- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 148 में श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
नारद द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
नारद जी कहते हैं- तदनन्तर आकाश में बिजली की गड़गड़ाहट और मेघों की गम्भीर गर्जना के साथ महान शब्द होने लगा। मेघों की घनघोर घटा से घिरकर सारा आकाश नीला हो गया। वर्षाकाल की भाँति मेघसमूह निर्मल जल की वर्षा करने लगा। सब और घोर अन्धकार छा गया। दिशाएँ नहीं सूझती थीं। उस समय उस रमणीय, पवित्र एवं सनातन देवगिरि पर ऋषियों ने जब दृष्टिपात किया, तब उन्हें वहाँ न तो भगवान शंकर दिखायी दिये और न भूतों के समुदाय का ही दर्शन हुआ। फिर तो तत्काल एक ही क्षण में सारा आसमान साफ हो गया। कहीं भी बादल नहीं रह गया। तब ब्राह्मण लोग वहाँ से तीर्थयात्रा के लिये चल दिये और अन्य लोग भी जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। यह अद्भुत और अचिन्त्य घटना देखकर सब लोग आश्चर्यचकित हो उठे।
पुरुषसिंह देवकीनन्दन! भगवान शंकर का पार्वती जी के साथ जो आपके सम्बन्ध में संवाद हुआ उसे सुनकर हम इस निश्चय पर पहुँच गये हैं कि वे ब्रह्मभूत सनातन पुरुष आप ही हैं। जिनके लिये हिमालय के शिखर पर महादेव जी ने हम लोगों को उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण! आपके तेज से दूसरी अद्भुत घटना आज यह घटित हुई है, जिसे देखकर हम चकित हो गये हैं और हमें पूर्वकाल की वह शंकर जी वाली बात पुनः स्मरण हो रही है। प्रभो! महाबाहु जनार्दन! यह मैंने आपके समक्ष जटाजूटधारी देवाधिदेव गिरीश के माहात्म्य का वर्णन किया है। तपोवन- निवासी मुनियों के ऐसा कहने पर देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय उन सबका विशेष सत्कार किया। तदनन्तर वे महर्षि पुनः हर्ष में भरकर श्रीकृष्ण से बोले- 'मधुसूदन! आप सदा ही हमें बारंबार दर्शन देते रहें। 'प्रभो! आपके दर्शन में हमारा जितना अनुराग है, उतना स्वर्ग में भी नहीं है।
महाबाहो! भगवान शिव ने जो कहा था, वह सर्वथा सत्य हुआ। 'शत्रुसूदन! यह सारा रहस्य मैंने आपसे कहा है, आप ही अर्थ- तत्त्व के ज्ञाता हैं। हमने आपसे पूछा था, परंतु आप स्वयं ही जब हम से प्रश्न करने लगे, तब हम लोगों ने आपकी प्रसन्नता के लिये इस गोपनीय रहस्य का वर्णन किया है। तीनों लोकों में कोई ऐसी बात नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो। 'प्रभो! आपका जो यह अवतार अर्थात मानव शरीर में जन्म हुआ है तथा जो इसका गुप्त कारण है, यह सब तथा अन्य बातें आपसे छिपी नहीं हैं। हम लोग तो अपनी अत्यन्त चपलता के कारण इस गूढ़ विषय को अपने मन में ही छिपाये रखने में असमर्थ हो गये हैं।
'भगवन! इसीलिये आपके रहते हुए भी हम अपने ओछेपन के कारण प्रलाप करते हैं- छोटे मुँह बड़ी बात कर रहे हैं। देव! पृथ्वी पर या स्वर्ग में कोई भी ऐसी आश्चर्य की बात नहीं है, जिसे आप नहीं जानते हों। आपको सब कुछ ज्ञात है। 'श्रीकृष्ण! अब आप हमें जाने की आज्ञा दें, जिससे हम अपना कार्य साधन करें। आपको उत्तम बुद्धि और पुष्टि प्राप्त हो। तात! आपको आपके समान अथवा आपसे भी बढ़कर पुत्र प्राप्त हो। वह महान प्रभाव से युक्त, दीप्तिमान, कीर्ति का विस्तार करने वाला और सर्वसमर्थ हो।'[1]
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर वे महर्षि उन यदुकुलरत्न देवेश्वर पुरुषोत्तम को प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके चले गये। तत्पश्चात परम कान्ति से युक्त ये श्रीमान नारायण अपने व्रत को यथावतरूप से पूर्ण करके पुनः द्वारकापुरी में चले आये। प्रभो! दसवाँ मास पूर्ण होने पर इन भगवान के रुक्मिणी देवी के गर्भ से एक परम अद्भुत, मनोरम एवं शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो इनका वंश चलाने वाला है।
