- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 102 में धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण के संवाद का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
युधिष्ठिर का लोकों में भिन्नता जाना
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! (मृत्यु के पश्चात) सभी पुण्यात्मा एक ही तरह के लोक में जाते हैं या वह उन्हें प्राप्त होने वाले लोकों में भिन्नता होती है? दादाजी यह मुझे बताइये।
भीष्म जी ने कहा- कुन्तीनन्दन! मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न लोकों में जाते हैं। पुण्यकर्म करने वाले पुण्यलोकों में जाते हैं और पापाचारी मनुष्य पायमय लोकों में। तात! इस विषय में विज्ञ पुरुष इन्द्र और गौतम मुनि के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकाल में गौतम नाम वाले एक ब्राह्मण थे, जिनका स्वभाव बड़ा कोमल था। वे मन को वश में रखने वाले और जितेन्द्रिय थे। उन व्रतधारी मुनि ने विशाल वन में एक हाथी के बच्चे को अपने माता के बिना बड़ा कष्ट पाते देखकर उसे कृपापूर्वक जिलाया। दीर्घकाल के पश्चात् वह हाथी बढकर अत्यंत बलवान हो गया। उस महानाग के कुम्भस्थल से फूटकर मद की धारा बहने लगी।
मानो पर्वत से झरना झर रहा हो। एक दिन इन्द्र ने राजा धृतराष्ट्र के रूप में आकर उस हाथी को अपने अधिकार में कर लिया। कठोर व्रत का पालन करने वाले महातपस्वी गौतम ने उस हाथी का अपहरण होता देख राजा धृतराष्ट्र से कहा- ‘कृतज्ञताशून्य राजा धृतराष्ट्र! तुम मेरे इस हाथी को न ले जाओ। यह मेरा पुत्र है। मैंने बड़े दुःख से इसका पालन-पोषण किया है। सत्पुरुषों में सात पग साथ चलने मात्र से मित्रता हो जाती है। इस नाते हम और तुम दोनों मित्र हैं। मेरे इस हाथी को ले जाने से तुम्हें मित्रद्रोह का पाप लगेगा। तुम्हें यह पाप न लगे, ऐसी चेष्टा करो। ‘राजन। यह मुझे समिधा और जल लाकर देता है। मेरे आश्रम में जब कोई नहीं रहता है, तब यही रक्षा करता है।
आचार्यकुल में रहकर इसने विनय की शिक्षा ग्रहण की है। गुरु सेवा के कार्य में यह पूर्णरूप से संलग्न रहता है। यह शिष्ट, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ तथा मुझे सदा ही प्रिय है। मैं चिल्ला-चिल्लाकर कहता हूँ, तुम मेरे इस हाथी को न ले जाओ।’
धृतराष्ट्र-गौतम संवाद
धृतराष्ट्र ने कहा- महर्षे! मैं आपको एक हजार गौऐं दूंगा। सौ दासियाँ और पांच सौ स्वर्णमुद्राऐं प्रदान करूंगा और भी नाना प्रकार का धन समर्पित करूंगा। ब्राह्मण के यहाँ हाथी का क्या काम है?
