- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 70 में ब्राह्मण के धन का अपहरण करने से होने वाली हानि के विषय में दृष्टान्त के रुप में राजा नृग के उपाख्यान का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
भीष्म द्वारा राजा नृग के महान कष्ट क वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीष्म जी कहते हैं- करूश्रेष्ठ। इस विषय में श्रेष्ठ पुरुष वह प्रसंग सुनाया करते हैं, जिसके अनुसार एक ब्राह्मण के धन को लेने के कारण राजा नृग को महान कष्ट उठाना पड़ा था। पार्थ। हमारे सुनने में आया है कि पूर्व काल में जब द्वारिकापुरी बस रही थी, उसी समय वहाँ घास और लताओं से ढका हुआ एक विशाल कूप दिखाई दिया। वहाँ रहने वाले यदुवंशी बालक उस कुऐं का जल पीने की इच्छा से बड़े परिश्रम के साथ उस घास-फूस को हटाने के लिये महान प्रयत्न करने लगे। इतने में ही उस कुऐ के ढके हुए जल में स्थित हुए एक विशालकाय गिरगिट पर उनकी दृष्टि पड़ी। फिर तो वे सहस्रों बालक उस गिरगिट को निकालने का यत्न करने लगे। गिरगिट का शरीर एक पर्वत के समान था। बालकों ने उसे रस्सियों और चमड़े की पट्टियों से बांधकर खींचने के लिये बहुत जोर लगाया परंतु वह टस-से-मस न हुआ। जब बालक उसे निकालने में सफल न हो सके, तब वे भगवान श्रीकृष्ण के पास गये। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से निवदेन किया- भगवन। एक बहुत बड़ा गिरगिट कुऐं में पड़ा है, जो कुऐं के सहारे आकाश को घेर कर वैठा है; पर उसको निकालने वाला कोई नहीं है। यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण उस कुऐं के पास गये उन्होंने उस गिरगिट को कुऐं से बाहर निकाला और अपने पावन हाथ के स्पर्श से राजा नृग का उद्धार कर दिया। इसके बाद उनसे परिचय पूछा। तब राजा ने उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा- प्रभो। पूर्व जन्म में मैं राजा नृग था, जिसने एक सहस्र यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उनकी ऐसी बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा- राजन। आपने तो सदा पुण्य कर्म ही किया था- पाप कर्म कभी नहीं किया, फिर आप ऐसी दुगर्ति में कैसे पड़ गये? बताईये क्यों आपको ऐसा कष्ट प्राप्त हुआ।
नरेश्वर। हमने सुना है कि पूर्वकाल में आपने ब्राह्मणों को पहले एक लाख गौऐं दान की। दूसरी बार सौ गौओं का दान किया। तीसरी बार पुनः सौ गौऐं दान में दी। चौथी बार आपने गौदान का ऐसा सिलसिला चलाया कि लगातार अस्सी लाख गौओं का दान कर दिया (इस प्रकार आपके द्वारा इक्यासी लाख दौ सौ गौऐं दान में दी गयी) आपके उन सब दानों का पुण्य फल कहाँ चला गया? तब राजा नृग ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- प्रभो। एक अग्निहोत्री ब्राह्मण परदेश चला गया था। उसके पास एक गाय थी, जो एक दिन अपने स्थान से भागकर मेरे गौओं के झुण्ड में आ मिली। ‘उस समय मेरे ग्वालों ने दान के लिये मंगायी गई एक हजार गौओं में उसकी भी गिनती कर दी और मैंने परलोक में मनाबांछित फल की इच्छा से वह गौ भी एक ब्राह्मण को दे दी। ‘कुछ दिनों बाद जब वह ब्राह्मण जब परदेश से लौटा, तब अपनी गाय ढूढने लगा, ढूढते-ढूढते जब वह गाय उसे दूसरे के घर मिली तब उस ब्राह्मण ने, जिसकी वह गौ पहले थी, उस दूसरे ब्राह्मण से कहा- यह गाय तो मेरी है। ‘फिर तो वे दोनों आपस में लड़ पड़े और अत्यन्त क्रोध में भरे मेरे पास आये। उनमें से एक ने कहा- महाराज। यह गौ मुझे आपने दान में दी है (और यह ब्राह्मण इसे अपनी बता रहा है)। दूसरे ने कहा- महाराज। वास्तव में यह मेरी गाय है। आपने उसे चुरा लिया है।
ब्राह्मण के धन का अपहरण करने से होने वाली हानि
