गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 104 में गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है।[1]

गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का वर्णन

प्रभो! विद्वान पुरुष को लाल फूलों की नहीं, श्‍वेत पुष्‍पों की माला धारण करनी चाहिये; परंतु कमल और कुवलय को छोड़कर ही यह नियम लागू होता है। अर्थात कमल और कुवलय लाल हों तो भी उन्‍हें धारण करने में कोई हर्ज नहीं है। लाल रंग के फूल तथा वन्‍यपुष्‍प को मस्‍तक पर धारण करना चाहिये। सोने की माला पहनने से कभी अशुद्ध नहीं होती।

प्रजानाथ! स्‍नान के पश्‍चात मनुष्‍य को अपने ललाट पर गीला चन्‍दन लगाना चाहिये। बुद्धिमान पुरुष को कपड़ों में कभी उलट फेर नहीं करना चाहिये अर्थात उत्तरीय वस्‍त्र को अधोवस्‍त्र के स्‍थान में और अधोवस्‍त्र को उत्तरीय के स्‍थान में न पहने। नरेश्रेष्‍ठ! दूसरे के पहने हुए कपड़े नहीं पहनने चाहिये। जिसकी कोर फट गयी हो, उसको भी नहीं धारण करना चाहिये। सोने के लिये दूसरा वस्‍त्र होना चाहिये। सड़कों पर घूमने के दूसरा और देवताओं की पूजा के लिये दूसरा ही वस्‍त्र रखना चाहिये। बुद्धिमान पुरुष राई, चन्‍दन, ‍विल्‍व, तगर तथा केशर द्वारा पृथक-पृथक अपने शरीर में उबटन लगावें।

मनुष्‍य सभी पर्वों के समय स्‍नान करके पवित्र हो वस्‍त्र एवं आभूषणों से विभूषित होकर उपवास करे तथा पर्वकाल में सदा ही ब्रह्मचर्य का पालन करे। जनेश्‍वर किसी के साथ एक पात्र में भोजन करे। जिसे रजस्‍वला स्‍त्री ने अपने स्‍पर्श से दूषित कर दिया हो, ऐसे अन्‍न का भोजन न करे एवं जिसमें से सार निकाल लिया गया हो ऐसे पदार्थ को कदापि भक्षण न करे तथा जो तरसती हुई दृष्टि से अन्‍न की ओर देख रहा हो, उसे दिये ‍बिना भोजन न करे। बु‍द्विमान पुरुष को चाहिये ‍कि वह किसी अपवित्र मनुष्‍य के निकट अथवा सत्‍पुरुषों के सामने बैठकर भोजन न करे। धर्मशास्‍त्रों में जिनका निषेध किया गया हो, ऐसे भोजन को पीठ पीछे छिपाकर भी न खाये। अपना कल्‍याण चाहने वाले श्रेष्‍ठ पुरुष को पीपल, बड़ा और गूलर फल का तथा सन के साग का सेवन नहीं करना चाहिये।

दीर्घआयु प्राप्ति वर्णन

विद्वान पुरुष हाथ में नमक लेकर न चाटे। रात में दही और सत्तू न खाये। मांस अखाद्य वस्‍तु है, उसका सर्वथा त्‍याग कर दे। प्रतिदिन सबेरे और शाम को एकाग्रचित्त होकर भोजन करे। बीच में कुछ भी खाना उचित नहीं है। जिस भोजन में बाल पड़ गया हो, उसे न खाये तथा शत्रु के श्राद्ध में कभी अन्‍न न ग्रहण करे। भोजन के समय मौन रहना चाहिेये। एक ही वस्‍त्र धारण करके अथवा सोये-सोये कदापि भोजन न करे। भोजन के पदार्थ को भूमि पर रखकर कदापि न खाये। खड़ा होकर या बातचीत करते हुए कभी भोजन नहीं करना चाहिये। प्रजानाथ! बुद्धिमान पुरुष पहले अतिथि को अन्न और जल देकर पीछे स्वयं एकाग्रचित्त होकर भोजन करे। नरेश्‍वर! एक पंक्ति में बैठने पर सबको एक समान भोजन करना चाहिये। जो अपने सुहृदजनों को न देकर अकेला ही भोजन करता है, वह हालाहल विष ही खाता है।[1]

