सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 145 में सर्वसाधारण द्रव्य दान से पुण्य का वर्णन हुआ है।[1]

सर्वसामान्य वस्तु के दान का वर्णन

उमा ने पूछा- भगवन! जो द्रव्य लोक में सबको प्राप्त है, जो सर्वसाधारण की वस्तु है, उस सर्वसामान्य वस्तु का दान करने वाला मनुष्य कैसे धर्म का भागी होता है?

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! लोक में जो भौतिक द्रव्य हैं, वे सबके लिये साधारण हैं, उन वस्तुओं का दान करने वाला मनुष्य किस तरह पुण्य का भागी होता है, यह बताता हूँ, सुनो। दान देने वाला, उसे ग्रहण करने वाला, देय वस्तु, उपक्रम (उसे देने का प्रयत्न), देश और काल- इन छः वस्तुओं के गुणों से युक्त दान उत्तम बताया जाता है।[1]

अब मैं इन छहों के विशेष गुणों का वर्णन करता हूँ, सुनो! जो आदिकाल से ही मन, वाणी, शरीरा और क्रिया द्वारा शुद्ध हो, सत्यवादी, क्रोधविजयी, लोभहीन, अदोषदर्शी, श्रद्धालु और आस्तिक हो, ऐसा दाता उत्तम बताया गया है। जो शुद्ध, जितेन्द्रिय, क्रोध को जीतने वाला, उदार एवं उच्च कुल में उत्पन्न, शास्त्रज्ञान एवं सदाचार से सम्पन्न, बहुत से स्त्री-पुत्रों से संयुक्त, पंचयज्ञपरायण तथा सदा नीरोग शरीर से युक्त हो, वही दान लेने का उत्तम पात्र है। उपर्युक्त गुणों को ही दानपात्र के उत्तम गुण समझो। ऐसे पात्र की ही प्रशंसा की जाती है। देवता, पितर और अग्निहोत्रसम्बन्धी कार्यों में उसको दिये हुए दान का महान फल होता है। लोक में जो जिस वस्तु के योग्य हो, वही उस वस्तु को पाने का पात्र होता है। जिस वस्तु के पाने से आपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य आपत्ति से छूट जाय, उस वस्तु का वही पात्र है। भूखा मनुष्य अन्न का और प्यासा जल का पात्र है। इस प्रकार प्रत्येक पुरुष के लिये दान के भिन्न-भिन्न पात्र होते हैं। प्रिये! चोर, व्यभिचारी, नपुंसक, हिंसक, मर्यादा-भेदक और लोगों के कार्य में विघ्न डालने वाले अन्यान्य पुरुष सब प्रकार से दान में वर्जित हैं अर्थात उन्हें दान नहीं देना चाहिये। देवि! दूसरों का वध या चोरी करने से मनुष्यों को जो धन मिलता है, निर्दयता तथा धूर्तता करने से जो प्राप्त होता है, अधर्म से, धनविषयक मोह से तथा बहुत से प्राणियों की जीविका का अवरोध करने से जो धनप्राप्त होता है, वह अत्यन्त निन्दित है।

