसे यश, जो पश्चिम की ओर मुख करके भोजन करता है उसे धन और और जो उत्तराभिमुख भोजन करता है उसे सत्य की प्राप्ति होती है। (मनसे) अग्नि का स्पर्श करके जल से संपूर्ण इन्द्रियों का, सब अंगों का नाभि का और दोनों हथेलियों का स्पर्श करे। भूसी, भस्म, बाल और मुर्दे की खोपड़ी आदि पर कभी न बैठें। दूसरे के नहाये हुए जल का दूर से ही त्याग कर दें। शांति-होम करे, सावित्र संज्ञक मंत्रों का जप और स्वाध्याय करे। वैठ कर ही भोजन करे, चलते-फिरते कभी भोजन नहीं करना चाहिये। खड़ा होकर पेशाब न करे। राख और गौशाला में भी मूत्र त्याग न करे, भीगे पैर भोजन तो करे, परंतु सयन न करे।
भीगे पैर भोजन करने वाला मनुष्य सौ वर्षों तक जीवन धारण करता है। भोजन करके हाथ-मुंह धोऐ बिना मनुष्य उच्छिष्ट (अपवित्र) रहता है। ऐसी अवस्था में उसे अग्नि, गौ तथा ब्राह्मण – इन तीन तेजस्वियों का स्पर्श नहीं करना चाहिये। इस प्रकार आचरण करने से आयु का नाश नहीं होता है। उच्छिष्ट मनुष्य को सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र- इन त्रिविध तेजों की ओर कभी दृष्टि नहीं डालनी चाहिये। वृद्व पुरुष के आने पर तरुण पुरुष के प्राण ऊपर की ओर उठनें लगते है। ऐसी दशा में जब वह खड़ा होकर वृद्व पुरुषों का स्वागत और उन्हें प्रणाम करता है, तब वे प्राण पुन: पूर्वावस्था में आ जाते है।[4]
इसलिये जब कोई वृद्ध पुरुष अपनें पास आवे, तब उसे प्रणाम करके बैठनें को आसन दे और स्वयं हाथ जोड़कर उसकी सेवा में उपस्थ्ति रहे। फिर वह जानें लगे, तब उसके पीछे- पीछे कुछ दूर तक जाय। फटे हुये आसन पर न बैठे। फूटी हुई कांसी की थाली को काम में न ले। एक ही वस्त्र (केवल धोती) पहनकर भोजन न करें।(साथ में गमछा भी लिये रहे) नग्न होकर स्नान न करें। नंगे होकर न सोये। उच्छिष्ट अवस्था में भी शयन न करें। जूठे हाथ से मस्तक का स्पर्श न करें, क्यों कि समस्त प्राण मस्तक के ही आश्रित है। सिर के बाल पकड़कर खींचना और मस्तक पर प्रहार करना वर्जित है। दोनों हाथ सटाकर उनसे अपना सिर न खुजलावे। बारंबार मस्तक पर पानी न ड़ाले। इन सब बातों के पालन से मनुष्य की आयु क्षीण नहीं होती है।
सिर पर तेल लगाने के बाद उसी हाथ से दूसरे अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिये और तिल के बने हुए पदार्थ नहीं खाने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य की आयु क्षीण नहीं होती है। जूठे मुंह न पढ़ावे तथा उच्छिष्ट अवस्था में स्वयं भी कभी स्वाध्यायन करे। यदि दुर्गन्ध युक्त वायु चले, तब तो मन से स्वाध्याय का चिंतन भी नही करना चाहिये। प्राचीन इतिहास के जानकार लोग इस विषय में यमराज की गायी हुई गाथा सुनाया करते हैं। (यमराज कहते है-) ‘जो मनुष्य जूठे मुंह उठकर दौड़ता और स्वाध्याय करता है, मैं उसकी आयु नष्ट कर देता हूँ और उसकी संतानों को भी उससे छीन लेता हूँ। ‘जो मनुष्य जूठे मुंह उठकर दौड़ता और स्वाध्याय करता है, मैं उसकी आयु नष्ट कर देता हूँ और उसकी संतानों को भी उससे छीन लेता हूँ। जो द्विज मोहवश अनध्याय के समय भी अध्ययन करता है, उसके वैदिक ज्ञान और आयु का भी नाश हो जाता है। ‘अत: सावधान पुरुष को निषिद्ध समय में कभी वेदों का अध्ययन नहीं करना चाहिये।
जो सूर्य, अग्नि, गौ तथा ब्राह्मणों की ओर मूंह कर के पेशाब करते हैं और जो बीच रास्ते में मूतते हैं, वे सब गतायु हो जाते हैं। मूल और मूत्र दोनों का त्याग दिन में उत्तराभिमुख होकर करे और रात में दक्षिणाभिमुख। ऐसा करने से आयु का नाश नहीं होता। जिसे दीर्घ काल तक जीवित रहने की इच्छा हो, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और सर्प-इन तीनों के दुर्वल होने पर भी इनको न छेड़े; क्योंकि ये सभी बड़े जहरीले होते हैं। क्रोध में भरा हुआ सांप जहाँ तक आंखों से देख पाता है, वहाँ तक धावा करके काटता है। क्षत्रिय भी कुपित होने पर अपनी शक्ति भर शत्रु को भस्म करने की चेष्टा करता है; परंतु ब्राह्मण जब कुपित होता है, तब वह अपनी दृष्टि और संकल्प से अपमान करने वाले पुरुष के सम्पूर्ण कुल को दग्ध कर डालता है; इसलिये समझदार मनुष्य को यत्नपूर्वक इन तीनों की सेवा करनी चाहिये। गुरु के साथ कभी हठ नहीं ठानना चाहिये। युधिष्ठिर! यदि गुरु अप्रसन्न हों तो उन्हें हर तरह से मान देकर मनाकर प्रसन्न करने की चेष्टा करनी चाहिये।[5]
गुरु प्रतिकूल बर्ताव करते हों तो भी उनके प्रति अच्छा ही बर्ताव करना उचित है; क्योंकि गुरुनिंदा मनुष्यों की आयु को दग्ध कर देती है, इसमें संशय नहीं है। अपना हित चाहने वाला मनुष्य घर से दूर जाकर पेशाब करे, दूर ही पैर धोवे और दूर पर ही जूठे फेंके।[6]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 1-16
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 17-36
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 37-49
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 50-64
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 65-80
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 81-97
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| निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान
| श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश
| विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन
| पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना
| श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद
| भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना
| वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा
| भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा
| इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत
| अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ
| इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना
| सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना
| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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