गौतम बोले- राजन! वे गौऐं, दासियां, स्वर्ण मुद्राऐं, नाना प्रकार के रत्न तथा और भी तरह-तरह के धन तुम्हारे ही पास रहें। नरेन्द्र! ब्राह्मण के यहाँ धन का क्या काम है।
धृतराष्ट्र ने कहा- विप्रवर गौतम! ब्राह्मण को हाथियों से कोई प्रयोजन नहीं है। हाथियों के समूह तो राजाओं के ही काम आते हैं। हाथी मेरा वाहन है, अतः इस श्रेष्ठ हाथी को ले जाने में कोई अधर्म नहीं है। आप इसकी ओर से अपनी तृष्णा हटा लीजिये।
गौतम ने कहा- महात्मन! जहाँ जाकर पुण्यकर्मा पुरुष आनन्दित होता है और जहाँ जाकर पापकर्मा मनुष्य शोक में डूब जाता है, उस यमराज के लोक में तुमसे अपना हाथी वसूल लूंगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- जो निष्क्रिय, नास्तिक, श्रद्धाहीन, पापात्मा और इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हैं, वे ही यमयातना को प्राप्त होते हैं; परंतु राजा धृतराष्ट्र को वहाँ नहीं जाना पड़ता।[1]
जहाँ सदा सत्य ही बोला जाता है और निर्बल मनुष्य ही बलवान से अपने प्रति किये गये अन्याय का बदला लेते हैं, मनुष्यों को संयम में रखने वाली यमराज की वही पुरी संयमनी नाम से प्रसिद्ध है। वहीं मैं तुमसे अपना हाथी वसूल करूंगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- महर्षे। जो मदमत्त मनुष्य बड़ी वहन, माता और पिता के साथ शत्रु के समान वर्ताव करते हैं, उन्हीं के लिये यह यमराज का लोक है, परंतु धृतराष्ट्र वहाँ जाने वाला नहीं है।
गौतम ने कहा- महान सौभाग्यशाली मंदाकिनी नदी राजा कुबेर के नगर में विराज रही है, जहाँ नागों का ही प्रवेश होना संभव है। गन्धर्व, यक्ष और अप्सराऐं उस मंदाकिनी का सदा सेवन करती हैं; वहाँ जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वसूल करूंगा।
धृतराष्ट्र बोले- जो सदा अतिथियों की सेवा में तत्पर रहकर उत्तम व्रत का पालन करने वाले हैं, जो लोग ब्राह्मण का आश्रय दान करते हैं, तथा जो अपने आश्रितों को बांटकर शेष अन्न का भोजन करते हैं, वे ही लोग उस मंदाकिनी तट की शोभा बढाते हैं (राजा धृतराष्ट्र को तो वहाँ भी नहीं जाना है)।
गौतम बोले- मेरू पर्वत के सामने जो रमणीय वन शोभा पाता है, जहाँ सुन्दर फूलों की छटा छायी रहती है और किन्नरियों के मधुर गीत गूंजते रहते हैं, जहाँ देखने में सुन्दर विशाल जम्बू वृ़क्ष शोभा पाता है, वहाँ पहुँच कर भी मैं तुमसे अपना हाथी वसूल लूंगा।
धृतराष्ट्र बोले- महर्षे! जो ब्राह्मण कोमल स्वभाव, सत्यशील, अनेक शास्त्रों के विद्वान तथा सम्पूर्ण भूतों को प्यार करने वाले हैं, जो इतिहास और पुराण का अध्ययन करते तथा ब्राह्मण का मधुर भोजन अर्पित करते हैं; ऐसे लोगों के लिये यह पूर्वोक्त लोक है; परंतु राजा धृतराष्ट्र वहाँ भी जाने वाला नहीं है। आपको जो-जो स्थान विदित हैं, उन सबका यहाँ वर्णन कर जाइये। मैं जाने के लिये उतावला हूँ। यह देखिये, मैं चला।
गौतम ने कहा- सुंदर-सुंदर फूलों से सुशोभित, किन्नरराजों से सेवित तथा नारद, गंधर्व और अप्सराओं को सर्वदा प्रिय जो नंदन नामक वन है, वहाँ जाकर भी मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूंगा।[2]
धृतराष्ट्र बोले- महर्षे! जो लोग नृत्य और गीत में निपुण हैं; कभी किसी से कुछ याचना नहीं करते हैं तथा सदा सज्जनों के साथ विचरण करते हैं, ऐसे लोगों के लिये ही यह नंदन वन जगत है; परंतु राजा धृतराष्ट्र वहाँ भी जाना वाला नहीं है।
