श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 8 में श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- भरतनन्‍दन! इस जगत में कौन-कौन पुरुष पूजन और नमस्‍कार के योग्‍य हैं? आप किनको प्रणाम करते हैं? तथा नरेश्‍वर! आप किनको चाहते हैं? यह सब मुझे बताइये। बड़ी-से बड़ी आपत्ति में पड़ने पर भी आपका मन किनका स्‍मरण किये बिना नहीं रहता? तथा इस समस्‍त मानवलोक ओर परलोक में हितकारी क्‍या है? ये सब बातें बताने की कृपा करें।

भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जिनका ब्रह्म (वेद) ही परम धन है, आत्‍मज्ञान ही स्‍वर्ग है तथा वेदों का स्‍वाध्‍याय करना ही श्रेष्‍ठ तप है, उन ब्राह्मणों को मैं चाहता हूँ। जिनके कुल में बच्‍चे से लेकर बूढ़े तक बाप-दादों की परम्‍परा से चले आने वाले धार्मिक कार्य का भार संभालते हैं, परंतु उसके लिये मन में कभी खेद का अनुभव नहीं करते हैं, ऐसे ही लोगों को मैं चाहता हूँ। जो विनीत भाव से विद्याअध्‍ययन करते हैं, इन्दियों को संयम में रखते हैं और मीठे वचन बोलते हैं, जो शास्‍त्रज्ञान और सदाचार दोनों से सम्‍पन्‍न हैं, अविनाशी परमात्‍मा को जानने वाले सत्‍पुरुष हैं, तात युधिष्ठिर! सभाओं में बोलते समय हंस समूहों की भाँति जिनके मुख से मेघ के समान गंभीर स्‍वर से मनोहर मंगलमयी एवं अच्छे ढंग से कही गयी बातें सुनायी देती हैं, उन ब्राह्मणों को ही मैं चाहता हूँ। यदि राजा उन महात्‍माओं की बातें सुनने की इच्‍छा रखे तो वे उसे इहलोक और परलोक में भी सुख पहुँचाने वाली होती हैं। जो प्रतिदिन उन महात्‍माओं की बातें सुनते हैं, वे श्रोता विज्ञानगुण से सम्‍पन्‍न हो सभाओं में सम्‍मानित होते हैं। मैं ऐसे श्रोताओं की भी चाह रखता हूँ।? राजा युधिष्ठिर! जो पवित्र होकर ब्रहृाणों को उनकी तृप्ति के लिये शुद्ध और अच्‍छे ढंग से तैयार किये हुए पवित्र तथा गुणकार अन्‍न परोसते हैं, उनको भी मैं सदा चाहता हूँ। युधिष्ठिर! संग्राम में युद्ध करना सहज है। परंतु दोष्‍दृष्टि से रहित होकर दान देना सहज नहीं है। संसार में सैकड़ों शूरवीर हैं, परंतु उनकी गणना करते समय जो उनमें दानशूर हो, वही सबसे श्रेष्‍ठ माना जाता है। सौम्‍य! यदि मैं कुलीन, धर्मात्‍मा, तपस्‍वी और विद्वान अथवा कैसा भी ब्राह्मण होता तो अपने को धन्‍य समझता। पाण्‍डुनन्‍दन! इस संसार में मुझे तुमसे अधिक प्रिय कोई नहीं है, पंरतु भरतश्रेष्‍ठ! ब्राह्मणों को मैं तुम से भी अधिक प्रिय मानता हूँ। कुरुश्रेष्‍ठ! ‘ब्राह्मण मुझे तुम्‍हारी अपेक्षा भी बहुत अधिक प्रिय हैं’- इस सत्‍य के प्रभाव से मैं उन्‍हीं पुण्‍यलोकों में जाउंगा जहाँ मेरे पिता महाराज शान्‍तनु गये हैं। मेरे पिता भी मुझे ब्रहृाणों की अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं रहे हैं। पितामह और अन्‍य सुहृदों को भी मैनें कभी ब्राह्मणों से अधिक प्रिय नहीं समझा है। मेरे द्वारा ब्राह्मणों के प्रति किन्‍ही श्रेष्‍ठ कर्मों में कभी छोटा-मोटा किंचिन्‍मात्र भी अपराध नहीं हुआ है। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! मैंने मन, वाणी और कर्म से ब्राह्मणों का जो थोड़ा-बहुत उपकार किया है, उसी के प्रभाव से आज इस अवस्‍था में पड़ जाने पर भी मुझे पीड़ा नहीं होती है।

