उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 145 में उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन का वर्णन हुआ है।[1]

उमा-शिव संवाद

उमा ने पूछा- भगवन! देवदेवेश्वर! मनुष्यलोक में बहुत सी युवती स्त्रियाँ समस्त कल्याणों से रहित विधवा दिखायी देती हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो स्त्रियाँ पहले जन्म में बुद्धि में मोह छा जाने के कारण पति के कुटुम्ब का व्यर्थ नाश करती है, विष देती, आग लगाती और पतियों के प्रति अत्यन्त निर्दय होती हैं, अपने पतियों से द्वेष रखने के कारण दूसरी स्त्रियों के पतियों से सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं, ऐसे आचरण वाली नारियाँ यमलोक में भली-भाँति दण्डित हो चिरकाल तक नरक में पड़ी रहती हैं। फिर किसी तरह मनुष्य-योनिक पाकर वे भोगरहित विधवा हो जाती है।

उमा ने पूछा- भगवन! देवदेवेश्वर! मनुष्यों में ही कोई दासभाव को प्राप्त दिखायी देते हैं, जो सब प्रकार के कर्मों में सर्वथा संलग्न रहते हैं। वे पीटे जाते हैं, डाँट-फटकार सहते हैं और सब तरह से सताये जाते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- कल्याणि! वह कारण मैं बताता हूँ, सुनो। देवि! जो मनुष्य पहले दूसरों के धन का अपहरण करते हैं, जो क्रूरतावश किसी के ऐसे धन को हड़प लेते हैं, जिसके कारण उसके ऊपर ऋण बढ़ जाता है, जो रखने के लिये दिये हुए या धरोहर के तौर पर रखे हुए पराये धन को दबा लेते हैं अथवा प्रमादवश दूसरों के भूले या खोये हुए धन को हर लेते हैं, दूसरों को वध-बन्धन और क्लेश में डालकर उनसे अपनी दासता कराते हैं, देवि! ऐसे लोग मृत्यु को प्राप्त हो यमदण्ड से दण्डित होकर जब किसी तरह मनुष्य-योनि में जन्म लेते हैं, तब जन्म से ही दास होते हैं और उन्हीं की सेवा करते हैं, जिनका धन उन्होंने पूर्वजन्म में हर लिया है। जब तक उनके पाप का भोग समाप्त नहीं हो जाता, तब तक वे दासकर्म ही करते रहते हैं, यही शास्त्र का निश्चय है।

पराये धन का अपहरण करने वाले दूसरे लोग पशु होकर भी धनी की सेवा करते हैं। ऐसा करने से उनका पूर्वापराधजनित कर्म क्षीण होता है। सब प्रकार से उस धन के स्वामी को प्रसन्न कर लेना ही उसके ऋण से छुटकारा पाने का उपाय है, किन्तु जो यथावत रूप से उस ऋण से छूटना नहीं चाहता, उसे पुनर्जन्म लेकर उसकी सेवा करनी पड़ती है। जो उस बन्धन से छूटना चाहता हो, वह यथोचित रूप से सारे काम करता और परिश्रम को सर्वथा सहता हुआ, स्वामी को प्रसन्न करने की आकांक्षा रखे। जिसे स्वामी प्रसन्नतापूर्वक दासता के बन्धन से मुक्त कर देता है, वह मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है। स्वामी को भी चाहिये कि वह ऐसे सेवकों को सदा संतुष्ट रखे उनसे यथायोग्य कार्य कराये और विशेष कारण से ही उन्हें दण्ड दे। जो वृद्धों, बालकों और दुर्बल मनुष्यों का पालन करता है, वह धर्म का भागी होता है। देवि! यह विषय तुम्हें बताया गया। अब और क्या सुनना चाहती हो।

