शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 10 में शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर एवं भीष्‍म का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि कोई मित्रता या सौहार्द के सम्‍बन्‍ध से किसी नीच जाति के मनुष्‍य को उपदेश देता है तो उस राजर्षि को दोष लगेगा या नहीं? मैं इस बात को यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ। आप इसका विशदरूप से विवेचन करें, क्‍योंकि धर्म की गति सूक्ष्‍म है, जहाँ मनुष्‍य मोह में पड़ जाते हैं। भीष्‍म जी ने कहा- राजन! इस विषय में पूर्वकाल में ऋषियों के मुख से जैसा मैंने सुना है, उसी क्रम से बताउंगा, तुम ध्‍यान देकर सुनों।

अनधिकारी को उपदेश देने से हानि

किसी भी नीच जाति के मनुष्‍य को उपदेश नहीं देना चाहिए। उसे उपदेश देने पर उपदेशक आचार्य के लिये महान दोष बताया जाता है। भरतभूषण राजा युधिष्ठिर! इस विषय में एक दृष्‍टांत सुनों, जो दु:ख में पड़े हुए एक नीच जाति के पुरुष को उपदेश देने से संबंधित है। हिमालय के सुन्‍दर पार्श्‍व भाग में, जहाँ बहुत-से ब्राह्मणों के आश्रम बने हुए है, यह वृतान्‍त घटित हुआ था। उस प्रदेश में एक पवित्र आश्रम है जहाँ नाना प्रकार के हरे-भरे वृक्ष शोभा पाते हैं। नाना प्रकार की लता-बेलें वहाँ छायी हुई हैं। मृग और पक्षी उस आश्रम का सेवन करते हैं। सिद्ध और चारण वहाँ निवास करते हैं। उस रमणीय आश्रम के आस-पास का वन सुन्‍दर पुष्‍पों से सुशोभित है। बहुत-से व्रत परायण तपस्‍वी उस आश्रम का सेवन करते हैं। कितने ही सूर्य और अग्नि के समान तेजस्‍वी महाभाग ब्राह्मण वहाँ भरे रहते हैं। भरतश्रेष्‍ठ! नियम और व्रत से सम्‍पन्‍न, तपस्‍वी, दीक्षित, मिताहारी ओर जितात्‍मा मुनियों से वह आश्रम भरा रहता है। भरतभूषण! वहाँ सब ओर वेदाध्‍यन की ध्‍वनि गूंजती रहती है। बहुत-से वालखिल्‍य एवं सन्‍यासी उस आश्रम का सेवन करते हैं। उसी आश्रम में कोई दयालु शूद्र बड़ा उत्‍साह करके आया। वहाँ रहने वाले तपस्‍वी ऋषियों ने उसका बड़ा आदर-सत्‍कार किया। भरतनन्‍दन! उस आश्रम के महातेजस्‍वी देवोपम मुनियों को नाना प्रकार की दीक्षा धारण किये देख उस शूद्र को बड़ा हर्ष हुआ। भारत! भरतभूषण! उसके मन मेंवहाँ तपस्‍या करने का विचार उत्‍पन्‍न हुआ, अत: उसके कुलपति के पैर पकड़ कर कहा- 'द्विजश्रेष्‍ठ! मैं आपकी कृपा से धर्म का ज्ञान प्राप्‍त करना चाहता हूँ। अत: भगवन! आप मुझे विधिवत संन्‍यासी की दीक्षा दे दें'। 'भगवन्! साधुशि‍रोमणि! मैं वर्णों में सबसे छोटा शूद्र जाति का हूँ ओर यहीं रहकर संतों की सेवा करना चाहता हूं, अत: मुझ शरणागत पर आप प्रसन्‍न हों'।

कुलपति ने कहा- इस आश्रम में कोई शूद्र संन्‍यास का चिन्‍ह धारण करके नहीं रक सकता। यदि तुम्‍हारा विचार यहाँ रहने का हो तो यों ही रहो और साधु-महात्‍माओं की सेवा करो। सेवा से ही तुम उत्‍तम लोक प्राप्‍त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है।

शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा

भीष्‍म जी कहते हैं- नरेश्‍वर! मुनि के ऐसा कहने पर शूद्र ने सोचा, यहाँ मुझे क्‍या करना चाहिए? मेरी श्रद्धा तो संन्‍यास-धर्म के अनुष्‍ठा के लिये ही है। अच्‍छा, एक बात समझ में आयी। शूद्र के लिये ऐसा ही विधान हो तो रहे। मैं तो वही करूंगा जो मुझे प्रिय लगता है- ऐसा विचार कर उसने उस आश्रम से दूर जाकर एक पर्णकुटी बना ली। भरतश्रेष्‍ठ! वहाँ यज्ञ के लिये वेदी, रहने के लिये स्‍थान और देवालय बनाकर मुनि की भाँति नियमपूर्वक रहने लगा। वह तीनों समय नहाता, नियमों का पालन करता, देव-स्‍थानों में पूजा चढ़ाता, अग्नि में आहुति देता और देवता की पूजा करता था। वह मानसिक संकल्‍पों का नियंत्रण (चित्‍तवृतियों का निरोध) करते हुए फल खाकर रहता और इन्द्रियों को काबू में रखता था। उसके यहाँ जो अन्‍न और फल उपस्थित रहता, उन्‍हीं के द्वारा प्रतिदिन आये हुए अतिथियों का यथोचित सत्‍कार करता था। इस प्रकार रहते हुए उस शूद्र मुनि को बहुत समय बीत गया। एक दिन एक मुनि सत्‍संग की दृष्टि से उसके आश्रम पर पधारे। उस शूद्र ने विधिवत स्‍वागत-सत्‍कार करके ऋषि का पूजन किया और उन्‍हें संतुष्‍ट कर दिया। भरतभुषण नरश्रेष्‍ठ! तत्‍पश्‍चात उसने अनुकूल बातें करके उनके आगमन का वृतान्‍त पूछा। तब से कठोर व्र‍त का पालन करने वाले वे परम तेजस्‍वी धर्मात्‍मा ऋषि अनेक बार उस शूद्र के आश्रम पर मिलन के लिये आये। भरतश्रेष्‍ठ! एक दिन उस शूद्र ने उन तपस्‍वी मुनि से कहा- ‘मैं पितरों का श्राद्ध करूंगा। आप उसमें अनुग्रह कीजिये’। भरतभूषण नरेश! तब ब्राह्मण ने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर उसका निमन्‍त्रण स्‍वीकार कर लिया। तत्‍पश्‍चात शूद्र नहा-धोकर शुद्ध हो उन ब्रह्मर्षि के पैर धोन के लिये जल ले आया। भरतर्षभ! तदनन्‍तर वह जंगली कुशा, अन्‍न आदि ओषधि, पवित्र आसन और कुशकी चटाई ले आया। उसने दक्षिण दिशा में जाकर ब्राह्मण के लिये पश्चिमाग्र चटाई बिछा दी। यह शास्‍त्र के विपरीत अनुचित आचार देखकर ऋषि ने शूद्र से कहा-‘तुम इस कुश की चटाई का अग्रभाग तो पूर्व दिशा की ओर करो और स्‍वयं शुद्ध होकर उत्‍तराभिमुख बैठो। ‘ऋषि ने जो-जो कहा, शूद्र ने वह सब किया। बुद्धिमान् शूद्र ने कुश, अर्ध्‍य आदि तथा हव्‍य-काव्‍य की विधि- सब कुछ उन तपस्‍वी मुनि के उपदेश के अनुसार ठीक-ठीक किया। ऋषि के द्वारा पितृकार्य विधिवत सम्‍पन्‍न हो जाने पर वे ऋषि शूद्र से विदा लेकर चले गये और वह शूद्र धर्म मार्ग में स्थित हो गया। तदनन्‍तर दीर्घकाल तक तपस्‍या करके वह शुद्र तपस्‍वी वन में ही मृत्‍यु को प्राप्‍त हुआ और उसी पूण्‍य के प्रभाव से एक महान राजवंश में महातेजस्‍वी बालक के रूप में उत्‍पन्‍न हुआ। तात! इसी प्रकार वे ऋषि भी कालधर्म- मृत्‍यु को प्राप्‍त हुए। भरत श्रेष्‍ठ! वे ही ऋषि दूसरे जन्‍म में उसी राजवंश के पुरोहित के कुल में उत्‍पन्‍न हुए। इस प्रकार वह शूद्र और वे मुनि दोनों ही वहाँ उत्‍पन्‍न हुए, क्रमश: बढ़े और सब प्रकार की विद्या में निपुण हो गये। वे ऋषि वेद और अथर्ववेद के परिनिष्ठित विद्वान हो गये। कल्‍पप्रयोग और ज्‍योतिष में भी पारंगत हुए। सांख्‍य में भी उनका परम अनुराग बढ़ने लगा। नरेश! पिता के परलोकवासी हो जाने पर शुद्ध होने के पश्‍चात मंत्री और प्रजा आदि ने मिलकर उस राजकुमार को राजा के पद पर अभिषक्‍त कर दिया। राजा ने अभिषिक्‍त होने के साथ ही उस ऋषि का भी पुरोहित पद पर अभिषेक कर दिया। भरतश्रेष्‍ठ! ऋषि को पुरोहित बनाकर वह राज सुखपूर्वक रहने और धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए राज्‍य का शासन करने लगा।[2]

