- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 145 में योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
शिव पार्वती संवाद
श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो लोग सांख्यज्ञान में नियुक्त हैं, उनके धर्म का मैंने यथावत रूप से वर्णन किया। अब तुमसे पुनः सम्पूर्ण योगधर्म का प्रतिपादन करूँगा, सुनो। वह ब्रह्मर्षियों और देवर्षियों द्वारा सम्मत योग सबीज और निर्बीज के भेद से दो प्रकार का है। उन दोनों में ही शास्त्रोक्त सदाचार समान है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व- इन आठ भेदों वाले ऐश्वर्य पर अधिकार करके योग का अनुष्ठान किया जाता है। सम्पूर्ण देवताओं का सायुज्य पराश्रित योगधर्म है। ज्ञान सम्पूर्ण योग का मूल है, ऐसा समझो। साधक को व्रत, उपवास और नियमों द्वारा उस सम्पूर्ण ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिये।
बुद्धिमती पार्वती! अविनाशी आत्मा में बुद्धि, मन और सम्पूर्ण इन्द्रियों की एकाग्रता हो, यही योगियों का ज्ञान है। ब्राह्मण, अग्नि और देवमन्दिरों की पूजा करे तथा पूर्णतः सत्त्वगुण का आश्रय लेकर अमांगलिक भाव को त्याग दे। दान, अध्ययन, श्रद्धा, व्रत, नियम, सत्य, आहार शुद्धि, शौच और इन्द्रिय-निग्रह- इनके द्वारा तेज की वृद्धि होती है और पाप धुल जाता है। जिसका पाप धुल गया है, वह पहले तेजस्वी, निराहार, जितेन्द्रिय, अमोघ, निर्मल और मन का दमन करने में समर्थ हो जाय। तत्पश्चात योग का अभ्यास करे।
एकान्त निर्जन प्रदेश में, जो सब ओर से घिरा हुआ और पवित्र हो, कोमल कुशों से एक आसन बनावे और उसे वहाँ भली-भाँति बिछा दे। उस आसन पर बैठकर अपने शरीर और गर्दन को सीधी किये रहे। मन में किसी प्रकार की व्यग्रता न आने दे। सुखपूर्वक बैठकर अपने अंगों को हिलने-डुलने न दे। अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखकर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर दृष्टिपात न करते हुए ध्यानमग्न हो जाय। देवि! मन को दृढ़तापूर्वक स्थापित करना योग की सिद्धि का सूचक है, अतः सम्पूर्ण प्रयत्न करके मन को सदा स्थिर रखे। त्वचा, कान, जिह्वा, नासिका और नेत्र- इन सबको विषयों की ओर से समेटे। पाँचों इन्द्रियों को एकाग्र करके विद्वान पुरुष उन्हें मन में स्थापित करे। फिर सारे संकल्पों को हटाकर मन को आत्मा में स्थापित करे।
इन्द्रियाँ का वर्णन
जब मनसहित ये पाँचों इन्द्रियाँ आत्मा में स्थिर हो जाती हैं, तब प्राण और अपान वायु एक ही साथ वश में हो जाते हैं। प्राण के वश में हो जाने पर योगसिद्धि अटल हो जाती है। सारे शरीर को निकट से उघाड़-उघाड़कर देखे और यह क्या है? इसका चिन्तन करे। शरीर के भीतर जो प्राणों की गति है, उस पर भी विचार करे। तत्पश्चात मूर्धा, अग्नि और शरीर का परिपालन करे। मूर्धा में प्राण की स्थिति है, जो श्वासरूप में वर्तमान होकर चेष्टा करता है। सदा सन्नद्ध रहने वाला प्राण ही सम्पूर्ण भूतों का आत्मा सनातन पुरुष है, वही मन, बुद्धि, अहंकार, पंचभूत और विषयरूप है। वस्तिके मूलभाग, गुदा और अग्नि के आश्रित हो अपानवायु सदा मल-मूत्र का वहन करती हुई अपने कार्य में प्रवृत्त होती है। देहों में प्रवृत्ति अपानवायु का कर्म मानी गयी है। जो वायु समस्त धातुओं को ऊपर उठाती हुई अपान से ऊपर की ओर प्रवृत्त होती है, उसे अध्यात्मकुशल मनुष्य ‘उदान’ मानते हैं। जो वायु मनुष्यों के शरीरों की एक-एक संधि में व्याप्त होकर उनकी सम्पूर्ण चेष्टाओं में प्रवृत्तक होती है, उसे ‘व्यान’ कहते हैं। जो धातुओं और अग्नि में भी व्याप्त है, वह अग्निस्वरूप ‘समान’ वायु है। वही अन्तकाल में समस्त चेष्टाओं का निवर्त्तक होता है।[1]
समस्त प्राणों का परस्पर संयोग होने पर संसर्गवश जो ताप प्रकट होता है, उसी को अग्नि जानना चाहिये। वह अग्नि देहधारियों के खाये हुए अन्न को पचाती है। अपान और प्राण वायु के मध्यभाग में व्यान और उदान वायु स्थित है। समान वायु से युक्त हुई अग्नि सम्यक रूप से अन्न का पाचन करती है। शरीर के मध्यभाग में नाभि है। नाभि के भीतर अग्नि प्रतिष्ठित है। अग्नि से प्राण जुडे़ हुए हैं और प्राणों में आत्मा स्थित है। नाभि के नीचे पक्वाशय और ऊपर आमाशय है। शरीर के ठीक मध्यभाग में नाभि है और समस्त प्राण उसी का आश्रय लेकर स्थित हैं। समस्त प्राण आदि ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल में विचरने वाले हैं। दस प्राणों से तथा अग्नि से प्रेरित हो नाड़ियाँ अन्नरस का वहन करती हैं।
