नहुष का पतन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 100 में नहुष के पतन का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर-भीष्म संवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! राजा नहुष पर कैसे विपत्ति आयी? वे कैसे पृथ्वी पर गिराये गये और किस तरह वे इन्द्र पद से वंचित हो गये? इसे आप बताने की कृपा करें।

भीष्म जी ने कहा- राजन। जब महर्षि भृगु और अगस्त्य उपर्युक्त वार्तालाप कर रहे थे। उस समय महामन नहुष के घर में दैवी और मानषी सभी क्रियाऐं चल रही थीं। दीपदान समस्त उपकरणों सहित अन्नदान, बलि कर्म एवं नाना प्रकार के स्नान-अभिषेक आदि पूर्ववत चालू थे। देवलोक तथा मनुष्य लोक में विद्वानों ने जो सदाचार बताये हैं, वे सब महामना देवराज नहुष के यहाँ होते रहते थे।

राजेन्द्र! गृहस्थ के घर यदि उन सदाचारों का पालन हो तो वे गृहस्थ सर्वथा उन्नतिशील होते हैं, धूपदान, दीपदान तथा देवताओं को किये गये नमस्कार आदि से भी गृहस्थों की ऋद्वि-सिद्धि बढ़ती है। जैसे तैयार हुई रसोई में से पहले अतिथि को भोजन दिया जाता है, उसी प्रकार घर में देवताओं के लिये अन्न की बलि दी जाती है। जिससे देवता प्रसन्न होते हैं। बलिकर्म करने पर गृहस्थ को जितना संतोष होता है, उससे सौगुनी प्रीति देवताओं को होती है। इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष अपने लिये लाभदायक समझकर देवताओं को नमस्कार सहित धूपदान और दीपदान करते हैं। विद्वान पूरूष जल से स्नान करके देवता आदि के लिये नमस्कार पूर्वक जो तर्पण आदि कर्म करते हैं, उससे देवता, महाभाग पितर तथा तपोधन ऋषि संतुष्ट होते हैं तथा विधिपूर्वक पूजित होकर घर के सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होते हैं।

इसी विचार धारा का आश्रय लेकर राजा नहुष ने महान देवेन्‍द्र पद पाकर यह अद्भुत पुण्यकर्म सदा चालू रखा था। किंतु कुछ काल के पश्‍चात जब उनके सौभाग्य-नाश का अवसर उपस्थित हुआ, तब उन्होंने इन सब बातों की अवहेलना करके ऐसा पाप कर्म आरम्भ कर दिया। बल के घमण्ड में आकर देवराज नहुष उन सत्कर्मों से भ्रष्ट हो गये। उन्होंने धूपदान, दीपदान और जलदान की विधि का यथावत रूप से पालन करना छोड़ दिया। उसका फल यह हुआ कि उनके यज्ञ स्थल में राक्षसों ने डेरा डाल दिया। उन्हीं से प्रभावित होकर महामुनि नहुष ने मुस्कराते हुए मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य को सरस्वती तट से तुरंत अपना रथ ढ़ोने के लिये बुलाया। तब महातेजस्वी भृगु ने मित्रावरुणकुमार अगस्त्य जी से कहा- ‘मुने। आप अपनी आंखें मूंद लें मैं आपकी जटा में प्रवेश करता हूँ।’

महर्षि अगस्त्य आंखे मूंदकर काष्ठ की तरह स्थिर हो गये। अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले महातेजस्वी भृगु ने राजा को स्वर्ग से नीचे गिराने के लिये अगस्त्य जी की जटा मे प्रवेश किया। इतने में ही देवराज नहुष ऋषि को अपना वाहन बनाने के लिये उनके पास पहुँचे। प्रजानाथ। तब अगस्त्य जी ने देवराज से कहा- राजन। मुझे शीघ्र रथ में जोतिये और बताइयें मैं आपको किस स्थान पर ले चलूं। देवेश्‍वर! आप जहाँ कहेंगे वहीं आपको ले चलूंगा। उनके ऐसा कहने पर नहुष ने मुनि को रथ में जोत दिया। यह देख उनकी जटा के भीरत बैठे हुए भृगु बहुत प्रसन्न हुए। उस समय भृगु ने नहुष का साक्षात्कार नहीं किया। [1]

भृगु द्वारा शाप

अगस्त्य मुनि महामना नहुष को मिले हुए वरदान का प्रभाव जानते थे, इसलिये उसके द्वारा रथ में जोते जाने पर भी वे कुपित नहीं हुए। भारत! राजा नहुष ने चाबुक मारकर हांकना आरम्भ किया तो भी उन धर्मात्मा मुनि को क्रोध नहीं आया। तब कुपित हुए देवराज ने महात्मा अगस्त्य के सिर पर बायें पैर से प्रहार किया। उनके मस्तक पर चोट होते ही जटा के भीतर बैठे हुए महर्षि भृगु अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने पापआत्मा नहुष को इस प्रकार शाप दिया- ‘ओ दुर्मते। तुमने इन महामुनि के मस्तक में क्रोध पूर्वक लात मारी है, इसलिये तू शीघ्र ही सर्प होकर पृथ्वी पर चला जा।

भरतश्रेष्ठ। भृगु नहुष को दिखाई नहीं दे रहे थे। उनके इस प्रकार शाप देने पर नहुष सर्प होकर पृथ्वी पर गिरने लगा। पृथ्वीनाथ यदि नहुष भृगु को देख लेते तो उनके तेज से प्रतिहत होकर वे उन्हें स्वर्ग से नीचे गिराने में समर्थ न होते। महाराज। नहुष ने जो भिन्न-भिन्न प्रकार के दान किये थे, तप और नियमों का अनुष्ठान किया था, उनके प्रभाव से वे पृथ्वी पर गिरकर भी पूर्वजन्म की स्मृति से बंचित नहीं हुए। उन्होंने भृगु को प्रसन्न करते हुए कहा- प्रभो। मुझको मिले हुए शाप को अन्त होना चाहिये। महाराज! तब अगस्त्य ने दया से द्रवित होकर उनके शाप का अन्त करने के लिये भृगु को प्रसन्न किया। तब कृपायुक्त हुऐ भृगु ने उस शाप का अन्त इस प्रकार निश्चित किया।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 100 श्लोक 1-20
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 100 श्लोक 21-41

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माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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