- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में उपमन्यु का शिव विषयक आख्यान का वर्णन हुआ है[1]
विषय सूची
उपमन्यु द्वारा शिव विषयक वर्णन
मैंने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। मुझे वन्दना करते देख उपमन्यु बोले- 'पुण्डरीकाक्ष! आपका स्वागत है। आप पूजनीय होकर मेरी पूजा करते हैं और दर्शनीय होकर मेरा दर्शन चाहते हैं, इससे हम लोगों की तपस्या सफल हो गयी।' तब मैंने हाथ जोड़कर आश्रम के मृग, पक्षी, अग्निहोत्र धर्माचरण तथा शिष्य वर्ग का कुशल-समाचार। अधोक्षज! आप महान तप का आश्रय लेकर यहाँ सर्वेश्वर भगवान शिव को संतुष्ट कीजिये। यहाँ महादेव जी अपनी पत्नी भगवती उमा के साथ क्रीड़ा करते हैं। जनार्दन! यहाँ सुरश्रेष्ठ महादेव जी को तपस्या, ब्रह्माचर्य, सत्य और इन्द्रिय-संयम द्वारा संतुष्ट करके पहले कितन ही देवता और महर्षि अपने शुभ मनोरथ प्राप्त कर चुके हैं। शत्रुनाशक श्रीकृष्ण! आप जिनकी प्रार्थना करते हैं, वे तेज और तपस्या की निधि अचिन्त्य भगवान शंकर यहाँ शम आदि शुभ भावों की सृष्टि और काम आदि अशुभ भावों का संहार करते हुए देवी पार्वती के साथ सदा विराजमान रहते हैं। पहले जो मेरु पर्वत को भी कम्पित कर देने वाला हिरण्यकशिपु नामक दानव हुआ था, उसने भगवान शंकर से एक अर्बुद (दस करोड़) वर्षो तक के लिये सम्पूर्ण देवताओं का ऐश्वर्य प्राप्त किया था। उसी का श्रेष्ठ पुत्र मन्दार नाम से विख्यात हुआ, जो महादेव जी के वर से एक अर्बुद वर्षों तक इन्द्र के साथ युद्ध करता रहा। तात केशव! भगवान विष्णु का वह भयंकर चक्र तथा इन्द्र का वज्र भी पूर्वकाल में उस ग्रह के अंगों पर पुराने तिनकों के समान जीर्ण-शीर्ण-सा हो गया था। निष्पाप श्रीकृष्ण! पूर्वकाल में जल के भीतर रहने वाले गर्वीले दैत्य को मारकर भगवान शंकर ने आपको जो चक्र प्रदान किया था, उस अग्नि के समान तेजस्वी शस्त्र को स्वयं भगवान वृषध्वज ने ही उत्पन्न किया और आपको दिया था, वह अस्त्र अद्भुत तेज से युक्त एवं दुर्धर्ष है। पिनाकपाणि भगवान शंकर को छोड़कर दूसरा कोई उसको देख नहीं सकता था। उस समय भगवान शंकर ने कहा- 'यह अस्त्र सुदर्शन (देखने में सुगम) हो जाय' तभी से संसार में उसका सुदर्शन नाम प्रचलित हो गया। तात केशव! ऐसा प्रसिद्ध अस्त्र भी उस ग्रह के अंगों पर जीर्ण-सा हो गया।[1]
शंकर द्वारा वरदान प्राप्ति वर्णन
भगवान शंकर से उसको वर मिला था। उस अत्यंत बलशाली बुद्धिमान ग्रह के अंग में चक्र और वज्र- जैसे सैकड़ों शस्त्र भी काम नहीं देते थे। जब उस बलवान ग्रह ने देवताओं को सताना आरम्भ कर दिया तब देवताओं ने भी भगवान शंकर से वर पाये हुए उन असुरेन्द्रों को बहुत पीटा।[2] इसी तरह विद्युत्प्रभ नामक दैत्य पर भी संतुष्ट होकर रुद्र देव ने उसे तीनों लोकों का आधिपत्य प्रदान कर दिया। इस प्रकार वह एक लाख वर्षों तक सम्पूर्ण लोकों का अधीश्वर बना रहा। भगवान ने उसे यह भी वर दिया था कि 'तुम मेरे नित्य पार्षद हो जाओगे' साथ ही उन प्रभु ने उस सहस्त्र अयुत (एक करोड़) पुत्र प्रदान किये। अजन्मा भगवान शिव ने उसे राज करने के लिये कुशद्वीप दिया था। इसी प्रकार भगवान ब्रह्मा ने एक समय शतमुख नामक महान असुर की सृष्टि की थी, जिसने सौ वर्ष से अधिक काल तक अग्नि में अपने ही मांस की आहुति दी थी। उससे संतुष्ट होकर भगवान शंकर ने पूछा- 'बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूं?' तब शतमुख ने उनसे कहा- 'सुरश्रेष्ठ! मुझे अद्भभुत योगशक्ति प्राप्त हो। साथ ही आप मुझे सदा बना रहने वाला बल प्रदान कीजिए।' उसकी वह बात सुनकर शक्तिशाली भगवान ने 'तथास्तु' कहकर उसे स्वीकार कर लिया। इसी तरह पूर्वकाल में स्वयम्भू के पुत्र क्रतु ने पुत्र-प्राप्ति के लिये तीन सौ वर्षों तक योग के द्वारा अपने आप को भगवान