पुरोहित एवं राजा का संवाद

जब पुरोहित जी प्रतिदिन पुण्याहवाचन करते और निरन्‍तर धर्म कार्य में संलग्‍न रहते, उस समय राजा उन्‍हें देखकर कभी मुसकराते और कभी जोर-जोर से हंसने लगते थे। राजन! इस प्रकार अनेक बार राजा ने पुरोहित का उपहास किया। पुरोहित ने जब अनेक बार और निरन्‍तर उस राजा को अपने प्रति हंसते और मुस्‍कराते लक्ष्‍य किया, तब उनके मन में बड़ा खेद और क्षोभ हुआ। तदनन्‍तर एक दिन पुरोहित राजा से एकान्‍त में मिले और मनोनुकूल कथाएं सुनाकर राजा को प्रसन्‍न करने लगे। मभरतश्रेष्‍ठ! फिर पुरोहित राजा इस प्रकार बोले- ‘महातेजस्‍वी नरेश! मैं आपका दिया हुआ एक वर प्राप्‍त करना चाहता हूं’। राजा ने कहा- द्विज श्रेष्‍ठ! मैं आपको सौ वर दे सकता हूँ। एक की तो बात ही क्‍या। आपके प्रति मेरा जो स्‍नेह और विशेष आदर है, उसे देखते हुए मेरे पास आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है। पुरोहित ने कहा- पृथ्‍वीनाथ! यदि आप प्रसन्‍न हो तो मैं एक ही वर चाहता हूँ। आप पहले यह प्रतिज्ञा कीजिये कि ‘मैं दूंगा। ‘इस विषय में सत्‍य कहिये, झूठ न बोलिये। भीष्‍म जी कहते है युधिष्ठिर! तब राजा ने उत्‍तर दिया- ‘बहुत अच्‍छा। यदि मैं जानता होउंगा तो अवश्‍य बता दूंगा और यदि नहीं जानता होउंगा तो नहीं बताउंगा’। पुरोहित जी ने कहा- महाराज! प्रतिदिन पुण्‍याह-वाचन के समय तथा बारंबार धार्मिक कृत्‍य कराते समय एवं शान्ति होम के अवसरों पर आप मेरी ओर देखकर क्‍यों हंसा करते हैं? आपके हंसने से मेरा मन लज्जित-सा हो जाता है। राजन! मैं शपथ दिलाकर पूछ रहा हूं, आप इच्‍छानुसार सच-सच बताइये। दूसरी बात कहकर बहलाइयेगा मत। आपके इस हंसने में स्‍पष्‍ट ही कोई विशेष कारण जान पड़ता है। आपका हंसना बिना किसी कारण के नहीं हो सकता। इसे जानने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्‍कण्‍ठा है, अत: आप यथार्थ रूप से यह सब कहिये। राजा ने कहा- विंप्रवर! आपके इस प्रकार पूछने पर तो यदि कोई न कहने योग्‍य बात हो तो उसे भी अवश्‍य ही कह देना चाहिए। अत: आप मन लगाकर सुनिये। द्विजश्रेष्‍ठ! जब हमने पूर्व जन्‍म में शरीर धारण किया था, उस समय जो घटना घटित हुई थी, उसने सुनिये। ब्रहृान्! मुझे पूर्व जन्‍म की बातों का स्‍मरण है। आप ध्‍यान देकर मेरी बात सुनिये। विप्रवर! पहले जन्‍म में मैं शूद्र था। फिर बड़ा भारी तपस्‍वी हो गया। उन्‍हीं दिनों आप उग्र तप करने वाले श्रेष्‍ठ महर्षि थे। निष्‍पाप ब्रहृान्! उन दिनों आप मुझ से बड़ा प्रेम रखते थे, अत: मेरे उपर अनुग्रह करने के विचार से आपने पितृकार्य में मुझे आवश्‍यक विधिका उपदेश किया था। मुनिश्रेष्‍ठ! कुश के चट कैसे रखे जायें? हव्‍य और कव्‍य कैसे समर्पित किये जायें? इन्‍हीं सब बातों का आपने मुझे उपदेश दिया था। इसी कर्म दोष के कारण आपको इस जन्‍म में पुरोहित होना पड़ा। विपेन्‍द्र! यह काल का उलट-फेर तो देखिये कि मैं तो शूद्र राजा हो गया और मुझे ही उपदेश करने के कारण आपको यह फल मिला।[3]