उमा ने पूछा- भगवन! इस भूतल पर राजा लोग जिन मनुष्यों को दण्ड दे देते हैं, अब उस दण्ड से ही उनके पापों का नाश हो जाता है या नहीं? यह मेरा संदेह है। आप इसका निवारण करें।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुम्हारा संदेह ठीक है, तुम एकाग्रचित्त होकर इसका यथार्थ उत्तर सुनो।[1] इस भूमि पर राजालोग जिस अपराध का नाम लेकर जिन मनुष्यों को दण्ड दे देते हैं, उसके लिये वे यमलोक में यमराज के दण्ड द्वारा दण्डित नहीं होते हैं। इस पृथ्वी पर जो वास्तविक अपराधी बिना दण्ड पाये रह जाते हैं अथवा झूठे ही दूसरे लोग दण्डित हो जाते हैं, उस दशा में यमराज उन वास्तविक अपराधियों को अवश्य दण्ड देते हैं, क्योंकि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि किसने अपराध किया है और किसने नहीं किया है। कोई भी मनुष्य इस लोक में कर्म करके यमराज को नहीं लाँघ सकता, उसे अवश्य दण्ड भोगना पड़ता है। शोभने! राजा और यम सबको भरपूर दण्ड देते हैं। तीनों लोकों में कोई भी ऐसा पुरुष नहीं है, जो कर्मों के फल का बिना भोगे नाश कर सके। प्रिये! इस विषय में तुम्हें सारी बातें बता दीं। अब संदेहरहित हो जाओ।

उमा ने पूछा- भगवन! यदि ऐसी बात है तो भूमण्डल के मनुष्य पाप-कर्म करके उसके निवारण के लिये प्रायश्चित्त क्यों करते हैं? कहते हैं कि अश्वमेधयज्ञ सम्पूर्ण पापों को हर लेने वाला है। लोग दूसरे-दूसरे प्रायश्चित्त भी पापों का नाश करने के लिये ही करते हैं (इधर आप कहते हैं कि तीनों लोकों में कोई कर्मफल का नाश करने वाला है ही नहीं) अतः इस विषय में मुझे संदेह हो गया है। आप मेरे इस संदेह का निवारण करें।।

अकारण मृत्यु का वर्णन

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुमने ठीक संशय उपस्थित किया है। अब एकाग्रचित्त होकर इसका वास्तविक उत्तर सुनो। पहले के महर्षियों के मन में भी यह महान संदेह बना रहा है। सज्जन हों या असज्जन, सभी के द्वारा दो प्रकार का पाप बनता है, एक तो वह पाप है, जिसे सदा किसी उद्देश्य को मन में लेकर जान-बूझकर किया जाता है और दूसरा वह है, जो अकस्मात दैवेच्छा से बिना जाने ही बन जाता है। जो उद्देश्य-सिद्धि की कामना रखकर क्रोधपूर्वक कोई असत कर्म करता है, उसके उस कर्म का किसी तरह नाश नहीं होता है। फलाभिसन्धि पूर्वक किये गये कर्मों का नाश सहस्रों अश्वमेध यज्ञों और सैकड़ों प्रायश्चित्तों से भी नहीं होता। इसके सिवा और प्रकार से असावधानी या दैवेच्छा से जो पाप बन जाता है, वह प्रायश्चित्त और अश्वमेध यज्ञ से तथा दूसरे किसी श्रेष्ठ कर्म से नष्ट हो जाता है। प्रिये! इस प्रकार पाप कर्म के विषय में तुम्हारा यह संदेह अब दूर हो जाना चाहिये। देवि! यह विषय मैंने तुम्हें बताया। अब और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! जगत के मनुष्य तथा दूसरे प्राणी, जो किसी कारण से या अकारण भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, इसमें कौन-सा कर्मविपाक कारण है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो निर्दयी मनुष्य पहले किसी कारण से या अकारण भी दूसरे प्राणियों के प्राण लेते हैं, वे उसी प्रकार अपनी करनी का फल पाते हैं। विष देने वाले विष से ही मरते हैं और शस्त्र द्वारा दूसरों की हत्या करने वाले लोग स्वयं भी जन्मान्तर में शस्त्रों के आघात से ही मारे जाते हैं। तुम इसी को सत्य समझो। कर्म करने वाला मनुष्य उन कर्मों का फल न भोगे, ऐसा कोई पुरुष न इस पृथ्वी पर है न स्वर्ग में देवता, असुर और मनुष्य कोई भी अपने कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह सकता।[2]

