दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 137 में दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर का प्रस्न

वैशम्पायन जी कहते हैं जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- भरतनन्दन! पितामह! आप कहते हैं कि दान और तप दोनों से ही मनुष्य स्वर्ग में जाता है, परंतु मेरे मन में संशयजनित दुःख हो रहा है। आप इसका निवारण कीजिये। इस पृथ्वी पर दान और तप में से कौन-सा साधन श्रेष्ठ है, यह बताने की कृपा करें।

भीष्म द्वारा दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन=

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! तपस्या से शुद्ध अन्तःकरण वाले जिन धर्मात्मा राजाओं ने दान-पुण्य में तत्पर रहकर निःसन्देह बहुत से उत्तम लोक प्राप्त किये हैं, उनके नाम बता रहा हूँ, सुनो। राजन! लोक सम्मानित महर्षि आत्रेय अपने शिष्यों को निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देकर उत्तम लोकों में गये हैं। उशीनरकुमार शिवि अपने प्यारे पुत्र के प्राणों को ब्राह्मण के लिये निछावर करके यहाँ से स्वर्गलोक में चले गये। काशी के राजा प्रतर्दन ने अपने प्यारे पुत्र को ब्राह्मण की सेवा में अर्पित कर दिया, जिसके कारण उन्हें इस लोक में अनुपम कीर्ति मिली और परलोक में भी वे अक्षय आनन्द का उपभोग कर रहे हैं। संकृति के पुत्र राजा रन्तिदेव ने महात्मा वसिष्ठ मुनि को विधिवत अर्ध्यदान किया, जिससे उन्हें श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति हुई। देवावृध नामक राजा यज्ञ में सोने की सौ तीलियों वाले सुन्दर दिव्य छत्र का ब्राह्मण को दान करके स्वर्ग लोक को प्राप्त हुए हैं। ऐश्वर्यशाली राजा अम्बरीष अमित तेजस्वी ब्राह्मण को अपना सारा राज्य सौंपकर देवलोक को प्राप्त हुए। सूर्यपुत्र कर्ण अपना दिव्य कुण्डल देकर तथा महाराजा जनमेजय ब्राह्मण को सवारी और गौ दान करके उत्तम लोकों में गये हैं। राजर्षि वृषादर्भि ने ब्राह्मणों को नाना प्रकार के रत्न तथा रमणीय गृह प्रदान करके स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त किया है। विदर्भ के पुत्र राजा निमि अगस्त्य मुनि को अपनी कन्या और राज्य का दान करके पुत्र, पशु और बान्धवों सहित स्वर्गलोक में चले गये। महायशस्वी जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने ब्राह्मण को भूमिदान करके उन अक्ष्य लोगों को प्राप्त किया है, जिन्हें पाने की मन में कल्पना भी नहीं हो सकती। एक बार संसार में वर्षा न होने पर मुनिवर वसिष्ठ जी ने समस्त प्राणियों को जीवन दान दिया था, जिससे उन्हें अक्षय लोकों की प्राप्ति हुई। दशरथनन्दन भगवान श्रीरामचन्द्र जी यज्ञों में प्रचुर धन की आहुति देकर संसार मेग अपने महान यश की स्थापना करके अक्षय लोकों में चले गये।

महायशस्वी राजर्षि कक्षसेन महात्मा वसिष्ठ को अपना सर्वस्व समर्पण करके स्वर्गलोक में गये हैं। करन्धम के पौत्र, अविक्षित के पुत्र महाराज मरूत्त ने अंगिरा के पुत्र संवर्त को कन्यादान करके शीघ्र ही स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त कर लिया। पाञ्चाल देश के राजा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ ब्रह्मदत्त ने ब्राह्मण को शंखनामक निधि प्रदान करके परम गति प्राप्त कर ली थी। राजा मित्रसह महात्मा वसिष्ठ मुनि को अपनी प्यारी पत्नी मदयन्ती सेवा के लिये देकर स्वर्गलोक में चले गये। मनुपुत्र राजा सुद्युम्न महात्मा लिखित को धर्मतः दण्ड देकर परम उत्तम लोकों में गये। महान यशस्वी राजर्षि सहस्रचित्य ब्राह्मण के लिये अपने प्यारे प्राणों की बलि देकर श्रेष्ठ लोकों में गये हैं। महाराजा शतद्युम्न ने मौद्गल्य नामक ब्राह्मण को समस्त कामनाओं से परिपूर्ण सुवर्णमय गृह दान देकर स्वर्ग प्राप्त किया है।[1] राजा सुमन्यु ने भक्ष्य, भोज्य पदार्थों के पर्वत-जैसे कितने ही ढेर लगाकर उन्हें शाण्डिलय को दान दिया था।[2] जिससे उन्होंने स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त कर लिया। महातेजस्वी शाल्वराज द्युतिमान महर्षि ऋचीक को राज्य देकर सर्वोत्तम लोकों में चले गये। राजर्षि मदिराश्व अपनी सुन्दरी कन्या विप्रवर हिरण्यहस्त को देकर देवताओं के लोक में चले गये। प्रभावशाली राजर्षि लोमपाद ने मुनिवर ऋष्यश्रृंग को अपनी शान्ता नाम वाली कन्या दान की थी, इससे उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्णरूप से सफल हुई। राजर्षि भगीर अपनी यशस्विनी कन्या हंसी का कौत्स ऋषि को दान करके अक्ष्य लोकों में गये हैं। राजा भगीरथ ने कोहल नामक ब्राह्मण को एक लाख सवत्सा गौएँ दान कीं, जिससे उन्हें उत्तम लोको की प्राप्ति हुई। युधिष्ठिर! ये तथा और भी बहुत से राजा दान और तपस्या के प्रभाव से बारंबार स्वर्गलोक को जाते और पुनः वहाँ से इस लोक में लौट आते हैं। जिन गृहस्थों ने दान और तपस्या के बल से उत्तम लोकों पर विजय पायी है, उनकी कीर्ति इस लोक में तब तक प्रतिष्ठित रहेगी, जब तक कि यह पृथ्वी स्थिर रहेगी। युधिष्ठिर! यह शिष्ट पुरुषों का चरित्र बताया गया है। ये सब नरेश दान, यज्ञ और संतानोत्पादन करके स्वर्ग में प्रतिष्ठित हुए हैं। कौरवधुरंधर! तुम भी सदा दान करते रहो। तुम्हारी बुद्धि दान और यज्ञ की क्रिया में संलग्न हो धर्म की उन्नति करती रहे। नृपश्रेष्ठ! अब तुम्हें जिस विषय में संदेह होगा, उसे मैं कल सबेरे बताऊँगा, क्योंकि इस समय संध्याकाल उपस्थित है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 137 श्लोक 1-21
  2. 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 137 श्लोक 22-32

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मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों 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महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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