शिव के चिन्तन में लगा रखा था, अत: क्रतु को भी भगवान शंकर ने उन्हीं के समान एक हजार पुत्र प्रदान किये। श्रीकृष्ण! देवता जिनकी महिमा का गान करते हैं, उन योगेश्वर शिव को आप भली-भाँति जानते हैं, इसमें संशय नहीं है। याज्ञवल्क्य नाम के विख्यात पर धर्मात्मा ऋर्षि ने महादेव जी की आराधना करके अनुपम यश प्राप्त किया। पराशर जी के पुत्र मुनिवर वेदव्यास तो योग के स्वरूप ही हैं। उन्होंने भी शंकर जी की आराधना करके वह महान यश पा लिया, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। कहते हैं, पूर्वकाल में किसी समय इन्द्र ने बालखिल्य नामक ऋषियों का अपमान कर दिया था। उन ऋषियों ने कुपित होकर तपस्या की और उसके द्वारा भगवान रुद्र को संतुष्ट किया। तब सुरश्रेष्ठ विश्वनाथ शिव ने प्रसन्न होकर उनसे कहा- 'तुम अपनी तपस्या के बल से गरुड़ को उत्पन्न करोगे, जो इन्द्र का अमृत छीन लायेगा।' पहले की बात है, महादेव जी के रोष से जल नष्ट हो गया था। देवताओं ने, जिसके स्वामी रुद्र हैं, उस सप्त कपालयाग के द्वारा दूसरा जल प्राप्त किया। इस प्रकार त्रिनेत्रधारी भगवान शिव के प्रसन्न होने पर ही भूतल पर जल की उपलब्धि हुई। अत्रि की पत्नी ब्रह्मावादिनी अनसूया भी किसी समय रुष्ट हो अपने पति को त्याग कर चली गयीं और मन में यह संकल्प करके कि 'अब मैं किसी तरह भी पुन: अत्रिमुनि के वशीभूत नहीं होऊँगी' महादेव जी की शरण में गयीं। अत्रिमुनि के भय से तीन सौ वर्षों तक निराहार रहकर मुसलों पर ही सोयीं और भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिये तपस्या करती रहीं।[3]
उपमन्यु द्वारा अराधना का वर्णन
तब महादेव जी ने उनसे हंसते हुए कहा- 'देवि! मेरी कृपा से केवल यज्ञ संबंधी चारु का द्रव पीने मात्र से तुम्हें पति के सहयोग के बिना ही एक पुत्र प्राप्त होगा- इसमें संशय नहीं है। वह तुम्हारें वंश में तुम्हारे ही नाम से इच्छानुसार ख्याति प्राप्त करेगा।' मधुसूदन! ऐश्वर्यशाली विकर्ण ने भक्त सुखदायक महादेव जी को प्रसन्न करके मनोवांछित सिद्धि प्राप्त की थी। केशव! शाकल्य ऋषि के मन में सदा संशय बना रहता था। उन्होनें मनोमय यज्ञ (ध्यान)- के द्वारा भगवान शिव की नौ सौ वर्षों तक आराधना की। तब उनसे भी संतुष्ट होकर भगवान शंकर ने कहा- 'वत्स! तुम ग्रन्थकार होओगे तथा तीनों लोकों में तुम्हारी अक्षय कीर्ति फैल जायेगी।' 'तुम्हारा कुल अक्षय एवं महर्षियों से अलंकृत होगा।' 'तुम्हारा पुत्र एक श्रेष्ठ ब्राह्मण एवं सूत्रकार होगा।' सत्ययुग में सावर्णिनाम से विख्यात एक ऋषि थे। उन्होंने यहाँ आकर छ: हजार वर्षों तक तपस्या की। तब भगवान रुद्र ने उन्हें साक्षात दर्शन देकर- 'अनघ! मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूँ। तुम विश्वविख्यात ग्रन्थकार और अजर-अमर होओगो।' जनार्दन! पहले की बात है, इन्द्र ने भक्तिभाव के साथ काशीपुरी में भस्म भूषित दिगम्बर महादेव जी की आराधना की। महादेव जी की आराधना करके ही उन्होंने देवराजपद प्राप्त किया। देवर्षि नारद ने भी पहले भक्तिभाव से भगवान शंकर की आराधना की थी। इससे संतुष्ट होकर गुरु स्वरूप देवगुरु महादेव जी ने उन्हें यह वरदान दिया कि 'तेज, तप और कीर्ति में कोई तुम्हारी समता करने वाला नहीं होगा। तुम गीत और वीणावादन के द्वारा सदा मेरा अनुसरण करोगे।' [4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 58-79
- ↑ इस प्रकार उनमें दीर्घकालक तक युद्ध होता रहा
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 80-96
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 97-119
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| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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