पानी, खीर, सत्तू, दही, घी और मधु- इन सबको छोड़कर अन्य भक्ष्य पदार्थों का अवशिष्‍ट भाग दूसरे किसी को नहीं देना चाहिये। पुरुषसिंह! भोजन करते समय भोजन के विषय में शंका नहीं करनी चाहिये तथा अपना भला चाहने वाले पुरुष को भोजन के अन्त में दही नहीं पीना चाहिये। भोजन करने के पश्चात् कुल्ला करके मुंह धो ले और एक हाथ से दाहिने पैर से अंगूठे पर पानी डालें। फिर प्रयोग कुशल मनुष्य एकाग्रचित्त हो अपने हाथ को सिर पर रखे। उसके बाद अग्नि का मन से स्‍पर्श कर ले। ऐसा करने से वह कुटुम्बीजनों में श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है। इसके बाद जल से आंख, नाक आदि इन्द्रियों और नाभि का स्‍पर्श करके दोनों हाथों की हथेलियों का धो डालें। धोने के पश्चात् गीले हाथ लेकर ही न बैठ जायें (उन्हें कपड़ों से पोंछकर सुखा दें)।

अंगूठे का अन्तराल (मूल स्थान) ब्राह्मतीर्थ कहलाता है, कनिष्ठा आदि अंगुलियों का पश्‍चाद्भाग (अग्रभाग) देवतीर्थ कहा जाता है। भारत! अंगुष्ठ और तर्जनी के मध्य भाग को पितृतीर्थ कहते हैं। उसके द्वारा शास्त्र विधि से जल लेकर सदा पितृ कार्य करना चाहिये। अपनी भलाई चाहने वाले पुरुष को दूसरों की निंदा तथा अप्रिय वचन मुंह से नहीं निकालने चाहिये और किसी को क्रोध भी नही दिलाना चाहिये। पतित मनुष्यों के साथ वार्तालाप की इच्छा न करें। उनका दर्शन भी त्याग दें और उनके सत्तकर्म में कभी न जाये। ऐसा करने से मनुष्य बड़ी आयु पाता है। दिन में कभी मैथुन न करें। कुंमारी कन्या और कुल्टा के साथ कभी समागम न करें। अपनी पत्नि भी जब तक ऋतुस्नाता न हो तब तक उसके साथ समागम न करे।

इससे मनुष्य को बड़ी आयु प्राप्त होती है। कार्य उपस्थित होने पर पर अपने-अपने तीर्थ में आचमन करके तीन बार जल पीयें और दो बार ओठों को पोंछ लें- ऐसा करने से मनुष्य शुद्ध हो जाता है। पहले नेत्र आदि इन्द्रियों का एक बार स्‍पर्श करके तीन बार अपने ऊपर जल छिड़कें, इसके बाद वेदोक्त विधि के अनुसार देव यज्ञ और पितृ यज्ञ करें। कुरुनन्दन। अब ब्राह्मण के लिये भोजन के आदि और अन्त में जो पवित्र एवं हितकारक शुद्धि को विधान हो, बता रहा हूँ, सुनो।

ब्राह्मण को प्रत्येक शुद्धि कार्य में ब्रह्मतीर्थ से आचमन करना चाहिये। थूकने और छींकने के बाद जल का स्‍पर्श (आचमन) करने से वह शुद्ध होता है। बूढे, कुटुम्बी, दरिद्रमित्र और कुलीन पंडित यदि निर्धन हों तो उनकी यथाशक्ति रक्षा करनी चाहिये। उन्हें अपने धर पर ठहराना चाहिये। इससे धन और आयु की वृद्धि होती है। परेवा, तोता, मैना आदि पक्षियों का घर में रहना अभ्युदयकारी और मंगलमय है। ये तैलपायिक पक्षियों की भाँति अमंगल करने वाले नहीं होते। देवता की प्रतिमा, दर्पण, चंदन, फूल की लता, शुद्ध जल, सोना और चांदी- इन सब वस्तुओं घर में रहना मंगल कारक है। उद्दीपक, गीध, कपोत (जंगली कबूतर) और भ्रमर नामक पक्षी कभी घर में आ जायें तो सदा उसकी शांति ही करानी चाहिये; क्योंकि ये अमंगलकारी होते हैं। महात्माओं की निंदा भी मनुष्य का अकल्याण करने वाली है।[2]