आदिकाल से ही यह संसार कर्म से गुँथा हुआ है कर्मों के परिणाम के विषय में ये बातें संक्षेप से बतायी गयी हैं। कर्मसंचय के विषय में जो बात मैंने अब तक नहीं कही हो, उसे भी तुम्हें अपनी बुद्धि द्वारा तर्क- ऊहापोह करके जान लेना चाहिये। तुम्हें सुनने की इच्छा थी, इसलिये मैंने ये सारी बातें बतायीं। अब तुम और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- भगवन्! भगनेत्रनाशन! आपका मत है कि मनुष्यों की जो भली-बुरी अवस्था है, वह सब उनकी अपनी ही करनी का फल है। आपके इस मत को मैंने अच्छी तरह सुना, परंतु लोक में यह देखा जाता है कि लोग समस्त शुभाशुभ कर्मफल को ग्रहजनित मानकर प्रायः उन ग्रहनक्षत्रों की ही आराधना करते रहते हैं। क्या उनकी यह मान्यता ठीक है? देव! यही मेरा संशय है। आप मेरे इस संदेह का निवारण कीजिये।

शुभ-अशुभ कर्मों का फल

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुमने उचित संदेह उपस्थित किया है। इस विषय में जो सिद्धान्त मत है, उसे सुनो। महाभागे! ग्रह और नक्षत्र मनुष्यों के शुभ और अशुभ की सूचना मात्र देने वाले हैं। वे स्वयं कोई काम नहीं करते हैं। प्रजा के हित के लिये ज्यौतिषचक्र (ग्रह-नक्षत्र मण्डल)- के द्वारा भूत और भविष्य के शुभाशुभ फल का बोध कराया जाता है। किंतु वहाँ शुभ कर्मफल की सूचना (उत्तम) शुभ ग्रहों द्वारा प्राप्त होती है और दुष्कर्म के फल की सूचना अशुभ ग्रहों द्वारा केवल ग्रह और नक्षत्र ही शुभाशुभ कर्मफल को उपस्थित नहीं करते हैं। सारा अपना ही किया हुआ कर्म शुभाशुभ फल का उत्पादक होता है। ग्रहों ने कुछ किया है- यह कथन लोगों का प्रवादमात्र है।

उमा ने पूछा- भगवन! जीव नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्म करके जब दूसरा जन्म धारण करता है, तब दोनों में से पहले किसका फल भोगता है, शुभ का या अशुभ का? देव! यह मेरा संशय है। आप इसे मिटा दीजिये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुम्हारा संदेह उचित ही है, अब मैं तुम्हें इसका यथार्थ उत्तर देता हूँ। कुछ लोगों का कहना है कि पहले अशुभ कर्म का फल मिलता है, दूसरे कहते हैं कि पहले शुभ कर्म का फल प्राप्त होता है। परंतु ये दोनों ही बातें मिथ्या कही गयी हैं। सच्ची बात क्या है? यह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। इस पृथ्वी पर मनुष्य क्रमशः दोनों प्रकार के फल भोगते देखे जाते हैं। कभी धन की वृद्धि होती है कभी हानि, कभी सुख मिलता है कभी दुःख, कभी निर्भयता रहती है और कभी भय प्राप्त होता है। इस प्रकार सभी फल क्रमशः भोगने पड़ते हैं। कभी धनाढ्य लोग दुःख का अनुभव करते हैं और कभी दरिद्र भी सुख भोगते हैं। इस प्रकार एक ही साथ लोग शुभ और अशुभ का भोग करते देखे जाते हें। सारा जगत इस बात का साक्षी है। प्रिये! किंतु नरक और स्वर्गलोक में ऐसी स्थिति नहीं है। नरक में सदा दुःख ही दुःख है और स्वर्ग में सदा सुख ही सुख। शुभे! वहाँ भी शुभ या अशुभ में से जो बहुत अधिक होता है, उसका भोग पहले और जो बहुत कम होता है, उसका भोग पीछे होता है। ये सब बातें मैंने तुम्हें बता दीं, अब और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- भगवन! इस लोक में प्राणी किस कारण से मर जाते हैं? जन्म ले-लेकर वे यहीं बने क्यों नहीं रहते हैं? यह मुझे बताने की कृपा करें।[3]

