बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 144 में बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन हुआ है।[1]

उमा-शिव संवाद

उमा ने पूछा- भगवन! सर्वभूतेश्वर देवासुरवन्दित देव! विभो! अब मुझे धर्म और अधर्म का स्वरूप बताइये, जिससे उनके विषय में मेरा संदेह दूर हो जाय मनुष्य मन, वाणी और क्रिया- इन तीन प्रकार के बन्धनों से सदा बँधता है और फिर उन बन्धनों से मुक्त होता है। प्रभो! किस शील-स्वभाव से, किस बर्ताव से, कैसे कर्म से तथा किन सदाचारों अथवा गुणों द्वारा मनुष्य बँधते, मुक्त होते एवं स्वर्ग में जाते हैं।

श्री महेश्वर ने कहा- धर्म ओर अर्थ के तत्त्व को जानने वाली, सदा धर्म में तत्पर रहने वाली, इन्द्रिय संयम परायणे देवि! तुम्हारा प्रश्न समसत प्राणियों के लिये हितकर तथा बुद्धि को बढ़ाने वाला है, इसका उत्तर सुनो। जो मनुष्य धर्म से उपार्जित किये हुए धन को भोगते हैं, सम्पूर्ण आश्रम सम्बन्धी चिह्नों से बिलग रहकर भी सत्य, धर्म में तत्पर रहते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं। जिनके सब प्रकार के संदेह दूर हो गये हैं, जो प्रलय और उत्पत्ति के तत्त्व को जानने वाले, सर्वज्ञ और सर्वदृष्टा हैं, वे महात्मा न तो धर्म से बँधते हैं और न अधर्म से। जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी की हिंसा नहीं करते हैं और जिनकी आसक्ति सर्वथा दूर हो गयी है, वे पुरुष कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। जो कहीं आसक्त नहीं होते, किसी के प्राणों की हत्या से दूर रहते हैं तथा जो सुशील और दयालु हैं, वे भी कर्मों के बन्धनों में नहीं पड़ते, जिनके लिये शत्रु और प्रिय मित्र दोनों समान हैं, वे जितेन्द्रिय पुरुष कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।

जो सब प्राणियों पर दया करने वाले, सब जीवों के विश्वास पात्र तथा हिंसामय आचरणों को त्याग देने वाले हैं, वे मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं। जो दूसरों के धन पर ममता नहीं रखते, परायी स्त्री से सदा दूर रहते और धर्म के द्वारा प्राप्त किये अन्न का ही भोजन करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। जो मानव परायी स्त्री को माता, बहिन और पुत्री के समान समझकर तदनुरूप बर्ताव करते हैं, वे स्वर्गलोक में जाते हैं। जो सदा अपने ही धन से संतुष्ट रहकर चोरी-चमारी से अलग रहते हैं तथा जो अपने भाग्य पर ही भरोसा रखकर जीवन-निर्वाह करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो अपनी ही स्त्री में अनुरक्त रहकर ऋतुकाल में ही उसके साथ समागम करते हैं और ग्राम्य सुख भोगों में आसक्त नहीं होते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। जो अपने सदाचार के द्वारा सदा ही परायी स्त्रियों की ओर से अपनी आँखें बंद किये रहते हैं, वे जितेन्द्रिय और शीलपरायण मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं। यह देवताओं का बनाया हुआ मार्ग है। राग और द्वेष को दूर करने के लिये इस मार्ग की प्रवृत्ति हुई है। अतः साधारण मनुष्यों तथा विद्वान पुरुषों को भी सदा ही इसका सेवन करना चाहिये। यह दान, धर्म और तपस्या से युक्त तथा शील, शौच और दयामय मार्ग है। मनुष्य को जीविका एवं धर्म के लिये सदा ही इस मार्ग का सेवन करना चाहिये। जो स्वर्गलोक में निवास करना चाहता हो, उनके लिये सेवन करने योग्य इससे बढ़कर उत्कृष्ट मार्ग नहीं है।[1]

कर्मों का वर्णन

उमा ने पूछा- निष्पाप भूतनाथ! महादेव! कैसी वाणी बोलने अथवा उस वाणी द्वारा कौन-सा कर्म करने से मनुष्य बन्धन में पड़ता या उस बन्धन से छुटकारा पा जाता है? उन वाचिक कर्मों का मुझसे वर्णन कीजिये।