महात्मा पुरुष के गुप्त कर्म कहीं किसी पर प्रकट नहीं करने चाहिये। परायी स्त्रियां सदा अगम्य होती हैं, उनके साथ कभी समागम न करे। राजा की पत्नि और सखियों के पास भी कभी न जाये। राजेन्द्र युधिष्ठिर! वैद्यों, बालकों, वृद्वों, भृत्यों, बन्धुओं, ब्राह्मण, शरणार्थियों तथा सम्बन्धियों की स्त्रियों के पास कभी न जाय। ऐसा करने से दीर्घायु प्राप्त होती है। मनुजेश्‍वर! अपनी उन्नति चाहने वाले विद्वान पुरुष को उचित है कि ब्राह्मण के द्वारा वास्तु पूजन पूर्वक आरंभ कराये और अच्छे कारीगर के द्वारा बनाये हुए घर में सदा निवास करे।

राजन! बुद्धिमान पुरुष सांयकाल में गोधूलि की वेला में न तो सोये, न विद्या पढे़ और न ही भोजन करे। ऐसा करने वह बड़ी आयु को प्राप्त होता है। अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिये। भोजन करके केशों का संस्कार (क्षौरकर्म) भी नहीं करना चाहिये तथा रात में जल से स्नान करना भी उचित नहीं है। भरतनन्दन! रात में सत्तू खाना सर्वथा वर्जित है। अन्न-भोजन के पश्‍चात जो पीने योग्य पदार्थ और जल शेष रह जाते हैं, उनका भी त्याग कर देना चाहिये। रात में न स्‍वयं डटकर भोजन करे और न दूसरे को ही डटकर भोजन करावे। भोजन करके दौड़े नहीं। ब्राह्मण का वध कभी न करे।

जो श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुई हो, उत्तम लक्षणों से प्रशंसित हो तथा विवाह के योग्य अवस्था को प्राप्त हो गयी हो, ऐसी सुलक्षणा कन्या के साथ श्रेष्ठ बुद्धिमान पुरुष विवाह करे। भारत! उसके गर्भ से संतान उत्पन्न करके वंश परम्परा को प्रतिष्ठित करे और ज्ञान तथा कुलधर्म की शिक्षा पाने के लिये पुत्रों को गुरु के आश्रम में भेज दे। भरतनन्दन! यदि कन्या उत्पन्न करे तो बुद्धिमान एवं कुलीन वर से साथ उसका ब्याह कर दे। पुत्र का विवाह भी उत्तम कुल की कन्या के साथ करे और भृत्य भी उत्तम कुल के मनुष्यों को ही बनावे। भारत! मस्तक पर से स्नान करके देवकार्य तथा पितृ कार्य करे। जिस नक्षत्र में अपना जन्म हुआ हो उसमें एवं पूर्वा और उत्तरा दोनों भाद्रपदाओं में तथा कृत्ति का नक्षत्र में भी श्राद्ध का निषेध है। (आश्‍लेषा, आद्रा, ज्येष्ठा और मूल आदि) सम्पूर्ण दारुण नक्षत्रों और प्रत्यरितारा का भी परित्याग कर देना चाहिये। सारांश यह है कि ज्योतिष शास्त्र के भीतर जिन-जिन नक्षत्रों में श्राद्ध का निषेध किया गया है, उन सब में देवकार्य और पितृकार्य नहीं करना चाहिये।