शिव द्वारा शरीर और आत्मा का वर्णन

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! इस विषय में जो यथार्थ बात है, वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। कर्मों का भोग समाप्त होने पर आत्मा इस शरीर को कैसे छोड़ता है? यह एकाग्रचित्त होकर सुनो। शरीर और आत्मा का (जड़ और चेतन का) जो संयोग है, उसी को जीव या प्राणी कहते हैं। इनमें आत्मा को नित्य और शरीर को अनित्य बताया जाता है। जब काल से आक्रान्त होकर शरीर जरावस्था से जर्जर हो जाता है, कोई कर्म करने योग्य नहीं रह जाता और सर्वथा गल जाता है, तब देहधारी जीव उसे त्यागकर चल देता है। नित्य जीवात्मा जब अनित्य शरीर को त्याग कर चला जाता है, तब लोक में उस प्राणी की मृत्यु हुई मानी जाती है।

देवता, असुर और मनुष्य कोई भी काल का उल्लंघन नहीं कर सकते। जैसे आकाश में कोई भी जड द्रव्य स्थिर नहीं रह सकता, उसी प्रकार यह काल निरन्तर दौड़ लगाता रहता है। एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता।। वह जीव फिर किसी दूसरे शरीर में प्रवेश करके अन्यत्र जन्म लेता है। इस प्रकार आदि काल से ही लोक की सदा ऐसी ही गति चल रही है।

उमा ने पूछा- भगवन! इस संसार में बाल्यावस्था में भी प्राणियों की मृत्यु होती देखी जाती है और अत्यन्त वृद्ध मनुष्य भी चिरजीवी होकर जीवित दिखायी देते हैं। महेश्वर! केवल काल-मृत्यु अर्थात वृद्धावस्था में ही मृत्यु होने की बात प्रमाणभूत नहीं रह गयी है, अतः प्राणियों के जीवन के लिये उठे हुए मेरे इस संदेह का आप निवारण कीजिये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! इसका कारण सुनो। इस विषय में एक ही निर्णय है। जब तक पूर्वकृत कर्म (प्रारब्ध) शेष है, तब तक मनुष्य जीवित रहता है। उसी कर्म के अधीन होकर प्रारब्ध भोग का काल समाप्त होने पर बालक भी मर जाते हैं और उसी कर्म की मात्रा के अनुसार वृद्ध पुरुष भी दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं। देवि! यह सब विषय तुम्हें बताया गया। प्रिये इस विषय में अब तुम संशयरहित हो जाओ।

उमा ने पूछा- भगवन! किस आचरण से मनुष्य चिरजीवी होते हैं और किससे अल्पायु हो जाते हैं? यह मुझे बताने की कृपा करें।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! यह सारा गूढ़ रहस्य मनुष्यों के लिये परम लाभदायक है। जिस आचरण से सम्पन्न मनुष्य चिरजीवी होते हैं, वह सब सुनो। अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध का त्याग, क्षमा, सरलता, गुरुजनों की नित्य सेवा, बड़े-बूढ़ों का पूजन, पवित्रता का ध्यान रखकर न करने योग्य कर्मों का त्याग, सदा ही पथ्य भोजन इत्यादि गुणों वाला आचार दीर्घजीवी मनुष्यों का है। तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा रसायन के सेवन से मनुष्य अधिक धैर्यशाली, बलवान और चिरजीवी होते हैं। धर्मात्मा पुरुष स्वर्ग में हो या मनुष्यलोक में, वे दीर्घकाल तक अपने पद पर बने रहते हैं। इनके सिवा दूसरे जो पापकर्मी प्रायः झूठ बोलने वाले, हिंसाप्रेमी, गुरुद्रोही, अकर्मण्य, शौचाचार से रहित, नास्तिक, घोरकर्मी, सदा मांस खाने और मद्य पीने वाले, पापाचारी, गुरु से द्वेष रखने वाले, क्रोधी और कलहप्रेमी हैं, ऐसे असदाचारी पुरुष चिरकाल तक नरक में पड़े रहते हैं तथा तिर्यग्योनि में स्थित होते हैं, वे मनुष्य-शरीर में अत्यन्त अल्प समय तक ही रहते हैं। इसीलिये ऐसे मनुष्य अल्पायु होते हैं। अगम्य स्थानों में जाने से, अपथ्य वस्तुओं का भोजन करने से मनुष्यों की आयु क्षीण होती है, क्योंकि वे आयु का नाश करने वाले हैं।[4]

ऊपर बताये हुए कारणों से मनुष्य अल्पायु होते हैं, अन्यथा चिरजीवी होते हैं। यह सारा विषय मैंने तुम्हें बता दिया। अब और क्या सुनना चाहती हो?