श्री महेश्वर ने कहा- जो हँसी और परिहास का सहारा लेकर भी अपने या दूसरे के लिये कभी झूठ नहीं बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। जो आजीविका अथवा धर्म के लिये तथा स्वेच्छाचार से भी कभी असत्य भाषण नहीं करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो स्निग्ध, मधुर, बाधारहित और पापशून्य तथा स्वागत-सत्कार के भाव से युक्त वाणी बोलते हैं, वे मानव स्वर्गलोक में जाते हैं। जो किसी की चुगली नहीं खाते और कभी किसी से रूखी, कड़वी और निष्ठुरतापूर्ण बात मुँह से नहीं निकालते, वे सज्जन पुरुष स्वर्ग में जाते हैं। जो दो मित्रों में फूट डालने वाली चुगली की बातें नहीं करते हैं, सत्य और मैत्रीभाव से युक्त वचन बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। जो मानव दूसरों से तीखी बातें बोलना और द्रोह करना छोड़ देते हैं, सब प्राणियों के प्रति समान भाव रखने वाले और जितेन्द्रिय होते हैं, वे स्वर्गलोक में जाते हैं। जिनके मुँह से कभी शठतापूर्ण बात नहीं निकलती, जो विरोधयुक्त वाणी का त्याग करते हैं और सदा सौम्य (कोमल) वाणी बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं।

जो क्रोध में आकर भी हृदय को विदीर्ण करने वाली बात मुँह से नहीं निकालते हैं तथा क्रुद्ध होने पर भी सान्त्वनापूर्ण वचन ही बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। देवि! यह वाणीजनित धर्म बताया गया है। मनुष्यों को सदा इसका सेवन करना चाहिये। विद्वानों को उचित है कि वे सदा शुभ और सत्य वचन बोलें तथा मिथ्या का परित्याग करें।

उमा कथन

उमा ने पूछा- महाभाग! पिनाकधारी देवदेव! जिस मानसिक कर्म से मनुष्य सदा बन्धन में पड़ता है, उसको मुझे बताइये।

श्री महेश्वर ने कहा- कल्याणि! जो सदा मानसिक धर्म से युक्त हैं अर्थात मन से धर्म का ही चिन्तन और आचरण करते हैं, वे पुरुष स्वर्ग में जाते हैं। मैं इस विषय में जो बताता हूँ, उसे सुनो! शुभानने! मन में दुर्विचार आने से मनुष्य के कार्य भी दुर्नीतिपूर्ण एवं दूषित होते हैं, जिससे मन बन्धन में पड़ जाता है। इस विषय में मेरी बात सुनो। जब दूसरे का धन निर्जन वन में पड़ा हुआ दिखायी दे, उस समय भी जो उसकी ओर मन ललचाकर किसी की हिंसा नहीं करते, वे मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं। गाँव या घर के एकान्त स्थान में पड़े हुए पराये धन का जो कभी अभिनन्दन नहीं करते हैं, वे मानव स्वर्गगामी होते हैं। इसी प्रकार जो मनुष्य एकान्त में प्राप्त हुई कामासक्त परायी स्त्रियों को मन से भी उनके साथ अन्याय करने का विचार नहीं करते, वे स्वर्गगामी होते हैं। जो सबके प्रति मैत्रीभाव रखकर सबसे मिलते तथा शत्रु और मित्र को भी सदा समान हृदय से अपनाते हैं, वे मानव स्वर्गलोक में जाते हैं। जो शास्त्रज्ञ, दयालु, पवित्र, सत्यप्रतिज्ञ और अपने ही धन से संतुष्ट होते हैं, वे स्वर्गलोक में जाते हैं। जिनके मन में किसी के प्रति वैर नहीं है, जो आयासरहित, मैत्रीभाव से पूर्ण हृदय वाले तथा सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति सदा ही दयाभाव रखने वाले हैं, वे मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं।[2]

जो श्रद्धालु, दयालु, शुद्ध, शुद्धजनों के प्रेमी तथा धर्म और अधर्म के ज्ञाता हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। देवि! जो शुभ और अशुभ कर्मों के फल-संचय के विषय में परिणाम के ज्ञाता हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। जो न्यायशील, गुणवान देवताओं और द्विजों के भक्त तथा उत्थान को प्राप्त हैं, वे मानव स्वर्गगामी होते हैं।