राजेन्द्र! मनुष्य एकाग्रचित्त होकर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके हजामत बनवाये, ऐसा करने से बड़ी आयु प्राप्त होती है। भरतश्रेष्ठ! सत्तपुरुषों, गुरुजनों, वृद्वों और विशेषतः कुलांगनाओं, दूसरे लोगों की और अपनी भी निंदा न करें’; क्योंकि निंदा करना अधर्म का हेतु बताया गया है। नरश्रेष्ठ! जो कन्या किसी अंग से हीन हो, अथवा जो अधिक अंग वाली हो, जिसके गोत्र और प्रवर अपने ही समान हो तथा जो माता के कुल में (नाना के वंश में) उत्पन्न हुई हो, उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिये। जो बूढ़ी, संन्यासिनी, पतिव्रता, नीचवर्ण की तथा ऊंचे वर्ण की स्त्री हो, उसके सम्पर्क से दूर रहना चाहिये। [3]

कर्तव्यों का पालन

जिसकी योनि अर्थात कुल का पता न हो तथा जो नीच कुल में पैदा हुई हो, उसके के साथ विद्वान पुरुष समागम न करे। युधिष्ठिर! जिसके शरीर का रंग पीला हो तथा जो कुष्ठ रोग वाली हो उसके साथ तुम्हें विवाह नहीं करना चाहिये। नरेश्‍वर! जो मृगी रोग से दूषित कुल में उत्पन्न हुई हो, नीच हो, सफेद कोढ़ वाले और राजक्षमा के रोगी मनुष्य के कुल में पैदा हुई हो, उसको भी त्याग देना चाहिये। जो उत्तम लक्षणों से सम्पन्न, श्रेष्ठ आचरणों द्वारा प्रसंषित, मनोहारिणी तथा दर्शनीय हो, उसी के साथ तुम्हे विवाह करना चाहिये। युधिष्ठिर! अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को अपनी अपेक्षा महान या समान कुल में विवाह करना चाहिये। नीच जाति वाली तथा पति कन्या का पाणिग्रहण कदापि नहीं करना चाहिये। (अरणी-मंथन द्वारा) अग्नि का उत्पादन एवं स्थापन करके ब्राह्मण द्वारा बतायी हुई सम्पूर्ण वेद विहित क्रियाओं का यत्न पूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये। सभी उपायों से अपनी स्त्री की रक्षा करनी चाहिये। स्त्रियों से ईर्ष्‍या रखना उचित नहीं है। ईर्ष्‍या करने से आयु क्षीण होती है। इसलिये उसे त्याग देना ही उचित है। दिन में एवं सूर्य उदय के पश्‍चात शयन आयु को क्षीण करने वाला है।

प्रातःकाल एवं रात्रि के आरंभ में नहीं सोना चाहिये। अच्छे लोग रात में अपवित्र होकर नहीं सोते हैं। परस्त्री से व्यभिचार करना और हजामत बनवाकर बिना नहाये रह जाना यह भी आयु का नाश करने वाला है। भारत! अपवित्र अवस्था में वेदों का अध्ययन यत्नपूर्वक त्याग देना चाहिये। संध्याकाल में स्नान, भोजन और स्वाध्याय कुछ भी न करे। उस बेला में शुद्धचित्त होकर ध्यान एवं उपासना करनी चाहिये। दूसरा कोई कार्य नहीं करना चाहिये। नरेश्‍वर! ब्राह्मण की पूजा, देवताओं को नमस्कार और गुरुजनों को प्रणाम स्नान के बाद ही करने चाहिये। बिना बुलाये कहीं भी न जाये परन्तु यज्ञ देखने के लिये मनुष्य बिना बुलाये भी जा सकता है। भारत! जहाँ अपना आदर न होता हो, वहाँ जाने से आयु का नाश होता है। अकेले परदेश जाना और रात में यात्रा करना मना है। यदि किसी काम के लिये बाहर जाय तो संध्या होने के पहले ही घर लौट आना चाहिये। नरश्रेष्ठ! माता-पिता और गुरुजनों की आज्ञा को अवलंब पालन करना चाहिये। इनकी आज्ञा हितकर है या अहितकर, इसका विचार नहीं करना चाहिये। नरेश्‍वर! क्षत्रिय को धर्नुवेद और वेदाध्ययन के लिये यत्न करना चाहिये। राजेन्द्र! तुम हाथी-घोड़े की सवारी और रथ हांकने की कला में निपुणता प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील बनो, क्योंकि यत्न करने वाला पुरुष सुखपूर्वक उन्नतीशील होता है। वह शत्रुओं, स्वजनों और भृत्यों के लिये दुर्धर्ष हो जाता है। जो राजा सदा प्रजा के पालन में तत्पर रहता है, उसे कभी हानि नहीं उठानी पड़ती। भरतनन्दन! तुम्हे तर्क शास्त्र और शब्दशास्त्र दोनों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। नरेश्‍वर! गान्धर्वशास्त्र (संगीत) और समस्त कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना भी तुम्हारे लिये आवश्‍यक है। तुम्हें प्रतिदिन पुराण, इतिहास, उपाख्यान और महात्माओं के चरित्र का श्रवण करना चाहिये।[4]

