- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 19, 20 में अष्टावक्र का स्त्रीरूपधारिणी उत्तर दिशा के साथ संवाद का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
अष्टावक्र द्वारा आश्रम का वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! आगे जाने पर उन्हें एक दूसरी रमणीय वनस्थली दिखायी दी, जो सभी ऋतुओं के फल-मूलों, पक्षि समूहों और मनोरम वनप्रान्तों से जहाँ-तहाँ शोभा सम्पन्न हो रही थी। वहाँ भगवान अष्टावक्र ने एक दिव्य आश्रम देखा। उस आश्रय के चारों ओर नाना प्रकार के सुवर्णमय एवं रत्नभूशित पर्वत शोभा पा रहे थे। वहाँ की मणिमयी भूमि पर कई सुन्दर बावडि़यां बनी थीं। इनके सिवा और भी बहुत-से सुरम्य दृष्य वहाँ दिखायी देते थे। उन सबको को देखते हुए उन भावितात्मा महर्षि का मन वहाँ विशेष आनन्द का अनुभव करने लगा। महर्षि ने उस प्रदेश में एक दिव्य सुवर्णमय भवन देखा, जिसमें सब प्रकार के रत्न जड़े गये थे। वह मनोहर गृह कुबेर के राजभवन से भी सुन्दर, श्रेष्ठ एवं अद्भुत था। वहाँ भाँति-भाँति के मणिमय और सुवर्णमय विशाल पर्वत शोभा पाते थे। अनेकानेक सुरम्य विमान तथा नाना प्रकार के रत्न दृष्टिगोचर होते थे। उस प्रदेश में मन्दिाकिनी नदी प्रवाहित होती थी, जिसके स्त्रोत में मन्दार के पुष्प बह रहे थे। वहाँ स्वयं प्रकाशित होने वाली मणियां अपनी अद्भुत छटा बिखेर रही थी। वहाँ की भूमि हीरों से जड़ी गयी थी।
वहाँ पहुँचकर अष्टावक्र के मन में यह चिन्ता हुई कि अब कहाँ ठहरा जाय। यह विचार उठते ही वे प्रमुख द्वार के समीप गये और खड़े होकर बोले। उस आश्रम के चारों ओर विचित्र मणिमय तोरणों से सुशोभित, मोती की झालरों से अलंकृत तथा मणि एवं रत्नों से विभूषित सुन्दर शोभा पा रहे थे। वे मन को मोह लेने वाले तथा दृष्टि को बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेने वाले थे। उन मंगलमय भवनों से घिरा और ऋषि-मुनियों से भरा हुआ वह आश्रम बड़ा मनोहर जान पड़ता था।
अष्टावक्र का स्त्रीरूपधारिणी उत्तर दिशा के साथ संवाद
इस घर में जो लोग रहते हों, उन्हें यह विदित होना चाहिये कि मैं एक अतिथि यहाँ आया हूँ। उनके इस प्रकार कहते ही उस घर से एक साथ सात कन्याएं निकलीं। वे सब-की-सब भिन्न-भिन्न रूपवाली तथा बड़ी मनोहर थीं। विभो! अष्टावक्र मुनि उनमें से जिस-जिस कन्या की ओर देखते, वही-वही उनका मन हर लेती थी। वे अपने मनको रोक नहीं पाते थे। बलपूर्वक रोकने पर उनका मन शिथिल होता जाता था। तदनन्तर उन बुद्धिमान ब्राह्मण के हदय में किसी तरह धैर्य उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वे सातों तरुणी स्त्रियां बोलीं- भगवन! टाप घर के भीतर प्रवेश करें। ऋषि के मन में उन सुन्दरियों के तथा उस घर के विषय में कौतूहल पैदा हो गया था; अतः उन्होंने उस घर में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने एक जराजीर्ण वृद्धा स्त्री को देखा, जो निर्मल वस्त्र धारण किये समस्त आभूषणों से विभूषित हो पलंग पर बैठी हुई थी। अष्टावक्र ने स्वस्ति कहकर उसे आशीर्वाद दिया। वह स्त्री उनके स्वागत के लिये पलंग से उठकर खड़ी हो गयी और इस प्रकार बोली- विप्रवर! बैठिये। अष्टावक्र ने कहा- सारी स्त्रियां अपने-अपने घर को चली जाये। केवल एक ही मेरे पास रह जाये। जो ज्ञानवती तथा मन और इन्द्रियों को शान्त रखने वाली हो, उसी को यहाँ रहना चाहिये। शेष स्त्रियां अपनी इच्छा के अनुसार जा सकती है। तदनन्तर वे सब कन्याएं उस समय ऋषि की परिक्रमा करके उस