- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 145 में अन्न, सुवर्ण और गौदान के माहात्म्य का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
शिव-उमा संवाद
उमा ने पूछा- भगवन! मनुष्यों को धर्म के उद्देश्य से किन-किन वस्तुओं का दान करना चाहिये? यह मैं सुनना चाहती हूँ। आप मुझे बताने की कृपा करें।
श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! निरन्तर धर्म कार्य तथा नैमित्तिक कर्म करने चाहिये। अन्न, निवासस्थान, दीप, जल, तृण, ईंधन, तेल, गन्ध, ओषधि, तिल और नमक- ये तथा और भी बहुत-सी वस्तुएँ निरन्तर दान करने की वस्तुएँ बतायी गयी हैं। अन्न मनुष्यों का प्राण है। जो अन्न दान करता है, वह प्राणदान करने वाला होता है। अतः मनुष्य विशेष रूप से अन्न का दान करना चाहता है। अनुरूप ब्राह्मण को जो अभीष्ट अन्न प्रदान करता है, वह परलोक में अपने लिये अनन्त एवं उत्तम निधि की स्थापना करता है। रास्ते का थका-माँदा अतिथि यदि घर पर आ जाय तो यत्नपूर्वक उसका आदर-सत्कार करे, क्योंकि वह अतिथि-सत्कार मनोवाञ्छित फल देने वाला यज्ञ है। जिसका पुत्र अथवा पौत्र किसी श्रोत्रिय ब्राह्मण को भोजन कराता है, उसके पितर उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जैसे अच्छी वर्षा होने से किसान। चाण्डाल और शूद्रों को भी दिया हुआ अन्नदान निन्दित नहीं होता। अतः ईर्ष्या छोड़कर सब प्रकार के प्रयत्न द्वारा अन्नदान करना चाहिये। अनिन्दिते! अन्नदान से जो लोक प्राप्त होते हैं उनका वर्णन करता हूँ। उन महामना दानी पुरुषों को मिले हुए भवन देवलोक में प्रकाशित होते हैं। उन भव्य भवनों में सैकड़ों तल्ले हैं। उनके भीतर जल और वन हैं।[1]
वे वैदूर्यमणि के तेज से प्रकाशित होते हैं। उनमें सोने और चाँदी-जैसी चमक है। उन गृहों के अनेक रूप हैं। नाना प्रकार के रत्नों से उनका निर्माण हुआ है। वे चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल और क्षुद्र घण्टिकाओं की झालरों से सुशोभित हैं। किन्हीं-किन्हीं की कान्ति प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होती है। उन महात्माओं के वे भवन स्थावर भी हैं और जंगम भी हैं। उनमें इच्छानुसार भक्ष्य-भोज्य पदार्थ उपलब्ध होते हैं। उत्तम शय्या और आसन बिछे रहते हैं। वहाँ सम्पूर्ण मनोवांछित फल देने वाले कल्पवृक्ष प्रत्येक घर में विराजमान हैं। वहाँ बहुत-सी बावडियाँ, कुएँ और सहस्रों जलाशय हैं। प्राणस्वरूप अन्न-दान करने वाले लोगों को स्वर्ग में जो भाँति-भाँति के विचित्र भवन प्राप्त होते हैं, वे रोग-शोक से रहित और नित्य (चिरस्थायी) हैं।
सुवर्ण का माहात्म्य वर्णन
जगत में सदा अन्न और जल का दान करने वाले मनुष्य सूर्य, चन्द्रमा तथा प्रजापति ब्रह्मा जी के लोकों में जाते हैं। वे वहाँ चिरकाल तक अप्सराओं के साथ विहार करके पुनः मनुष्यलोक में जन्म लेते और समस्त कल्याणकारी गुणों से संयुक्त होते हैं। वे सबल शरीर से सम्पन्न, नीरोग, चिरजीवी, कुलीन, बुद्धिमान तथा अन्नदाता होते हैं। अतः अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले पुरुष को सदा, सर्वत्र, सबके लिये, सब समय विशेषरूप से अन्नदान करना चाहिये। सुवर्णदान परम उत्तम, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला और महान कल्याणकारी है। इसलिये तुमसे क्रमशः उसी का यथावत्रूप से वर्णन करूँगा। दिया हुआ सुवर्ण का दान क्रूर और पापाचारी को भी प्रकाशित कर देता है। जो शुद्ध हृदय वाले मनुष्य श्रोत्रिय ब्राह्मणों को सुवर्ण का दान करते हैं, वे समस्त देवताओं को तृप्त कर देते हैं। यह वेद का मत है।
अग्नि सम्पूर्ण देवताओं के स्वरूप हैं और सुवर्ण को भी अग्निरूप ही बताया जाता है। इसलिये सुवर्ण के दान से समस्त देवता तृप्त होते हैं। अग्नि के अभाव में उसकी जगह सुवर्ण को स्थापित करते हैं। अतः सुवर्ण का दान करने वाले पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेते हैं। सुवर्ण का दान करके मनुष्य शीघ्र ही सूर्य एवं अग्नि के नाना प्रकार के मंगलकारी लोकों में प्रवेश करते हैं, इसमें संशय नहीं है। केवल सुवर्ण की अपेक्षा उसका आभूषण बनवाकर दान देना श्रेष्ठ माना गया है। अतः दानकाल में ब्राह्मण को सोने के आभूषण से विभूषित करके भोजन करावे। जो यह अद्भुत एवं उत्कृष्ट सुवर्ण-दान करता है, वह पुनर्जन्म लेने पर निश्चय ही सुन्दर शरीर, कान्ति, बुद्धि और कीर्ति पाता है। अतः मनुष्यों को अपनी शक्ति के अनुसार पृथ्वी पर सुवर्णदान अवश्य करना चाहिये। संसार में इससे बढ़कर कोई दान नहीं है। सुवर्णदान करके मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है। अनिन्दिते! इसके बाद मैं गोदान का वर्णन करूँगा।