नरेश्वर! जो सम्पूर्ण प्राणियों के मानसिक संकल्प में व्याप्त रहने वाला है और देवताओं तथा असुरों के भी अन्तःकरण में सदा विचरता रहता है, वह कामदेव ही भगवान श्रीकृष्ण का वंशधर है। वे ही ये चार भुजाधारी घनश्याम पुरुषसिंह श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक तुम पाण्डवों के आश्रित हैं और तुम लोग भी इनके शरणागत हो। ये त्रिविक्रम विष्णु देव जहाँ विद्यमान हैं, वहीं कीर्ति, लक्ष्मी, धृति तथा स्वर्ग का मार्ग है। इन्द्र आदि तैंतीस देवता इन्हीं के स्वरूप हैं, इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। ये ही सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने वाले आदिदेव महादेव हैं। इनका न आदि है न अन्त। ये अव्यक्तस्वरूप, महातेजस्वी महात्मा मधुसूदन देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये यदुकुल में उत्पन्न हुए हैं। ये माधव दुर्बोध तत्त्व के वक्ता और कर्ता हैं।
कुन्तीनन्दन! तुम्हारी सम्पूर्ण विजय, अनुपम कीर्ति और अखिल भूमण्डल का राज्य- ये सब भगवान नारायण का आश्रय लेने से ही तुम्हें प्राप्त हुए हैं। ये अचिन्त्यस्वरूप नारायण ही तुम्हारे रक्षक और परमगति हैं। तुमने स्वयं होता बनकर प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी श्रीकृष्णरूपी विशाल स्रुवा के द्वारा समराग्नि की ज्वाला में सम्पूर्ण राजाओं की आहुति दे डाली है। आज वह दुर्योधन अपने पुत्र, भाई और सम्बन्धियों सहित शोक का विषय हो गया है, क्योंकि उस मूर्ख ने क्रोध के आवेश में आकर श्रीकृष्ण और अर्जुन से युद्ध ठाना था। कितने ही विशाल शरीर वाले महाबली दैत्य और दानव दावानल में दग्ध होने वाले पतंगों की तरह श्रीकृष्ण की चक्राग्नि में स्वाहा हो चुके हैं।
पुरुषसिंह! सत्त्व (धैर्य), शक्ति और बल आदि से स्वभावतः हीन मनुष्य युद्ध में इन श्रीकृष्ण का सामना नहीं कर सकते। अर्जुन भी योगशक्ति से सम्पन्न और युगान्तकाल की अग्नि के समान तेजस्वी हैं। ये बायें हाथ से भी बाण चलाते हैं और रणभूमि में सबसे आगे रहते हैं। नरेश्वर! इन्होंने अपने तेज से दुर्योधन की सारी सेना का संहार कर डाला है। वृषभध्वज भगवान शंकर ने हिमालय के शिखर पर मुनियों से जो पुरातन रहस्य बताया था, वह मेरे मुँह से सुनो।
विभो! अर्जुन में जैसी पुष्ट है, जैसा तेज, दीप्ति, पराक्रम, प्रभाव, विनय और जन्म की उत्तमता है, वह सब कुछ श्रीकृष्ण में अर्जुन से तिगुना है। संसार में कौन ऐसा है जो मेरे इस कथन को अन्यथा सिद्ध कर सके। श्रीकृष्ण का जैसा प्रभाव है, उसे सुनो- जहाँ भगवान श्रीकृष्ण हैं, वहाँ सर्वोत्तम पुष्टि विद्यमान है। हम इस जगत् में मन्दबुद्धि, परतन्त्र और व्याकुलचित्त मनुष्य हैं। हमने जान-बूझकर मृत्यु के अटल मार्ग पर पैर रखा है।
युधिष्ठिर! तुम अत्यन्त सरल हो, इसी से तुमने पहले ही भगवान वासुदेव की शरण ली और अपनी प्रतिज्ञा के पालन में तत्पर रहकर राजोचित बर्ताव को तुम ग्रहण नहीं कर रहे हो।[2]
राजन! तुम इस संसार में अपनी हत्या कर लेने को ही अधिक महत्त्व दे रहे हो। शत्रुदमन! जो प्रतिज्ञा तुमने कर ली है, उसे मिटा देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है (तुमने शत्रुओं को जीतकर न्यायापूर्वक प्रजापालन का व्रत लिया है। अब शोकवश आत्महत्या का विचार मन में लाकर तुम उस व्रत से गिर रहे हो, यह ठीक नहीं है)। ये सब राजा लोग युद्ध के मुहाने पर काल के द्वारा मारे गये हैं, हम भी काल से ही मारे गये हैं, क्योंकि काल ही परमेश्वर है। जो काल के स्वरूप को जानता है, वह काल के थपेड़े खाकर भी शोक नहीं करता।
श्रीकृष्ण ही लाल नेत्रों वाले दण्डधारी सनातन काल हैं। अतः कुन्तीनन्दन! तुम्हें अपने भाई-बन्धुओं और सगे-सम्बन्धियों के लिये यहाँ शोक नहीं करना चाहिये। कौरव-कुल का आनन्द बढ़ाने वाले युधिष्ठिर! तुम सदा क्रोधहीन एवं शान्त रहो। मैंने इन माधव श्रीकृष्ण का माहात्म्य जैसा सुना था, वैसा कह सुनाया। इनकी महिमा को समझने के लिये इतना ही पर्याप्त है। सज्जन के लिये दिग्दर्शन मात्र उपस्थित होता है। महाराज! व्यास जी तथा बुद्धिमान नारद जी के वचन सुनकर मैंने परम पूज्य श्रीकृष्ण तथा महर्षियों के महान प्रभाव का वर्णन किया है।