राजा माननीय पुरुषों का सम्मान और निंदनीय मनुष्यों की निंदा करे। वह गौओं तथा ब्राह्मणों के लिये युद्ध करे। उनकी रक्षा के लिये आवश्‍यकता हो तो प्राणों को भी न्यौछावर कर दे। अपनी पत्नि भी रजस्वला हो तो उसके पास न जाये और न उसे ही अपने पास बुलाये। जब चौथे दिन वह स्नान करले तब रात में बुद्धिमान पुरुष उसके पास जाये। पांचवे दिन गर्भाधान करने से कन्या की उत्पत्ति होती है और छठे दिन पुत्र की अर्थात समरात्रि में गर्भाधान से पुत्र का और विषम रात्रि में गर्भाधान से कन्या का जन्म होता है।

इस विधि से विद्वान पुरुष पत्नि के साथ समागम करे। भाई-बन्धु, सम्बन्धी और मित्र इन सबका सब प्रकार आदर करना चाहिये। अपनी शक्ति के अनुसार भाँति-भाँति की दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिये। नरेश्‍वर! तदनन्तर गार्हस्थ्य की अवधि समाप्त हो जाने पर वाणप्रस्थ के नियमों का पालन करते हुए वन में निवास करना चाहिये। युधिष्ठिर! इस प्रकार मैंने तुमसे आयु की वृद्धि करने वाले नियमों का संक्षेप में वर्णन किया है। जो नियम बाकी रह गये हैं, उन्हें तुम तीनों वेदों के ज्ञान में बढ़े-चढ़े ब्राह्मण से पूछ कर जान लेना। सदाचारी कल्याण का जनक और सदाचारी कीर्ति का बढाने वाला है।

सदाचार से धर्म की उत्पत्ति

सदाचार से ही आयु की वृद्धि होती है और सदाचार ही बुरे लक्षणों का नाश करता है। सम्पूर्ण आगमों में सदाचारी श्रेष्ठ बतलाया जाता है। सदाचार से धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म से आयु बढ़ती है। पूर्वकाल में सब वर्णों के लोगों पर दया करके ब्रह्माजी ने यह सदाचार धर्म का उपदेश दिया था। यह यश, आयु और स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला तथा कल्याण का परम आधार है। नरेश्‍वर! जो प्रतिदिन इस प्रसंग सुनता और कहता है वह सदाचार व्रत के प्रभाव शुभ लोकों में जाता है।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 81-97
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 98-114
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 115-131
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 132-148
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 104 श्लोक 149-156

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दान-धर्म-पर्व
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द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना | भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश | कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार | कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार | स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन | ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन | वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन | नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन | गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ | च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना | नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना | च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन | च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति | राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा | च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना | च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन | च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना | च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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