तब मैंने दान लेने वाले ब्राह्मण से प्रार्थना पूर्वक कहा- मैं इस गाय के बदले आपको दस हजार गौऐं देता हूँ (आप इन्हें इनकी गाय वापस दे दीजिये)। यह सुनकर वह यों बोला महाराज। यह गौ देशकाल के अनुरूप, पूरा दूध देने वाली, सीधी-साधी और अत्यन्त दयालु स्वभाव की है। यह बहुत मीठा दूध देने वाली है। धन्य भाग्य जो यह मेरे घर आयी। यह सदा मेरे ही यहाँ रहे। ‘अपने दूध से यह गौ मेरे मातृहीन शिशु का प्रतिदिन पालन करती है; अतः मैं इसे कदापि नहीं दे सकता।’ यह कहकर वह उस गाय को लेकर चला गया। ‘तब मैंने उस दूसरे ब्राह्मण से याचना की- भगवन। उसके बदले में आप मुझझे एक लाख गौऐं ले लीजिये। ‘मधुसूदन। तब उस ब्राह्मण ने कहा- मैं राजाओं का दान नहीं लेता। मैं अपने लिये धन का उपार्जन करने में समर्थ हूँ मुझे तो शीघ्र मेरी वही गौ ला दीजिये। मैंने उसे सोना, चांदी, रथ और घोड़े- सब कुछ देना चाहा परंतु वह उत्तम ब्राह्मण कुछ न लेकर तत्काल चुपचाप चला गया। ‘इसी बीच में काल की प्रेरणा से मैं मृत्यु को प्राप्त हुआ और पितृलोक में पहुँच कर धर्मराज से मिला। ‘यमराज ने मेरा आदर-सत्कार करके मुझसे यह बात कही- राजन। तुम्हारे पुण्य कर्मों की तो गिनती ही नहीं है। परंतु अनजान में तुमसे एक पाप भी बन गया है। उस पाप को तुम पीछे भोगो या पहले ही भोग लो, जैसी तुम्हारी इच्छा हो, करो।
आपने प्रजा के धन-जन की रक्षा के लिये प्रतिज्ञा की थी; किंतु उस ब्राह्मण की गाय खो जाने के कारण आपकी वह प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। दूसरी बात यह है कि आपने ब्राह्मण के धन का भूल से अपहरण कर लिया था। इस तरह आपके द्वारा दो तरह का अपराध हो गया है। ‘तब मैंने धर्मराज से कहा- प्रभो। मैं पहले पाप ही भोग लूंगा। उसके बाद पुण्य का उपभोग करूंगा। इतना कहना था कि मैं पृथ्वी पर गिरा। ‘गिरते समय उच्च स्वर से बोलते हुए यमराज की यह बात मेरे कानों में पड़ी- ‘महाराज। एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण होने पर तुम्हारे पाप कर्म का भोग समाप्त होगा। उस समय जनार्दन भगवान श्रीकृष्ण आकर तुम्हारा उद्धार करेंगे और तुम अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से प्राप्त हुए सनातन लोकों में जाओगे’। ‘कुऐं में गिरने पर मैंने देखा, मुझे तिर्यग्योनि (गिरगिट की देह) मिली है और मेरा सिर नीचे की ओर है। इस योनि में भी मेरी पूर्वजन्मों की स्मरणशक्ति ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है। ‘श्रीकृष्ण। आज आपने मेरा उद्धार कर दिया। इसमें आपके तपोबल के सिवा और क्या कारण हो सकता है। अब मुझे आज्ञा दीजिये, मैं स्वर्गलोक को जाऊंगा’। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें आज्ञा दे दी और वे शत्रुदमन नरेश उन्हें प्रणाम करके दिव्य मार्ग का आश्रय ले स्वर्गलोक को चले गये। भरतश्रेष्ठ। कुरुनन्दन। राजा नृग के स्वर्गलोक को चले जाने पर वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक का गान किया- ‘समझदार मनुष्य को ब्राह्मण के धन का अपहरण नहीं करना चाहिये। चुराया हुआ ब्राह्मण का धन चोर का उसी प्रकार नाश कर देता है, जैसे ब्राह्मण की गौ ने राजा नृग का सर्वनाश किया था। कुन्तीनन्दन। यदि सज्जन पुरुष सत्पुरुषों का संग करें तो उनका वह संग व्यर्थ नहीं जाता। देखा, श्रेष्ठ पुरुष के समागम के कारण राजा नृग का नरक से उद्धार हो गया।
युधिष्ठिर। गौओं का दान करने से जैसा उत्तम फल मिलता है, वैसे ही गौओं से द्रोह करने पर बहुत बड़ा कुफल भोगना पड़ता है; इसलिये गौओं को कभी कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिये।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
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| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
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| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
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| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
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| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
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| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
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| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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