प्रिये! इस संसार में गौओं के दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। पूर्वकाल में लोक सृष्टि की इच्छा वाले स्वयम्भू ब्रह्मा जी ने समस्त प्राणियों की जीवन-वृत्ति के लिये गौओं की सृष्टि की थी। इसलिये वे सबकी माताएँ मानी गयी हैं। गौएँ सम्पूर्ण जगत में ज्येष्ठ हैं। वे लोगों को जीविका देने के कार्य में प्रवृत्त हुई हैं। मेरे अधीन हैं और चन्द्रमा के अमृतमय द्रव से प्रकट हुई हैं। वे सौम्य, पुण्यमयी, कामनाओं की पूर्ति करने वाली तथा प्राणदायिनी हैं। इसलिये पुण्याभिलाषी मनुष्यों के लिये पूजनीय हैं।[2]
जो काँस के दुग्धपात्र और सोने से मढ़े हुए सींगों वाली कपिला गौ का वस्त्रसहित दान करता है, वह अपने पुत्रों, पौत्रों तथा सातवीं पीढ़ी तक के समस्त कुल का परलोक में उद्धार कर देता है। जो अपने ही यहाँ पैदा हुई हों, खरीदकर लायी गयी हों, जुए में जीत ली गयी हों, बदले में दूसरा कोई प्राणी देकर खरीदी गयी हों, जल हाथ में लेकर संकल्पपूर्वक दी गयी हों, अथवा युद्ध में बलपूर्वक जीती गयी हों, संकट से छुड़ाकर लायी गयी हों, या पालन-पोषण के लिये आयी हों- इन द्वारों से प्राप्त हुई गौओं का दान करना चाहिये।
गौदान का उपाख्यान
जीविका के बिना दुर्बल, अनेक पुत्र वाले, अग्निहोत्री, श्रोत्रिय ब्राह्मण को दूध देने वाली नीरोग गाय का दान करके दाता सर्वोत्तम लोकों को प्राप्त होता है। जो क्रूर, कृतघ्न, लोभी, असत्यवादी और हव्य-कव्य से दूर रहने वाला हो, ऐसे मनुष्य को किसी तरह गौएँ नहीं देनी चाहिये। जो मनुष्य समान रंग के बछड़े वाली, सीधी-सादी एवं दूध देने वाली गाय को वस्त्र ओढ़ाकर ब्राह्मण को दान करता है, वह सोमलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो समान रंग के बछड़े वाली, सीधी-सादी एवं दूध देने वाली काली गौ को वस्त्र ओढ़ाकर उसका ब्राह्मण को दान करता है, वह जल के स्वामी वरुण के लोकों में जाता है। जिसके शरीर का रंग सुनहरा, आँखें, भूरी, साथ में बछड़ा और काँस की दुहानी हो, उस गौ को वस्त्र ओढ़ाकर दान करने से मनुष्य कुबेर के धाम में जाते हैं। वायु से उड़ी हुई धूलि के समान रंगवाली, बछड़े सहित, दूध देने वाली गाय को कपड़ा ओढ़ाकर काँस के दुहानी के साथ दान देकर दाता वायुलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो समान रंग के बछड़े वाली, सीधी-सादी, धौरी एवं दूध देने वाली धेनु को वस्त्र से आच्छादित करके उसका दान करता है, वह अग्निलोक में प्रतिष्ठित होता है।
जो लोग महामनस्वी श्रोत्रिय ब्राह्मणों को नौजवान, बड़े सींगवाले, बलवान, श्यामवर्ण, एक सौ गौओं सहित यूथपति गवेन्द्र (साँड़) को पूर्णतः अलंकृत करके उसे श्रेष्ठ ब्राह्मण के हाथ में दे देते हैं, वे बारंबार जन्म लेने पर ऐश्वर्य के साथ ही जन्म लेते हैं। गौओं के मल-मूत्र से कभी उद्विग्न नहीं होना चाहिये और उनका मांस कभी नहीं खाना चाहिये। सदा गौओं का भक्त होना चाहिये। जो पवित्र भाव से रहकर एक वर्ष तक दूसरे की गाय को एक मुट्ठी ग्रास खिलाता है और स्वयं आहार नहीं करता, उसका वह व्रत सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला होता है। गौओं के पास प्रतिदिन दोनों समय उनके कल्याण की बात कहनी चाहिये। कभी उनका अनिष्ट-चिन्तन नहीं करना चाहिये। ऐसा धर्मज्ञ पुरुषों का मत है। गौएँ परम पवित्र वस्तु हैं, गौओं में सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं। अतः किसी तरह गौओं का अपमान नहीं करना चाहिये, क्योंकि वे सम्पूर्ण जगत की माताएँ हैं। इसीलिये गौओं का दान सबसे उत्कृष्ट बताया जाता है। गौओं की पूजा तथा उनके प्रति की हुई भक्ति मनुष्य की आयु बढ़ाने वाली होती है। इसके बाद मैं भूमिदान का महत्त्व बतलाऊँ। भूमिदान का महान फल है। संसार में भूमिदान के समान दूसरा कोई दान नहीं है। यही धर्मात्मा पुरुषों का निश्चय है।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-43
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-44
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-45
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| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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