भारत! गिरिराजनन्दिनी उमा और महेश्वर का जो संवाद हुआ था, उसका भी मैंने उल्लेख किया है। जो महापुरुष श्रीकृष्ण के इस प्रभाव को सुनेगा, कहेगा और याद रखेगा, उसको परम कल्याण की प्राप्ति होगी। उसके सारे अभीष्ट मनोरथ पूर्ण होंगे और वह मनुष्य मृत्यु के पश्चात स्वर्गलोक पाता है, इसमें संशय नहीं है। अतः जिसे कल्याण की इच्छा हो, उस पुरुष को जनार्दन की शरण लेनी चाहिये। राजन! इन अविनाशी श्रीकृष्ण की ही ब्राह्मणों ने स्तुति की है। कुरुराज! भगवान शंकर के मुख से जो धर्म सम्बन्धी गुण प्रतिपादित हुए हैं, उन सबको तुम्हें दिन-रात अपने हृदय में धारण करना चाहिये। ऐसा बर्ताव करते हुए यदि तुम न्यायोचित रीति से दण्ड धारण करके प्रजापालन में कुशलतापूर्वक लगे रहोगे तो तुम्हें स्वर्गलोक प्राप्त होगा।
राजन! तुम धर्मपूर्वक सदा प्रजा की रक्षा करते रहो। प्रजापालन के लिये जो दण्ड का उचित उपयोग किया जाता है, वह धर्म ही कहलाता है। नरेश्वर! भगवान शंकर का पार्वती जी के साथ जो धर्मविषयक संवाद हुआ था, उसे इन सत्पुरुषों के निकट मैंने तुम्हें सुना दिया। जो अपना कल्याण चाहता हो, वह पुरुष यह संवाद सुनकर अथवा सुनने की कामना रखकर विशुद्धभाव से भगवान शंकर की पूजा करे। पाण्डुनन्दन! उन अनिन्द्य महात्मा देवर्षि नारदजी का ही यह संदेश है कि महादेवजी की पूजा करनी चाहिये। इसलिये तुम भी ऐसा ही करो।
भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
प्रभो! कुन्तीनन्दन! भगवान श्रीकृष्ण और महादेवजी का यह अद्भुत एवं स्वाभाविक वृत्तान्त पूर्वकाल में पुण्यमय पर्वत हिमालय पर संघटित हुआ था। इन सनातन श्रीकृष्ण ने गाण्डीवधारी अर्जुन के साथ (नर-नारायणरूप में रहकर) बदरिकाश्रम में दस हजार वर्षों तक बड़ी भारी तपस्या की थी। पृथ्वीनाथ! कमलनयन! श्रीकृष्ण और अर्जुन- ये दोनों सत्ययुग आदि तीनों युगों में प्रकट होने के कारण त्रियुग कहलाते हैं। देवर्षि नारद तथा व्यास जी ने इन दोनों के स्वरूप का परिचय दिया था।[3]
महाबाहु कमलनयन श्रीकृष्ण ने बचपन में ही अपने बन्धु-बान्धवों की रक्षा के लिये कंस का बड़ा भारी संहार किया था। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर! इन सनातन पुराणपुरुष श्रीकृष्ण के चरित्रों की कोई सीमा या संख्या नहीं बतायी जा सकती। तात! तुम्हारा तो अवश्य ही परम उत्तम कल्याण होगा, क्योंकि ये पुरुषसिंह जनार्दन तुम्हारे मित्र हैं। दुर्बुद्धि दुर्योधन यद्यपि परलोक में चला गया है, तो भी मुझे तो उसी के लिये अधिक शोक हो रहा है, क्योंकि उसी के कारण हाथी घोड़े आदि वाहनों सहित सारी पृथ्वी का नाश हुआ है। दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण और शकुनि- इन्हीं चारों के अपराध से सारे कौरव मारे गये हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पुरुषप्रवर गंगानन्दन भीष्म जी के ऐसा कहने पर उन महामनस्वी पुरुषों के बीच में बैठे हुए कुरुकुलकुमार युधिष्ठिर चुप हो गये। भीष्म जी की बात सुनकर धृतराष्ट्र आदि राजाओं को बड़ा विस्मय हुआ और वे सभी मन-ही-मन श्रीकृष्ण की पूजा करते हुए उन्हें हाथ जोड़ने लगे।
नारद आदि सम्पूर्ण महर्षि भी भीष्म जी के वचन सुनकर उनकी प्रशंसा करते हुए बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकार पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों के साथ यह भीष्म जी का सारा पवित्र अनुशासन सुना, जो अत्यन्त आश्चर्यजनक था। तदनन्तर बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं का दान करने वाले गंगानन्दन भीष्म जी जब विश्राम ले चुके, तब महाबुद्धिमान राजा युधिष्ठिर पुनः प्रश्न करने लगे।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 148 श्लोक 1-17
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 148 श्लोक 18-37
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 148 श्लोक 38-56
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 148 श्लोक 57-66
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| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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