भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 84 में भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देने का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने कहा- आपने सब मनुष्यों के लिये विशेषतः धर्म पर दृष्टि रखने वाले नरेशों के लिये परम उत्तम गोदान का वर्णन किया। राज्य सदा ही दुःख रूप है। जिन्होंने अपना मन वश में नहीं किया है, उनके लिये राज्य को सुरक्षित रखना बहुत ही कठिन है। इसलिये प्रायः राजाओं को शुभगति नहीं प्राप्त होती। उनमें वे ही पवित्र होते हैं जो नियमपूर्वक पृथ्वी का दान करते हैं। कुरुनन्दन! आपने मुझसे समस्त धर्मों का वर्णन किया है। इसी तरह राजा नृग ने जो गोदान किया तथा नाचिकेत ऋषि ने जो गौओं का दान और पूजन किया था, वह सब आपने पहले ही कहा और निर्देष किया है। वेद और उपनिषदों ने भी प्रत्येक कर्म में दक्षिणा का विधान किया है। सभी यज्ञों में भूति, गौ और सुवर्ण की दक्षिणा बताई गयी है। इनमें सुवर्ण सबसे उत्तम दक्षिणा है, ऐसा श्रुति का वचन है। अतः पितामह! मैं इस विषय को यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूँ।

सुवर्ण क्या है? कब और किस तरह से इसकी उत्पत्ति हुई? सुवर्ण का उपाधान क्या है? इसका देवता कौन है? इसके दान का फल क्या है? सुवर्ण क्यों उत्तम कहलाता है? मनीषी विद्वान सुवर्ण दान का अधिक आदर क्यों करते हैं? तथा यज्ञों, कर्मों में दक्षिणा के लिये सुवर्ण की प्रशंसा क्यों की जाती है? पितामह! क्यों सुवर्ण पृथ्वी और गौंओं से भी पावन और श्रेष्ठ है? दक्षिणा के लिये सबसे उत्तम वह क्यों माना गया है? यह मुझे बताईये।

भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देने का वर्णन

भीष्म जी ने कहा- राजन! ध्यान देकर सुनो। सुवर्ण की उत्पत्ति का कारण बहुत विस्तृत है। इस विषय में मैंने जो अनुभव किया है, उसके अनुसार तुम्हें सब बातें बता रहा हूँ। मेरे महातेजस्वी पिता महाराज शान्तनु का जब देहावसान हो गया तब मैं उनका श्राद्ध करने के लिये गंगाद्वार तीर्थ हरिद्वार में गया। बेटा! वहाँ पहुँचकर मैंने पिता का श्राद्धकर्म आरंभ किया। इस कार्य में वहाँ उस समय मेरी माता गंगा ने भी बड़ी सहायता की। तदनन्तर अपने सामने बहुत-से सिद्व-महर्षियों को बैठाकर मैंने जलदान आदि सारे कार्य आरंभ किये। एकाग्रचित्त होकर शास्त्रोक्त विधि से पिण्डदान के पहले के सब कार्य समाप्त करके मैंने विधिवत पिण्डदान देना आरंभ किया। प्रजानाथ! इसी समय पिण्डदान के लिये जो कुश विछाये गये थे, उन्हें भेदकर एक बड़ी सुन्दर बांह बाहर निकली। उस विशाल भुजा में बाजूबंद आदि अनेक आभूषण शोभा पा रहे थे। उसे ऊपर उठी देख मुझे बड़ा आश्‍चर्य हुआ। भरतश्रेष्ठ! साक्षात मेरे पिता ही पिण्ड का दान लेने के लिये उपस्थित थे।

प्रभो! किंतु जब मैंने शास्त्रीय विधि पर विचार किया, तब मेरे मन में सहसा यह बात स्मरण हो आई कि मनुष्य के लिये हाथ पर पिण्ड देने पर वेद में विधान नहीं है। पितर साक्षात प्रकट होने पर कभी मनुष्य के हाथ से पिण्ड लेते भी नहीं हैं। शास्त्र की आज्ञा तो यही है कि कुशों पर पिण्डदान करें। भरतश्रेष्ठ! यह सोचकर मैंने पिता के प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले हाथ का आदर नहीं किया। शास्त्र को ही प्रमाण मानकर उसकी पिण्डदान सम्बन्धी सूक्ष्म विधि का ध्यान रखते हुए कुशों पर ही सब पिण्डों का दान किया। नरश्रेष्ठ! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैंने शास्त्रीय मार्ग का अनुसरण करके ही सबकुछ किया। नरेश्‍वर! तदनन्तर मेरे पिता की वह बांह अदृश्‍य हो गयी। तदनन्तर स्वप्न में पितरों ने मुझे दर्शन दिया और प्रषन्नतापूर्वक मुझसे कहा- भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे इस शास्त्रीय ज्ञान से हम बहुत प्रसन्न हैं; क्योंकि उसके कारण तुम्हें धर्म के विषय में मोह नहीं हुआ। ‘पृथ्वीनाथ। तुमने यहाँ शास्त्र को प्रमाण मानकर, आत्मा, धर्म, शास्त्र, वेद, पितृगण, ऋषिगण, गुरु, प्रजापति और ब्रह्मा जी- इन सबका मान बढ़ाया है तथा जो लोग धर्म में स्थित हैं उन्हें भी तुमने अपना आदर्श दिखाकर विचलित नहीं होने दिया है। ‘भरतश्रेष्ठ! यह सब कार्य तो तुमने बहुत उत्तम किया है; किंतु अब हमारे कहने से भूमिदान और गोदान के निष्क्रिय रूप से कुछ सुवर्णदान भी करो।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 84 श्लोक 1-32

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दान-धर्म-पर्व
युधिष्ठिर की भीष्म से उपदेश देने की प्रार्थना | भीष्म द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन | प्रजापति मनु के वंश का वर्णन | अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय | विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति विषयक युधिष्ठिर का प्रश्न | अजमीढ के वंश का वर्णन | विश्वामित्र के जन्म की कथा | विश्वामित्र के पुत्रों के नाम | इन्द्र और तोते का स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुष की श्रेष्ठता विषयक संवाद | दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का वर्णन | कर्मों के फल का वर्णन | श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा | ब्राह्मण विषयक सियार और वानर के संवाद का वर्णन | शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा | लक्ष्मी के निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानों का वर्णन | भीष्म का युधिष्ठिर से कृतघ्न की गति और प्रायश्चित का वर्णन | स्त्री-पुरुष का संयोग विषयक भंगास्वन का उपाख्यान | भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश | भीष्म का श्रीकृष्ण से महादेव का माहात्म्य बताने का अनुरोध | श्रीकृष्ण द्वारा महात्मा उपमन्यु के आश्रम का वर्णन | उपमन्यु का शिव विषयक आख्यान 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मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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