भूमिदान का महत्त्व

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 62 में भूमिदान का महत्त्व का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। यह देना चाहिये, वह देना चाहिये, ऐसा कहकर यह श्रुति बड़े आदर के साथ दान का विधान करती है और शास्त्रों में राजाओं के लिये बहुत कुछ दान करने के लिये बात कही गयी है; परंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि सब दानों में सर्वोत्तम दान कौन-सा है?

भीष्म द्वारा सर्वोत्तम दान का वर्णन

भीष्म जी ने कहा- बेटा। सब दानों बढ़कर पृथ्वी दान बताया गया है। पृथ्वी अचल और अक्षय है। वह इस लोक में समस्त उत्तम भोगों को देने वाली है। वस्त्र, रत्न, पशु और धान-जौ आदि नाना प्रकार के अन्न- इन सबको देने वाली पृथ्वी ही है; अतः पृथ्वी का दान करेन वाला मनुष्य सदा समस्त प्राणियों में सबसे अधिक अभ्युदयशील होता है। युधिष्ठिर। इस जगत में जब तक पृथ्वी की आयु है तब तक भूमि दान करने बाला मुनष्य समृद्धिशाली रहकर सुख भोगता है। अतः यहाँ भूमिदान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। हमने सुना है कि जिन लोगों ने थोड़ी-सी भी पृथ्वी दान की है, वे सब लोग भूमि दान का ही पूर्ण फल पाकर उसका उपभोग करते हैं।

भूमिदान का महत्त्व

मनुष्य इहलोक और परलोक में अपने कर्म के अनुसार ही जीवन-निर्वाह करते हैं। भूमि एश्‍वर्यस्रूपा महादेवी है। वह दाता को अपना प्रिय बना लेती है। नृपश्रेष्ण। जो इस अक्षय भूमि का दान करता है वह दूसरे जन्म में मनुष्य होकर पृथ्वी का स्वामी होता है। धर्मशास्‍त्रों का सिद्वान्त है कि जैसा दान किया जाता है, वैसा ही भोग मिलता है। संग्राम में शरीर का त्याग करना तथा इस पृथ्वी का दान करना- ये दोनों ही कार्य क्षत्रियों का उत्तम लक्ष्मी का प्राप्ति कराने वाले होते हैं। दान में दी हुई पृथ्वी दाता को पवित्र कर देती है- यह हमने सुना है। कितना ही बड़ा पापाचारी, ब्रह्म हत्यारा और असत्यवादी क्यों न हो, दान में दी हुई पृथ्वी ही दाता के पाप को धो बहा देती है और वहीं उसे सर्वथा पाप मुक्त कर देती है। श्रेष्ठ पुरुष पापाचारी राजाओं से भी पृथ्वी का दान तो लेते हैं किंतु और किसी वस्तु दान नहीं लेना चाहते। पृथ्वी वैसी ही पावन वस्तु है जैसी माता। इस पृथ्वी देवी का सनातन गोपनीय नाम ‘प्रियदत्ता’ है। इसका दान अथवा ग्रहण दोनों ही दाता और प्रतिग्रहिता को प्रिय है; इसलिये इसका यह प्रथम नाम सबको प्रिय है। जो पृथ्वीपति विद्वान ब्राह्मणों का इस पृथ्वी का दान देता है वह राजा इस दान के प्रभाव से पुनः राज्य प्राप्त करता है। भूमण्डल में यह पृथ्वी दान सबको प्रिय है। वह पुनर्जन्म पाकर राजा के समान ही होता है, इसमें संशय नहीं है। अतः राजा को चाहिये कि वह पृथ्वी पर अधिकार पाते ही उसमें से कुछ ब्राह्मणों को दान करे। जो जिस भूमि का स्वामी नहीं है, उसे उस पर किसी तरह अधिकार नहीं करना चाहिये तथा अयोग्य पात्र को भूमिदान नहीं ग्रहण करना चाहिये। जिस भूमि को दान में दे दिया गया हो उसे अपने उपयोग में नहीं लाना चाहिये। दूसरे जो भी लोग भावी जन्म में भूमि पाने की इच्छा करें, उन्हें इस जन्म में इसी तरह भूमि दान करना चाहिये। इसमें संशय नहीं है। जो छल-वल से श्रेष्ठ पुरुष की भूमि का अपहरण कर लेता है उसे भूमि की प्राप्ति नहीं होती।