गौतम बोले- नरेन्द्र! जहाँ रमणीय आकृति वाले उत्तर कुरु के निवासी अपूर्व शोभा पाते हैं, देवताओं के साथ रहकर आनन्द भोगते हैं, अग्नि, जल और पर्वत से उत्पन्न हुए दिव्य मानव जिस देश में निवास करते हैं, जहाँ इन्द्र संपूर्ण कमानाओं की वर्षा करते हैं, जहाँ की स्त्रियां इच्छानुसार विचरने वाली होती हैं तथा जहाँ स्त्रियों और पुरुषों में ईर्ष्या का सवर्था अभाव है, वहाँ जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वपिस लूंगा।[3]
धृतराष्ट्र ने कहा- महर्षे! जो समस्त प्राणियों में निष्काम है, जो मांसाहार नहीं करते, किसी भी प्राणी को दण्ड नहीं देते, स्थावर-जंगम प्राणियों की हिंसा नहीं, जिनके लिये समस्त अपने आत्मा के ही तुल्य हैं, जो कामना, ममता और आसक्ति से रहित हैं, लाभ हानि, निंदा तथा प्रशंसा में जो सदा सम भाव रखते हैं, ऐसे लोगों के लिये ही यह उत्तर कुरु नामक लोक है; परंतु धृतराष्ट्र को वहाँ भी नहीं जाना है।
गौतम ने कहा- राजन। उससे भिन्न बहुत-से सनातन लोक हैं, जहाँ पवित्र गंध छायी रहती है। वहाँ रजागुण तथा शोक का सर्वथा अभाव है। महात्मा राजा सोम के लोक में उनकी स्थिति है। वहाँ पहुँचकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूंगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- महर्षे। जो सदा दान करते हैं, किंतु दान लेते नहीं, जिनकी दृष्टि में सुयोग्य पात्र के लिये कुछ भी अदेय नहीं है, जो सबका अथिथि-सत्कार करते तथा सबके प्रति कृपा भाव रखते हैं, जो क्षमाशील है, दूसरों से कभी कुछ नहीं बोलते है और जो पुण्यशील महात्मा सदा सबके लिये अन्नसत्ररुप हैं, ऐसे लोगों के लिये ही यह सोम लोक है; परंतु धृतराष्ट्र को वहाँ भी नहीं जाना है।
गौतम ने कहा- राजन। सोम लोक से भी ऊपर कितने ही सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, जो रजोगुण, तमोगुण और शोक से रहित हैं। वे महात्मा सूर्यदेव के स्थान हैं। वहाँ जाकर भी मैं तुमने अपना हाथी वसूल करुंगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- महर्षे। जो स्वाध्यायशील, गुरुसेवा परायण, तपस्वी, उत्तम व्रतधारी, सत्यप्रतिज्ञ, आचार्यों के प्रतिकूल भाषण न करने वाले, सदा उद्योगशील तथा बिना कहे ही गुरु के कार्य में संलग्न रहने वाले हैं, जिनका भाव विशुद्ध है, जो मौन व्रताबलम्बी, सत्यनिष्ठ और वेदवेत्ता महात्मा है, उन्हीं लोगों के लिये सूर्यदेव का लोक है, परंतु धृतराष्ट्र वहाँ भी जाने वाला नहीं है।
गौतम ने कहा- उसके सिवा दूसरे भी बहुत-से सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, जहाँ पवित्र गंध छायी रहती है। वहाँ न तो रजोगुण है और न शोक ही। महामना राजा वरुण के लोक में वे स्थान। वहाँ जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूंगा। धृतराष्ट्र ने कहा- जो लोग सदा चातुर्मास्य याग करते हैं, हजरों इष्टियों का अनुष्ठान करते हैं तथा जो ब्राह्मण तीन वर्षों तक वैदिक विधि के अनुसार प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक अग्निहोत्र करते हैं, धर्म का भार अच्छी तरह वहन करते हैं, वेदोक्त मार्ग पर भलिभाँति स्थिर होते हैं, वे धर्मात्मा हात्मा ब्राह्मण वरुणलोक में जाते हैं।