घर से निकल गयीं। केवल वह वृद्धा ही वहाँ ठहरी रही। तत्पश्चात् उज्ज्वल एवं प्रकाशमान शया पर सोते हुए ऋषि ने उस वृद्धा से कहा- भद्रे! अब तुम भी सो जाओ। रात अधिक बीत चली है। बातचीत के प्रसंग में उस ब्राह्मण के ऐसा कहने पर वह भी दूसरे अत्यन्त प्रकाशमान दिव्य पलंग पर सो रही। थोड़ी ही देर में वह सरदी लगने का बहाना करके थर-थर कांपती हुई आयी और महर्षि की शया पर आरूढ़ हो गयी। पास आने पर भगवान अष्टावक्र ने आइये, स्वागत है ऐसा कहकर उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया। नरश्रेष्ठ! उसने प्रेमपूर्वक दोनों भुजाओं से ऋषि का आलिंगन कर लिया तो भी उसने देखा, ऋषि अष्टावक्र सूखे काठ और दीवार के समान विकारशून्य हैं। उनकी ऐसी स्थिति देख वह बहुत दुखी हो गयी और मुनि से इस प्रकार बोले- ब्रहमन! पुरुष को अपने समीप पाकर उसके काम-व्यवहार को छोड़कर और किसी बात से स्त्री को धैर्य नहीं रहता। मैं काम से मोहित होकर आपकी सेवा में आयी हूँ। आप मुझे स्वीकार कीजिये। ब्रहमार्षे! आप प्रसन्न हों और मेरे साथ समागम करें।। विप्रवर! आप मेरा आलिंगन कीजिये। मैं आपके प्रति अत्यन्त कामातुर हूँ। धर्मात्मन! यही आपकी तपस्या का प्रशस्त फल है। मैं आपको देखते ही आपके प्रति अनुरक्त हो गयी हूं; अतः आप मुझ सेविका को अपनाइये। मेरा यह सारा धन तथा और जो कुछ आप देख रहे हैं, उस सबके तथा मेरे भी आप ही स्वामी हैं- इसमें संशय नहीं है। आप मेरे साथ रमण कीजिये। मैं आपकी समस्त कामनाएं पूर्ण करूंगी। ब्रहमन! सम्पूर्ण मनोवांछित फल को देने वाले इस रमणीय वन में मैं आपके अधीन होकर रहूंगी। आप मेरे साथ रमण कीजिये। हम लोग यहाँ दिव्य और मनुष्यलोक-सम्बन्धी सम्पूर्ण भोगो का उपभोग करेंगे। स्त्रियों के लिये पुरुषसंसर्ग जितना प्रिय है, उससे बढ़कर दूसरा कोई फल कदापि प्रिय नहीं होता। यही हमारे लिये सर्वोत्तम फल है।[2]
काम से प्रेरित हुई नारियां सदा अपनी इच्छा के अनुसार बर्ताव करती है। काम से संतप्त होने पर वे तपी हुई धूल में भी चलती है; परंतु इससे उनके पैर नहीं जलते हैं'। अष्टावक्र बोले- भद्रे मैं परायी स्त्री के साथ किसी तरह संसर्ग नहीं कर सकता; क्योंकि धर्मशास्त्र के विद्वानों ने परस्त्री समागम की निन्दा की है। भद्रे! मैं सत्य की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मनोनीत मुनि कुमारी के साथ विवाह करना चाहता हूँ। तुम इसे ठीक समझो। मैं विषयों से अनभिज्ञ हूँ। केवल धर्म के लिये संतान की प्राप्ति मुझे अभीष्ट है; अतः यही मेरे विवाह का उद्देश्य है। ऐसा होने पर मैं पुत्रों द्वारा अभीष्ट लोकों में चला जाऊँगा। इसमें संशय नहीं है। भद्रे! तुम धर्म को समझो और उसे समझकर इस स्वेच्छा से निवृत्त हो जाओ। स्त्री बोली- ब्रह्मन! वायु, अग्नि, वरुण तथा अन्य देवता भी स्त्रियों वैसे प्रिय नहीं हैं, जैसा उन्हें काम प्रिय लगता है; क्योंकि स्त्रियां स्वभावतः रति की इच्छुक होती हैं। सहस्रों नारियों में कभी कोई एक ऐसी स्त्री मिलती है जो रतिलोलुप न हो तथा लाखों स्त्रियों में शायद ही कोई एक पतिव्रता मिल सके। ये स्त्रियां न पिता को जानती हैं न माता को, न कुल को समझती हैं न भाइयों को। पति, पुत्र तथा देवरों की भी ये परवाह नहीं करती हैं। अपने लिये रति की इच्छा रखकर वे समस्त कुल की मर्यादा का नाश कर डालती हैं, ठीक उसी तरह जैसे बड़ी-बड़ी नदियां अपने तटों को ही तोड़-फोड़ देती है। इन सब दोषों को समझकर ही प्रजापति ने स्त्रियों के विषय में उपर्युक्त बातें कही