श्रेष्ठपुरुषों को भूमि दान देने से दाता को उत्तम भूमि की प्राप्ति होती है तथा वह धर्मात्मा पुरुष इहलोक और परलोक में भी महानयश का भागी होता है। जो एक घर बनाने के लिये भूमि दान करता है, वह साठ हजार वर्षों तक ऊर्ध्वलोक में निवास करता है। तथा जो उतनी ही पृथ्वी का हरण कर लेता है, उसे उससे दूने अधिक काल तक नरक में रहना पड़ता है। राजन। ब्राह्मण जिसे श्रेष्ठ पुरुष की दी हुई भूमि की सदा ही प्रशंसा करते है, उसकी उस भूमि की राजा के शत्रु प्रशंसा नहीं करते। जीविका न होने के कारण मनुष्य क्लेश में पड़कर जो कुछ पाप कर डालता है, वह सारा पाप गोचर्म के बरावर भूमि-दान करने से धुल जाता है। जो राजा कठोर कर्म करने वाले तथा पाप परायण हैं, उन्हें पापों से मुक्त होने के लिये परम पवित्र एवं सबसे उत्तम भूमि का उपदेश देना चाहिये। प्राचीन काल के लोग सदा यह मानते रहे हैं कि जो अश्वमेध यज्ञ करता है अथवा जो श्रेष्ठ पुरुष को पृथ्वी दान करता है, इन दोनों में बहुत कम अन्तर है। दूसरा कोई पुण्य कर्म करके उसके फल के विषय में विद्वान पुरुषों को भी शंका हो जाये यह संभव है; किंतु एक मात्र यह सर्वोत्तम भूमि दान ही ऐसा सत्कर्म है जिसके फल के विषय में किसी को शंक नहीं हो सकती। जो महा बुद्धिमान पुरुष पृथ्वी का दान करते हैं वह सोना, चांदी, वस्त्र, मणि, मोती तथा रत्न- इन सबका दान कर देता है।[2] पृथ्वी का दान करने वाले पुरुष को तप, यज्ञ, विद्या, सुशीलता, लोभ का अभाव, सत्यवादिता, गुरुषुश्रूषा और देव आराधना- इन सबका फल प्राप्त हो जाता है। जो अपने स्वामी का भला करने के लिये रण भूमि में मारे जाकर शरीर त्याग देते हैं और जो सिद्व होकर ब्रह्मलोक पहुँच जाते हैं वे भी भूमि दान करने वाले पुरुष को लांघकर आगे नहीं बढ़़ने पाते। जैसे माता अपने बच्चे सदा दूध पिलाकर पालती है, उसी प्रकार पृथ्वी सब प्रकार के रस देकर भूमिदाता पर अनुग्रह करती है। काल की भेजी हुई मौत, दण्ड, तमोगण, रारूण अग्नि और अत्यंत भयंकर पाष- ये भूमि दान करने वाले पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकते हैं। जो पृथ्वी का दान करता है, वह शांत चित्त पुरुष पितृलोक में रहने वाले पितरों और देवलोक से आये हुए देवताओं को भी तृप्त कर देता है। दुर्बल, जीविका के बिना दुखी और भूख के कष्ट से मरते हुए ब्राह्मण को उपजाऊ भूमि दान करने वाला मनुष्य यज्ञ का फल पाता है। महाभाग। जैसे बछड़े के प्रति वात्सल्य भाव से भरी हुई गौ अपने थनों से दूध बहाती हुई उसे पिलाने के लिये दौड़ती है, उसी प्रकार ये पृथ्वी भूमिदान करने वाले को सुख पहुँचाने के लिये दौड़ती है। जो मनुष्य जोती-बोयी और उपजी हुई खेती से भरी भूमि का दान करता है अथवा विशाल भवन बनवाकर देता है, उसकी समस्त कामनाऐं पूर्ण हो जाती हैं। जो सदाचारी, अग्निहोत्री और उत्तम व्रत में संलग्न ब्राह्मण को पृथ्वी का दान करता है, वह कभी भारी विपत्ती में नहीं पड़ता है।[3]