द्विजश्रेष्‍ठ! ब्रहृान! इसी कारण से मैं आपकी ओर देखकर हूँ। आपका अनादर करने के लिये मैं आपकी हंसी नहीं उड़ाता हूं, क्‍योंकि आप मेरे गुरु हैं। यह जो उलट-फेर हुआ इससे मुझ को बड़ा खेद है और इसी से मेरा मन संतप्‍त रहता है। मैं अपनी और आप की भी पूर्वजन्‍म की बातों को याद करता हूं, इसीलिये आपकी ओर देखकर हंस देता हूँ। आपकी उग्र तपस्‍या थी, वह मुझे उपदेश देने के कारण नष्‍ट हो गयी। अत: आप पुरोहित का काम छोड़कर पुन: संसार-सागर से पार होने के लिये प्रयत्‍न कीजिए। ब्रहृान! साधुशिरोमणे! कहीं ऐसा न हो कि आप इसके बाद दूसरी किसी नीच योनि में पड़ जाये। अत: विप्रवर! जितना चाहिए धन ले लीजिये और अपने अन्‍त: करण को पवित्र बनाने का प्रयत्‍न कीजिए। विदा लेकर पुरोहित ने बहुत-से ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान दिये। धन, भूमि और ग्राम भी वितरण किये। उस समय श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों के बताये अनुसार उन्‍होनें अनेक प्रकार के कृच्‍छव्रत किये और तीर्थों में जाकर नाना प्रकार की वस्‍तुएं दान कीं। ब्राह्मणों को गोदान करके पवित्रात्‍मा होकर उन मनस्‍वी ब्राह्मण ने फिर उसी आश्रम पर जाकर बड़ी भारी तपस्‍या की। नृपश्रेष्‍ठ! तदनन्‍तर परमप सिद्धि को प्राप्‍त होकर वे ब्राह्मण देवता उस आश्रम में रहने वाले समस्‍त साधकों के लिये सम्‍मानीय हो गये। नृपशिरोमणे! इस प्रकार वे ऋषि शूद्र को उपदेश देने के कारण महान कष्‍ट में पड़ गये, इसलिये ब्राह्मण को चाहिए कि वह नीच वर्ण के मनुष्‍य को उपदेश न दे। नरेश्‍वर! ब्राह्मण को चाहिए कि वह कभी शूद्र को उपदेश न दे, क्‍योंकि उपदेश करने वाला ब्राह्मण स्‍वयं ही संकट में पड़ जाता है। नृपश्रेष्‍ठ! ब्राह्मण को अपनी वाणी द्वारा कभी उपदेश देने की इच्‍छा ही नहीं करनी चाहिए। यदि करे भी तो नीच वर्ण के पुरुष को तो कदापि कुछ उपदेश न दे। राजन! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य ये तीन वर्ण द्विजाती कहलाते हैं। इन्‍हें उपदेश देने वाला ब्राह्मण दोष का भागी नहीं होता है। इसलिये सत्‍पुरुषों को कभी किसी के सामने कोई उपदेश नहीं देना चाहिए, क्‍योंकि धर्म की गति सूक्ष्‍म है। जिन्‍होंने अपने अन्‍त: करण को शुद्ध एवं वशीभूत नहीं कर लिया है, उनके लिये धर्म की गति को समझना बहुत ही कठिन है। राजन! इसीलिये ऋषि-मुनि मौन भाव से ही आदरपूर्वक दीक्षा देते हैं। कोई अनुचित बात मुंह से न निकल जाय, इसी के भय से वे कोई भाषण नहीं देते हैं। धार्मिक, गुणवान तथा सत्‍य-सरलता आदि गुणों से सम्‍पन्‍न पुरुष भी शास्‍त्रविरुद्ध अनुचित वचन कह देने के कारण यहाँ दुष्‍कर्म के भागी हो जाते हैं। ब्राह्मण को चाहिए कि वह कभी किसी को उपदेश न करे, क्‍योंकि उपदेश करने से वह शिष्‍य के पाप को स्‍वयं ग्रहण करता है। अत: धर्म की अभिलाषा रखने वाले विद्वान पुरुष को बहुत सोच-विचारकर बोलना चाहिए, क्‍योंकि सांच और झूठ मिश्रित वाणी से किया गया उपदेश हानिकारक होता है। यहाँ किसी के पूछने बहुत सोच-विचारकर शास्‍त्र का जो सिद्धांत हो वही बताना चाहिये तथा उपदेश वह करना चाहिए जिसमें धर्म की प्राप्ति हो। उपदेश के सम्‍बन्‍ध में मैंने ये सब बातें तुम्‍हें बतायी हैं। अनधिकारी को उपदेश देने से महान क्‍लेश प्राप्‍त होता है। इसलिये यहाँ किसी को उपदेश न दे।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-19
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 10 श्लोक 20-41
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 10 श्लोक 42-58
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 10 श्लोक 59-75

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अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान 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शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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