उमा ने पूछा- देवदेव! महादेव! भगवन्! यह विषय तो मैंने अच्छी तरह सुन लिया। अब यह बताइये कि आत्मा का स्त्री या पुरुष में किस जाति के साथ सम्बन्ध है? जीवात्मा स्त्रीरूप है या पुरुषरूप? एक है या अलग-अलग? देव! यह मेरा संशय है। आप इसका निवारण करें।

श्रीमहेश्वर ने कहा- जीवात्मा सदा ही निर्विकार है! वह न स्त्री है न पुरुष। वह कर्म के अनुसार विभिन्न जातियों में जन्म लेता है। पुरुषोचित कर्म करके स्त्री भी पुरुष हो सकती है और स्त्री-भावना से युक्त पुरुष तदनुरूप कर्म करके उस कर्म के अनुसार स्त्री हो सकता है।।

उमा ने पूछा- भगवन्! सर्वलोकेश्वर! यदि आत्मा कर्म नहीं करता तो शरीर में दूसरा कौन कर्म करने वाला है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- भामिनि! कर्ता कौन है? यह सुनो। आत्मा कर्म नहीं करता है। प्रकृति के गुणों से युक्त प्राणी द्वारा ही सदा कर्म किया जाता है। जगत् में प्राणियों का शरीर जैसे वात, पित्त और कफ- इन तीन दोषों से व्याप्त रहता है, इसी प्रकार प्राणी सत्त्व, रज और तम- इन गुणों से व्याप्त होता है। सत्त्व, रज और तम- ये तीनों शरीरधारी के गुण हैं। इनमें से सत्त्व सदा प्रकाशस्वरूप माना गया है। रजोगुण दुःखरूप और तमोगुण मोहरूप बताया गया है। लोक में इन तीनों गुणों से युक्त कर्म की प्रवृत्ति होती है। सत्यभाषण, प्राणियों पर दया, शौच, श्रेय, प्रीति, क्षमा और इन्द्रिय-संयम- ये तथा ऐसे ही अन्य कर्म भी सात्त्विक कहलाते हैं। दक्षता, कर्मपरायणता, लोभ, विधि के प्रति मोह, स्त्री-संग, माधुर्य तथा सदा ऐश्वर्य का लोभ-ये नाना प्रकार के भाव और कर्म रजोगुण से प्रकट होते हैं। असत्यभाषण, रूखापन, अत्यन्त अधीरता, हिंसा, असत्य, नास्तिकता, निद्रा, आलस्य और भय- ये तथा पापयुक्त कर्म तमोगुण से प्रकट होते हैं। इसलिये समस्त शुभाशुभ कार्यारम्भ गुणमय है, अतः आत्मा को व्यग्रतारहित, अकर्ता और अविनाशी समझो। सात्त्विक मनुष्य पुण्यलोकों में जाते हैं। राजस जीव मनुष्यलोक में स्थित होते हैं तथा तमोगुणी मनुष्य पशु-पक्षियों की योनि में और नरक में स्थित होते हैं।

उमा ने पूछा- इस शरीर के भेदन से अथवा शस्त्र द्वारा मारे जाने से आत्मा स्वयं ही क्यों चला जाता है? यह मुझे बताइये।

श्रीमहेश्वर ने कहा- कल्याणि! इसका कारण मैं बताता हूँ, सुनो। इस विषय में सूक्ष्म बुद्धिवाले विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। जन्मधारी प्राणियों के कर्मों का क्षय हो जाने पर इस देह में जिस किसी भी कारण से उपद्रव होने लगता है। उसके कारण शरीरका कक्षय हो जाने पर देहाभिमानी जीव कर्म के अधीन हो उस शरीर को त्याग कर चला जाता है। शरीर क्षीण होता है, आत्मा नहीं। वह वेदनाओं से भी विचलित नहीं होता। जब तक कर्मफल शेष रहता है, तब तक जीवात्मा इस शरीर में स्थित रहता है और कर्मों का क्षय होने पर पुनः चला जाता है। आदिकाल से ही इस जगत् में आत्मा की ऐसी ही गति मानी गयी है। देवि! यह सब विषय तुम्हें बताया गया। अब और क्या सुनना चाहती हो?[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-21
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-22
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-23
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-24
  5. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-25

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विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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