हैं। भीष्म जी कहते हैं- राजन! तब ऋषि ने एकाग्रचित्त होकर उस स्त्री से कहा-चुप रहो। मन में भोग की रुचि होने पर स्वेच्छाचार होता है। मेरी रुचि नहीं है, अतः मुझसे यह काम नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि मुझ से कोई काम हो तो बताओ। उस स्त्री ने कहा- भगवन! महाभाग! दे और काल के अनुसार आपको अनुभव हो जायेगा। आप यहाँ रहिये, कृतकृत्य हो जाइयेगा। युधिष्ठिर! तब ब्रहमार्षि ने उससे कहा-ठीक है, जब तक मेरे मन में यहाँ रहने का उत्साह होगा तब तक आपके साथ रहंगा, इस में संशय नहीं है। इसके बाद ऋषि उस स्त्रीको जरावस्थासे पीड़ित देख बड़ी चिन्तामें पड़ गये और संतप्त-से हो उठे। विप्रवर अष्टावक्र उसका जो-जो अंग देखते थे वहां-वहाँ उनकी दृष्टि रमती नहीं थी, अपितु उसके रूप से विरक्त हो उठती थी। वे सोचने लगे यह नारी तो इस घर की अधिष्ठात्री देवी है। फिर उसे इतना कुरूप किसने बना दिया? इसकी कुरुपता का कारण क्या है? इसे किसी का शाप तो नहीं लग गया। इसकी कुरुपता का कारण जानने के लिये सहसा चेष्टा करना मेरे लिये उचित नहीं है। इस प्रकार व्याकुल चित से एकान्त में बैठकर चिन्ता करते और उसकी कुरुपता का कारण जानने की इच्छा रखते हुए महर्षि का वह सारा दिन बीत चला। तब उस स्त्री ने कहा- भगवन! देखिये, सूर्य का रूप संध्या की लाली से लाल हो गया हैं। इस समय आपके लिये कौन-सी वस्तु प्रस्तुत की जाय? तब ऋषि ने उस स्त्री से कहा- मेरे नहाने के लिये यहाँ जल ले आओ। स्नान के पश्चात् मैं मौन होकर इन्द्रियसंयमपूर्वक संध्योपासना करूंगा।[3]
अष्टावक्र और उत्तर दिशा का संवाद
भीष्म जी कहते हैं- राजन! ऋषि की बात सुनकर उस स्त्री ने कहा- बहुत अच्छा, ऐसा ही हो। कहकर वह दिव्य तेल और स्नानोपयोगी वस्त्र ले आयी। फिर उन महात्मा मुनि की आज्ञा लेकर उस स्त्री ने उनके सारे अंगों में तेल की मालिश की। फिर उसके उठाने पर वे धीरे से वहाँ स्नान गृह में गये। वहाँ ऋषि को एक विचित्र एवं नूतन चौकी प्राप्त हुई। जब वे उस सुन्दर चौकी पर बैठ गये तब उस स्त्री ने धीरे-धीरे हाथों के कोमल स्पर्श से उन्हें नहलाया। उसने मुनि के लिये विधिपूर्वक सम्पूर्ण दिव्य सामग्री प्रस्तुत की। वे महाव्रतधारी मुनि उसके दिये हुए कुछ- कुछ गरम होने के कारण सुखदायक जल से नहाकर उसके हाथों के सुखद स्पर्श से सेवित होकर इतने आनन्दविभोर हो गये कि कब सारी रात बीत गयी? इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं हुआ। तदनन्तर वे मुनि अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर उठ बैठे। उन्होंने देखा कि पूर्व-दिशा के आकाश में सूर्य देव का उदय हो गया है। वे सोचने लगे, क्या यह मेरा मोह है या वास्तव में सूर्योदय हो गया है। फिर तो तत्काल स्नान, संध्योपासना और सूर्योपस्थान करके उससे बोले, अब क्या करूं? तब उस स्त्री ने ऋषि के समक्ष अमृतरस के समान मधुर अन्न परोसकर रखा। उस अन्न के स्वाद से वे इतने आकृष्ट हो गये कि उसे पर्याप्त न मान सके-बस अब पूरा हो गया। यह बात न कह सके। इसी में सारा दिन निकल गया और पुनः संध्याकाल आ पहुँचा। इसके बाद उस स्त्री ने भगवान अष्टावक्र से कहा- अब आप सो जाइये। फिर वहीं उनके और उस स्त्री के लिये दो शय्याएँ बिछायी गयीं। उस समय वह स्त्री और मुनि दोनों अलग-अलग सो गये। जब आधी रात हुई तब वह स्त्री उठकर मुनि की शय्या पर आ बैठी। अष्टावक्र बोले- भद्रे! मेरा मन परायी स्त्रियों में आसक्त नहीं होता है। तुम्हारा भला हो, यहाँ से उठो और स्वयं ही इस पापकर्म से विरत हो जाओ। भीष्म कहते हैं- राजन! इस प्रकार उन ब्रहमार्षि के लौटाने पर उसने कहा- मैं स्वतंत्र हूं; अतः मेरे साथ समागम करने से आपके धर्म की छलना नहीं होगी। अष्टावक्र बोले- भद्रे! स्त्रियों की स्वतंत्रता नहीं सिद्ध होती; क्योंकि वे परतंत्र मानी गयी हैं। प्रजापति का यह मत है कि स्त्री स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है। स्त्री बोली- ब्रहामन! मुझे मैथुन की भूख सता रही है। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, इस पर भी तो दृष्टिपात कीजिये। विप्रवर! यदि आप मुझे संतुष्ट नहीं करते हैं तो आपको पाप लगेगा। अष्टावक्र ने कहा- भद्रे! स्वेच्छाचारी मनुष्य को ही सब प्रकार के पाप समूह अपनी ओर खींचते हैं। मैं धैर्य के द्वारा सदा अपने मन को काबू में रखता हूं; अतः तुम अपनी शय्या पर लौट जाओ। स्त्री बोली- अनघ! विप्रवर! मैं सिर झुकाकर प्रणाम करती हूँ और आपके सामने पृथ्वी पर पड़ी हूँ। आप मुझ पर कृपा करें और मुझे शरण दें। ब्रहामन! यदि आप परायी स्त्रियों के साथ समागम में दोष देखते हैं तो मैं स्वयं आपको अपना दान करती हूँ। आप मेरा पाणिग्रहण कीजिये। मै सच कहती हूं, आपको कोई दोष नहीं लगेगा। आप मुझे स्वतंत्र समझिये। इसमें जो पाप होता है, वह मुझे ही लगे। मेरा चित आपके ही चिन्तन में लगा है। मैं स्वतंत्र हूं; अतः मुझे स्वीकार कीजिये।[4]
अष्टावक्र ने कहा- भद्रे! तुम स्वतंत्र कैसे हो? इसमें जो कारण हो, वह बताओं! तीनों लोकों में कोई ऐसी स्त्री नहीं है जो स्वतंत्र रहने योग्य हो। कुमारावस्था में पिता इसकी रक्षा करते हैं, जवानी में वह पति के संरक्षण में रहती है और बुढ़ापे में पुत्र उसकी देखभाल करते हैं। इस प्रकार स्त्रियों के लिये स्वतंत्रता नहीं है। स्त्री बोली- विप्रवर! मैं कुमारावस्था से ही ब्रह्माचारिणी हूं; अतः कन्या ही हूं- इसमें संशय नहीं है। अब आप मुझे पत्नी बनाइये। मेरी श्रद्धा का नाश न कीजिये।। अष्टावक्र ने कहा- जैसी मेरी दशा है, वैसी तुम्हारी है और जैसी तुम्हारी दशा है, वैसी मेरी है। यह वास्तव में वदान्य ऋषि के द्वारा परीक्षा ली जा रही है या सचमुच यह कोई विध्न तो नहीं है? (वे मन-ही-मन सोचन लगे-) यह पहले वृद्धा थी और अब दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित कन्या रूप होकर मेरी सेवा में उपस्थित है। यह बड़े ही आश्चर्य की बात है। क्या यह मेरे लिये कल्याणकारी रहेगा? परंतु इसका यह परम सुन्दर रूप पहले जराजीर्ण कैसे हो गया था और अब यहाँ यह कन्या रूप कैसे प्रकट हो गया? ऐसी दशा में यहाँ उसके लिये क्या उत्तर हो सकता है? मुझ में काम को दमन करने की शक्ति है और पूर्व प्राप्त मुनि-कन्या को किसी तरह भी प्राप्त करने का धैर्य बना हुआ है। इस शक्ति और धृति के ही सहारे में किसी तरह विचलित नहीं होऊँगा। मुझे धर्म का उल्लंघन अच्छा नहीं लगता। मैं सत्य के सहारे से पत्नी को प्राप्त करूंगा।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 39-63
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 64-86
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 87-103
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-19
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 20 श्लोक 20-26
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| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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