ब्राह्मणों की सेवा ही सम्‍पूर्ण पवित्र कर्म होना

लोग मुझे ब्राह्मणभक्‍त कहते हैं। उनके इस कथन से मुझे बड़ा संतोष होता है। ब्राह्मणों की सेवा ही सम्‍पूर्ण पवित्र कर्मों से बढ़कर परम पवित्र कार्य है। तोत! ब्राह्मण की सेवा में रहने वाले पुरुष को जिन पवित्र और निर्मल लोकों की प्राप्ति होती है, उन्‍हें मैं यहीं से देखता हूँ। अब शीघ्र मुझे चिरकाल के लिये उन्‍हीं लोकों में जाना है। युधिष्ठिर! जैसे स्त्रियों के लिये पति की सेवा ही संसार में सबसे बड़ा धर्म है, पति ही उनका देवता और वही उनकी परम गति है, उनके लिये दूसरी कोई गति नहीं है, उसी प्रकार क्षत्रिय के लिये ब्राह्मण की सेवा ही परम धर्म है। ब्राह्मण ही उनका देवता और परम गति है, दूसरा नहीं। क्षत्रिय सौ वर्ष का हो और श्रेष्‍ठ ब्राह्मण दस वर्ष की अवस्‍था का हो तो भी उन दोनों को परस्‍पर पुत्र और पिता के समान जानना चाहिए। उनमें ब्राह्मण पिता है और क्षत्रिय पुत्र। जैसे नारी पति के अभाव में देवर को पति बनाती है, उसी प्रकार पृथ्‍वी ब्राह्मण के न मिलने पर ही क्षत्रिय को अपना अधिपति बनाती है। पुरोहित सहित राजाओं को ब्राह्मण की आज्ञा से राज्‍य ग्रहण करना चाहिए। ब्राह्मण की रक्षा से ही राजा को स्‍वर्ग मिलता है और उसको रूष्‍ट कर देने से वह अनन्‍तकाल के लिये नरक में गिर जाता है। कुरुश्रेष्‍ठ! ब्राह्मणों की पुत्र के समान रक्षा, गुरु की भाँति उपासना और अग्नि की भाँति उनकी सेवा-पूजा करनी चाहिए। सरल, साधु, स्‍वभावत: सत्‍यवादी तथा समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर रहने वाले ब्राह्मणों की सदा ही सेवा करनी चाहिए और क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान समझकर उनसे भयभीत रहना चाहिए। ब्राह्मणों की जो स्त्रियां हों उनकी भी सुरक्षा का ध्‍यान रखते हुए माता के समान उनका दूर से ही पूजन करना चाहिए। युधिष्ठिर! ब्राह्मणों के तेज ओर तप से सदा डरना चाहिए तथा उनके सामने अपने तप एवं तेज का अभिमान त्‍याग देना चाहिए। महाराज! ब्राह्मण के तप और क्षत्रिय के तेज का फल शीघ्र ही प्रकट होता है तथापि जो तपस्‍वी ब्राह्मण हैं वे कुपित होने पर तेजस्‍वी श्रत्रिय को अपने तपके प्रभाव से मार सकते हैं। क्रोधरहित- क्षमाशील ब्राह्मण को पाकर क्षत्रिय की ओर से अधिक मात्रा में प्रयुक्‍त किये गये तप और तेज आग पर रूर्इ के ढेर के समान तत्‍काल नष्‍ट हो जाते हैं। यदि दोनों ओर से एक-दूसरे पर तेज और तप का प्रयोग हो तो उनका सर्वथा नाश नहीं होता, परंतु क्षमाशील ब्राह्मण के द्वारा खण्डित होने से बचा हुआ क्षत्रिय का तेज किसी तेजस्‍वी ब्राह्मण पर प्रयुक्‍त हो तो वह उससे प्रतिहत होकर सर्वथा नष्‍ट हो जाता है, थोड़ा-सा भी शेष नहीं रह जाता। जैसे चरवाहा हाथ में डंडा लेकर सदा गौओं की रखवाली करता है, उसी प्रकार क्षत्रिय को उचित है कि वह ब्राह्मणों और वेदों की सदा रक्षा करें। राजा को चाहिए कि वह धर्मात्‍मा ब्राह्मणों की उसी तरह रक्षा करें, जैसे पिता पुत्रों की करता है। वह सदा इस बात की देख-भाल करता रहे कि उनके घर में जीवन-निर्वाह के लिये क्‍या है और क्‍या नहीं है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-17
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 8 श्लोक 18-29

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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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