भामिनि! ऐसे धन से किये हुए धर्म को निष्फल समझो। अतः शुभ की इच्छा रखने वाले पुरुष को न्यायतः प्राप्त हुए धन के द्वारा ही दान करना चाहिये। जो-जो अपने को प्रिय लगे, उसी-उसी वस्तु का सदा दान करना चाहिये, यही मर्यादा है। इस प्रयत्न या चेष्टा को ही उपक्रम समझो। यह दाताओं के लिये परम हितकारक है। दान का सुयोग्य पात्र ब्राह्मण यदि दूर का निवासी हो तो उसके पास जाकर उसे प्रसन्न करके दाता इस प्रकार दान दे, जिससे वह संतुष्ट हो जाय। यह दान की श्रेष्ठ विधि है। दानपात्र को जो अपने घर बुलाकर दान दिया जाता है, वह मध्यम श्रेणी का दान है। प्रिये! पहले पात्रता का ज्ञान प्राप्त करके फिर उस सुपात्र ब्राह्मण को घर बुलावे। उसके सामने अपना दानविषयक विचार प्रस्तुत करे। पश्चात स्वयं ही स्नान आदि से पवित्र हो आचमन करके श्रद्धापूर्वक अभीष्ट वस्तु का दान करे। याचकों को सामने पाकर उन्हें सम्मानपूर्वक अपनाना और देश-काल के अनुसार दान देना चाहिये। ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले पुरुषों को चाहिये कि वे दूसरे अपात्र पुरुषों को भी आवश्यकता होने पर अन्न-वस्त्र आदि का दान करे। पात्रों की परीक्षा करके दाता यदि दान की मात्रा अपनी शक्ति से भी अधिक करे तो वह उत्तम दान है। यथाशक्ति किया हुआ दान मध्यम है और तीसरा अधम श्रेणी का दान है, जो अपनी शक्ति के अनुरूप न हो। पहले जैसा बताया गया है, उसी प्रकार दान देना चाहिये। पुण्य क्षेत्रों में तथा पुण्य के अवसरों पर जो कुछ दिया जाता है, उसे देश और काल के गौरव से अत्यन्त शुभकारक समझो।[2]

दान से पुण्य का वर्णन

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! कुरुक्षेत्र, गंगा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ, देवताओं तथा ऋषियों द्वारा सेवित स्थान एवं श्रेष्ठ पर्वत- ये सब-के-सब तीर्थ हैं। जहाँ देश के सभी भागों में पूजित श्रेष्ठ पुरुष दान ग्रहण करना चाहता हो, वहाँ दिये हुए दान का महान फल होता है। शरद और वसन्त कासमय, पवित्र मास, पक्षों में शुक्लपक्ष, पर्वों में पौर्णमासी, मघानक्षत्रयुक्त निर्मल दिवस, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण- इन सबको अत्यन्त शुभकारक काल समझो। दाता हो, देने की वस्तु हो, दान लेने वाला पात्र हो, उपक्रमयुक्त क्रिया हो और उत्तम देश-काल हो- इन सबका सम्पन्न होना शुद्धि कही गयी है। जब कभी एक समय इन सबका संयोग जुट जाय तभी दान देना महान फलदायक होता है। इन छः गुणों से युक्त जो दान है, वह अत्यन्त अल्प होने पर भी अनन्त होकर निर्दोष दाता को स्वर्गलोक में पहुँचा देता है।

उमा ने पूछा- प्रभो! इन गुणों से युक्त दान दिया गया हो तो क्या वह भी निष्फल हो सकता है?

श्रीमहेश्वर ने कहा- महाभागो! मनुष्यों के भाव-दोष से ऐसा भी होता है। यदि कोई विधिपूर्वक धर्म का सम्पादन करके फिर उसके लिये पश्चात्ताप करने लगता है अथवा भरी सभा में उसकी प्रशंसा करते हुए बड़ी-बड़ी बातें बनाने लगता है, उसका वह धर्म व्यर्थ हो जाता है। पुण्य की अभिलाषा रखने वाले दाताओं को चाहिये कि वे इन दोषों को त्याग दें। यह दानसम्बन्धी आचार सनातन है। सत्पुरुषों ने सदा इसका आचरण किया है। दूसरों पर अनुग्रह करने के लिये दान किया जाता है। गृहस्थों पर तो दूसरे प्राणियों का ऋण होता है, जो दान करने से उतरता है, ऐसा मन में समझकर विद्वान पुरुष सदा दान करता रहे। इस तरह दिया हुआ सुकृत सदा महान होता है। सर्वसाधारण द्रव्य का भी इसी तरह दान करने से महान फल की प्राप्ति होती है।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-41
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-42
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-43

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के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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