धृतराष्ट्र को वहाँ भी नहीं जाना है। यह उससे भी उत्तम लोक प्राप्त करेगा। गौतम ने कहा- राजन। इन्द्र के लोक रजोगुण और शोक से रहित हैं। उनकी प्राप्ति बहुत कठिन है। सभी मनुष्य उन्हें पाने की इच्छा रखते हैं। उन्हीं महातेजस्वी इन्द्र के भवन में चलकर मैं आपसे अपने इस हाथी को वापस लूंगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- जो सौ वर्ष तक जीने वाला शूरवीर मनुष्य वेदों का स्वाध्याय करता, यज्ञ में तत्पर रहता और कभी प्रमाद नहीं करता है ऐसे ही लोग इन्द्रलोक में जाते हैं। धृतराष्ट्र उससे भी उत्तम लोक में जायेगा। उसे वहाँ भी नहीं जाना है।
गौतम बोले- राजन। स्वर्ग के शिखर पर प्रजापति के महान लोक हैं जो हुष्ट-पुष्ट और शोक रहित हैं। संपूर्ण जगत के प्राणी उन्हें पाना चाहते हैं। मैं वहीं जाकर तुमसे अपना हाथी वापस लूंगा।[4]
धृतराष्ट्र ने कहा- मुने! जो धर्मात्मा राजा राजशूय यज्ञ में अभिषिक्त होते हैं, प्रजाजनों की रक्षा करते हैं तथा अश्वमेध यज्ञ के अवभृथ-स्नाना में जिसके सारे अंग भीग जाते हैं, उन्हीं के लिये प्रजापति लोक है। धृतराष्ट्र वहाँ भी नहीं जायेगा।
गौतम बोले- उससे परे जो पवित्र गंध से परिपूर्ण, रजोगुण रहित तथा शोक शून्य सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, उन्हें गोलोक कहते हैं। उस दुर्लभ एवं दुर्धर्ष गोलोक में जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूंगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- जो सहस्त्र गौओं का स्वामी होकर प्रति वर्ष सौ गौओं का दान करता है, सौ गौओं का स्वामी होकर यथाशक्ति दस गौओं का दान करता है, जिसके पास दास ही गौऐं हैं, वह यदि उनमें से एक गाय का दान करता है, वह गोलोक में जाता है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य का पालन करते-करते ही बूढ़े हो जाते हैं, जो देववाणी की सदा रक्षा करते हैं, तथा जो मनस्वी ब्राह्मण सदा तीर्थ यात्रा में ही तत्पर रहते हैं, वे ही गौओं के निवास स्थान गोलोक में आनन्द भोगते हैं। प्रभास, मानसरोवर, तीर्थ, त्रिपुष्कर नामक महान सरोवर पवित्र नैमिष तीर्थ, बाहुदा नदी, करतोया नदी, गया, गयशि, स्थूल बालुकायुक्त विपाशा (व्यास), कृष्णा, गंगा, पंचनद, महाहृद, गोमती, कौशिकी, पम्पासरोवर, सरस्वती, दृषद्वती और यमुना– इन तीर्थों में जो व्रतधारी महात्मा जाते हैं, वे ही दिव्य रुप धारण करके दिव्य मालाओं से अलंकृत हो गोलोक में जाते हैं और कल्याणमय स्वरुप तथा पवित्र सुगंध से व्याप्त होकर वहाँ निवास करते हैं। धृतराष्ट्र उस लोक में नहीं मिलेगा।
गौतम बोले- जहाँ सर्दी का भय नहीं है, गर्मी का अणुमात्र भी भय नहीं है, जहाँ न भूख लगती है न प्यास, न ग्लानि प्राप्त होती है न दु:ख-सुख, जहाँ न कोई द्वेष का पात्र है न प्रेम का, न कोई बन्धु है न शत्रु, जहाँ जरा-मृत्यु, पुण्य और पाप कुछ भी नहीं है, उस रजोगुण से रहित, समृद्धिशाली, बुद्धि और सत्वगुण से सम्पन्न तथा पुण्यमय ब्रह्मलोक में जाकर तुम्हें मुझे यह हाथी वापस देना पड़ेगा।
धृतराष्ट्र ने कहा- महामुने। जो सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त है, जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है, जो नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले हैं जो अध्यात्मज्ञान और योग संबंधी आसनों से युक्त हैं, जो स्वर्गलोक के अधिकारी हो चुके हैं, ऐसे सात्त्विक पुरुष ही पुण्यमय ब्रह्मलोक में जाते हैं। वहाँ तुम्हें धृतराष्ट्र नहीं दिखाई दे सकता।