दीर्घायु-अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन

देवि! जो शुभ कर्मों के फलों से स्वर्गलोक के मार्ग में स्थित है, उनका वर्णन मैंने यहाँ किया है। अब तुम और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- महेश्वर! मुझे मनुष्यों के विषय में एक महान संशय है। आप अच्छी तरह उस संशय का समाधान करें। प्रभो! मनुष्य किस कर्म से दीर्घायु प्राप्त करता है? तथा देवेश्वर! किस तपस्या से मनुष्य को बड़ी आयु प्राप्त होती है? अनिन्द्य महादेव! इस भूतल पर कौन-सा कर्म करने से मनुष्य की आयु क्षीण हो जाती है? आप मुझसे कर्म-विपाक का वर्णन करें। इस जगत में कुछ लोग महान भाग्यशाली हैं तो कुछ लोग मन्दभाग्य हैं, कुछ लोग निन्दित कुल में उत्पन्न हैं तो दूसरे लोग उच्चकुल में। कुछ मनुष्य दुर्दशा के मारे काष्ठमय (जडवत) प्रतीत हो रहे हैं, उनकी ओर देखना कठिन जान पड़ता है और दूसरे कितने ही मनुष्य दर्शन मात्र से मन प्रसन्न कर देते हैं, उनकी ओर देखना प्रिय लगता है। कुछ लोग दुर्बुद्धि जान पड़ते हैं और कुछ विद्वान तथा कितने ही ज्ञान-विज्ञानशाली महाप्राज्ञ प्रतीत होते हैं।

देव! कुछ लोग साधारण एवं स्वल्प बाधाओं से ग्रस्त होते हैं और कुछ लोगों को बड़ी-बड़ी बाधाएँ घेरे रहती हैं। इस तरह जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विषम अवस्था में पड़े हुए पुरुष दिखायी देते हैं, उनकी इस विषमता का क्या कारण है? यह मुझे विस्तारपूर्वक बताइये। श्री महेश्वर ने कहा- देवि! अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें बता रहा हूँ कि कर्म के फल का उदय किस प्रकार होता है और मत्र्यलोक के सभी मनुष्य किस प्रकार अपनी-अपनी करनी का फल भोगते हैं। देवि! जो मनुष्य दूसरों का प्राण लेने के लिये हाथ में डंडा लेकर सदा भयंकर रूप धारण किये रहता है, जो प्रतिदिन हथियार उठाये जगत के प्राणियों की हत्या किया करता है, जिसके भीतर किसी के प्रति दया नहीं होती, जो समस्त प्राणियों को सदा उद्वेग में डाले रहता है और जो अत्यन्त क्रूर होने के कारण चींटी और कीड़ों को भी शरण नहीं देता, ऐसा मानव घोर नरक में पड़ता है।

जिसका स्वभाव इसके विपरीत है, वह धर्मात्मा और रूपवान होता है। देवि! हिंसा प्रेमी मनुष्य अपने पापकर्म के कारण दूसरों का वध्य, सब प्राणियों का अप्रिय तथा अल्पायु होता है। जिसका चित्त हिंसा में लगा होता है, वह नरक में गिरता है और जो किसी की हिंसा नहीं करता, वह स्वर्ग में जाता है। नरक में पड़े हुए जीव को बड़ी कष्टदायक और भयंकर यातना भोगनी पड़ती है। यदि कभी कोई उस नरक से छुटकारा पाता है तो मनुष्ययोनि में जन्म लेता है, किंतु वहाँ उसकी आयु बहुत थोड़ी होती है। देवि! पापकर्म से बँधा हुआ हिंसापरायण मनुष्य समस्त प्राणियों का अप्रिय होने के कारण अल्पायु हो जाता है।[3]

इसके विपरीत जो शुद्ध कुल में उत्पन्न और जीव हिंसा से अलग रहने वाला है, जिसने शस्त्र और दण्ड का परित्याग कर दिया है, जिसके द्वारा कभी किसी की हिंसा नहीं होती, जो न मारता है, न माने की आज्ञा देता है और न मारने वाले का अनुमोदन ही करता है। जिसके मन में सब प्राणियों के प्रति स्नेह बना रहता है तथा जो अपने ही समान दूसरों पर भी दयादृष्टि रखता है।

देवि! ऐसा श्रेष्ठ पुरुष देवत्व को प्राप्त होता है और देवलोक में प्रसन्नतापूर्वक स्वतः उपलब्ध हुए सुखद भोगों का अनुभव करता है। अथवा यदि कदाचित वह मनुष्यलोक में जन्म लेता है तो वह मनुष्य दीर्घायु और सुखी होता है। यह सत्कर्म का अनुष्ठान करने वाले सदाचारी एवं दीर्घजीवी मनुष्यों का लक्षण है। स्वयं ब्रह्मा जी ने इस मार्ग का उपदेश किया है। समस्त प्राणियों की हिंसा का परित्याग करने से ही इसकी उपलब्धि होती है।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 1-17
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 18-36
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 37-55
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 144 श्लोक 56-60

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अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | 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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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