परशुराम द्वारा काश्‍यप को पृथ्वी दान करने की कथा

जैसे चन्द्रमा की कला प्रतिदिन बढ़ती है, उसी प्रकार दान की हुई पृथ्वी में जितनी बार फसल पैदा होती है, उतना ही उसके पृथ्वी दान का फल बढ़ता जाता है। प्राचीन बातों को जानने वाले लोग भूमि की गायी हुई गाथाओं का वर्णन किया करते हैं, जिन्हें सुनकर जमदग्निनन्दन परशुराम ने काश्‍यप जी को सारी पृथ्वी दान कर दी थी। वह गाथा इस प्रकार है- (पृथ्वी कहती है-) ‘मुझे ही दान में दो, मुझे ही ग्रहण करो। मुझे देकर ही मुझे पाओगे; क्योंकि मनुष्य इस लोक में जो कुछ दान करता है, वही उसे इहलोक और परलोक में भी प्राप्त होता है’। जो ब्राह्मण श्राद्ध काल में पृथ्वी की गायी हुई वेद सम्मत इस गाथा का पाठ करता है वह ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है। अत्यन्त प्रबल कृत्या (मारण शक्ति) के प्रयोग से जो भय प्राप्त होता है, उसको शांत करने का सबसे महान साधन पृथ्वी का दान ही है। भूमि दान रूप प्रायश्चित करके मनुष्य अपने आगे-पीछे की दस पीढ़ियों को पवित्र कर देता है। जो वेद वाणी रूप इस भूमि गाथा को जानता है, वह भी अपनी दस पीढ़ियों को पवित्र कर देता है।

यह पृथ्वी सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति स्थान है और अग्नि इसका इधिष्ठाता देवता है। राजा को राज सिंहासन पर अभिषिक्त करने के बाद उसे तत्काल ही पृथ्वी की गायी हुई गाथा सुना देनी चाहिये; जिससे वह भूमि का दान करे और सत्पुरुषों के हाथ से उन्हें दी हुई भूमि छीन न ले। यह सारी कथा ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिये है। इस विषय में कोई संदेह नहीं है; क्योंकि राजा धर्म में कुशल हो, यह प्रजा के एश्‍वर्य (वैभव)- को सूचित करने वाला प्रथम लक्षण है। जिनका राजा धर्म को न जानने वाला और नास्तिक होता है, वे लोग न तो सुख से सोते हैं और न सुख से जागते ही हैं; अपितु उस राजा के दुराचार से सदैव उद्विग्न रहते हैं। ऐसे राजा के राज में बहुदा योग क्षेम नहीं प्राप्त होते। किंतु जिनका राजा बुद्धिमान और धार्मिक होता है, वे सुख से सोते और सुख से जागते हैं। उस राजा के शुभ राज्य और शुभ कर्मों से प्रजा वर्ग के लोग संतुष्ट रहते हैं। उस राज्य में सबके योगक्षेम का निर्वाह होता है, समय पर वर्षा होती है और प्रजा अपने शुभ कर्मों से समृद्धिशालिनी होती है। जो पृथ्वी का दान करता है, वही कुलीन, वही पुरुष, वही बन्धु, वही पुण्यात्मा, वही दाता और वही पराक्रमी है। जो वेद वेत्ता ब्राह्मण को धन-धान्य से सम्पन्न भूमि दान करते हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वी पर अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। जैसे भूमि में बोये हुए बीज खेती के रूप अंकुरित होते और अधिक अन्न पैदा करते हैं, उसी प्रकार भूमि दान करने से सम्पूर्ण कामनाऐं सफल होती हैं। सूर्य, वरुण, विष्णु, ब्रह्मा, चन्द्रमा, अग्नि और भगवान शंकर- ये सभी भूमि-दान करने वाले पुरुष का अभिनन्दन करते हैं।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-16
  2. अर्थात इन सभी दानों का फल प्राप्त कर लेता है
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 62 श्लोक 17-32
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 62 श्लोक 33-51

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मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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