गौतम बोले- जहाँ रथन्तर और बृहत्साम का गान किया जाता है, जहाँ याज्ञिक पुरुष वेदी को कमल पुष्पों से आच्छादित करते हैं तथा जहाँ सोमपान करने वाला पुरुष दिव्य अश्वों द्वारा यात्रा करता है, वहाँ जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूंगा। मैं जानता हूं, आप राजा धृतराष्ट्र नहीं, वृतासुर का वध करने वाले शतक्रतु इन्द हैं और सम्पूर्ण जगत का निरीक्षण करने के लिये सब ओर घूम रहे हैं। मैंने मानसिक आवेश में आकर कदाचित वाणी द्वारा आपके प्रति कोई अपराध तो नहीं कर डाला?
शतक्रतु द्वारा कर्तव्य का उपदेश
शतक्रतु बोले- मैं इन्द्र हूँ और आपके हाथी के अपहरण के कारण मानव प्रजा दृष्टि पथ में निन्दित हो गया हूँ। अब मैं आपके चरणों में मस्तक झुकाता हूं, आप मुझे कर्तव्य का उपदेश दें। आप जो-जो कहेंगे, वह सब करुंगा।[5]
गौतम बोले- देवेन्द्र! यह श्वेत गजराज कुमार जो इस समय नवजवान हाथी के रुप में परिणत हो चुका है, मेरा पुत्र है और अभी दस वर्ष का बच्चा है। इसे आपने हर लिया है। मेरी प्रार्थना है कि मेरे इसी हाथी को आप मुझे लौटा दें।
शतक्रतु ने कहा- विप्रवर! आपका पुत्रस्वरुप यह हाथी आप ही की ओर देखता हुआ आ रहा है और पास आकर आपके दोनों चरणों को अपनी नासिका से सूंघता है। अब आप मेरा कल्याण-चिंतन कीजिये, आप को नमस्कार है।
गौतम बोले- सुरेन्द्र! मैं सदा ही यहाँ आपके कल्याण का चिंतन करता हूँ और सदा आपके लिये अपनी पूजा अर्पित करता हूँ। शक्र आप भी मुझे कल्याण प्राप्त करें। मैं आपके दिये हुए इस हाथी को ग्रहण करता हूँ।
शतक्रतु ने कहा- जिन सत्यवादी मनीषी महात्माओं हृदय गुफा में संपूर्ण वेद निहित हैं, उनमें आप प्रमुख महात्मा हैं। केवल आपके कल्यण चिन्तन से मैं समृद्धशाली हो गया। इसलिये आज मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूँ। ब्राह्मण मैं बड़े हर्ष के साथ कहता हूँ कि आप अपने पुत्रभूत हाथी के साथ शीघ्र चलिये। आप अभी चिरकाल के लिये कल्याणमय लोकों की प्राप्ति के अधिकारी हो गये हैं।
पुत्रस्वरुप हाथी के साथ गौतम को आगे करके वज्रधारी इन्द्र श्रेष्ठ पुरुषों के साथ दुर्गम देवलोक में चले गये। जो पुरुष जितेन्द्रिय होकर प्रतिदिन इस प्रसंग को सुनेगा अथवा इसका पाठ करेगा, वह गौतम ब्राह्मण की भाँति ब्रह्म लोक में जायेगा। [6]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 102 श्लोक 1-15
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 102 श्लोक 27-40
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 102 श्लोक 16-26
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 102 श्लोक 27-40
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 102 श्लोक 41-56
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 102 श्लोक 57-63
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| सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना
| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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