यह योगियों का मार्ग है, जो पाँचों प्राणों में स्थित है। साधक को चाहिये कि श्रम को जीतकर आसन पर आसीन हो आत्मा को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित करे। मूर्धा में आत्मा को स्थापित करके दोनों भौंहों के बीच में मन का अवरोध करे। तत्पश्चात प्राण को भली-भाँति रोककर परमात्मा का चिन्तन करे। प्राण में अपान का और अपान कर्म में प्राणों का योग करे। फिर प्राण और अपान की गति को अवरुद्ध करके प्राणायाम में तत्पर हो जाय। इस प्रकार एकान्त प्रदेश में बैठकर मिताहारी मुनि अपने अन्तःकरण में पाँचों प्राणों का परस्पर योग करे और चुपचाप उच्छ्वासरहित हो बिना किसी थकावट के ध्यानमग्न रहे। योगी पुरुष बारंबार उठकर भी चलते, सोते या ठहरते हुए भी आलस्य छोड़कर योगाभ्यास में ही लगा रहे। इस प्रकार जिसका चित्त ध्यान में लगा हुआ है, ऐसे योगाभ्यास परायण योगी का मन शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और मन के प्रसन्न होने पर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। उस समय अविनाशी पुरुष परमात्मा धूमरहित प्रकाशित अग्नि, अंशुमाली सूर्य और आकाश में चमकने वाली बिजली के समान दिखायी देता है। उस अवस्था में मन के द्वारा ज्योतिर्मय परमेश्वर का दर्शन करके योगी अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यों से युक्त हो देवताओं के लिये भी स्पृहणीय परमपद को प्राप्त कर लेता है।
दोषों से योगियों के मार्ग में विघ्न का वर्णन
वरारोहे! विद्वानों ने दोषों से योगियों के मार्ग में विघ्न की प्राप्ति बतायी है। वे योग के निम्नांकित दस ही दोष बताते हैं। काम, क्रोध, भय, स्वप्न, स्नेह, अधिक भोजन, वैचित्य (मानिसक विकलता), व्याधि, आलस्य और लोभ- ये ही उन दोषों के नाम हैं। इनमें लोभ दसवाँ दोष है। देवताओं द्वारा पैदा किये गये इन दस दोषों से योगियों को विघ्न होता है, अतः पहले इन दस दोषों को हटाकर मन को परमात्मा में लगावे। योग के निम्नांकित आठ गुण बताये जाते हैं, जिनसे युक्त दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। अणिमा, महिमा और गरिमा, लघिमा तथा प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व, जिसमें इच्छाओं की पूर्ति होती है। योगियों में श्रेष्ठ पुरुष किसी तरह इन आठ गुणों को पाकर सम्पूर्ण जगत पर शासन करने में समर्थ हो देवताओं से भी बढ़ जाते हैं।[2] जो अधिक खाने वाला अथवा सर्वथा न खाने वाला है, अधिक सोने वाला अथवा सर्वथा जागने वाला है, उसका योग सिद्ध नहीं होता। दुखों का नाश करने वाला यह योग उसी पुरुष का सिद्ध होता है, जो यथायोग्य आहार-विहार करने वाला है, कर्मों में उपयुक्त चेष्टा करता है तथा उचित मात्रा में सोता और जागता है।
इसी विधान से देवसायुज्य प्राप्त होता है। अपनी भक्ति से देवताओं का सायुज्य प्राप्त करके योगसाधना में तत्पर रहे। देवि! प्रतिदिन एकाग्र और अनन्य चित्त हो चिरकाल तक महान यत्न करने से देवताओं के साथ सायुज्य प्राप्त होता है। योगीजन हविष्य, पूजा, हवन, प्रणाम तथा नित्य चिन्तन के द्वारा यथाशक्ति आराधना करके अपने इष्टदेव के स्परूप में प्रवेश कर जाते हैं।
शुभलोचने! सायुज्यों में मेरा तथा श्रीविष्णु का सायुज्य श्रेष्ठ हैं। मुझे या भगवान विष्णु को प्राप्त करके मनुष्य पुनः संसार में नहीं लौटते हैं। देवि! इस प्रकार मैंने तुमसे सनातन योग-धर्म का वर्णन किया है। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई इस योगधर्म के विषय में प्रश्न नहीं कर सकता था।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-65
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-66
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-67
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| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
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| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
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| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
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| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
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| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
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| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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