- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 140 में शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
शिव-पार्वती संवाद
पर्वत को पूर्वावस्था में स्थित हुआ देख पतिव्रता पार्वती देवी बहुत प्रसन्न हुईं। फिर उन्होंने सम्पूर्ण लोकों के स्वामी कल्याणस्वरूप महेश्वर देव से पूछा।
उमा बोलीं- भगवन! सर्वभूतेश्वर! शूलपाणे! महान व्रतधारी महेश्वर! मेरे मन में एक महान संशय उत्पन्न हुआ है। आप मुझसे उसकी व्याख्या कीजिये। क्यों आपके ललाट में तीसरा नेत्र प्रकट हुआ? किसलिये आपने पक्षियों और वनों सहित पर्वत को दग्ध किया और देव! फिर किसलिये आपने उसे पूर्वावस्था में ला दिया। मेरे इन पिता को आपने जो पूर्ववत वृक्षों से आच्छादित कर दिया, इसका क्या कारण है? देवदेव! मेरे हृदय में यह संदेह विद्यमान है। आप इसका समाधान करने की कृपा करें। आपको मेरा सादर नमस्कार है। नारद जी कहते हैं- देवी पार्वती के ऐसा कहने पर भगवान शंकर प्रसन्न होकर बोले।
शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय भस्म होने का वर्णन
श्री महेश्वर ने कहा- धर्म को जानने तथा प्रिय वचन बोलने वाली देवि! तुमने जो संशय उपस्थित किया है, वह उचित ही है। प्रिये! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मुझसे ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता। भामिनि! प्रकट या गुप्त जो भी बात होगी, तुम्हारा प्रिय करने के लिये मैं सब कुछ बताऊँगा। तुम इस सभा में मुझसे सारी बातें सुनो। प्रिये! सभी लोकों में मुझे कूटस्थ समझो। तीनों लोक मेरे अधीन हैं। ये जैसे भगवान विष्णु के अधीन हैं, उसी प्रकार मेरे भी अधीन हैं। भामिनि! तुम यही जान लो कि भगवान विष्णु जगत के स्रष्टा हैं और मैं इसकी रक्षा करने वाला हूँ। शोभने! इसीलिये जब मुझसे शुभ या अशुभ का स्पर्श होता है, तब यह सारा जगत वैसा ही शुभ या अशुभ हो जाता है। देवि! अनिन्दिते! तुमने अपने भोलेपन के कारण मेरी दोनों आँखें बंद कर दीं। इससे क्षणभर में समस्त संसार का प्रकाश तत्काल नष्ट हो गया। गिरिराजकुमारी! संसार में जब सूर्य अदृश्य हो गये और सब ओर अन्धकार-ही-अन्धकार छा गया, तब मैंने प्रजा की रक्षा के लिये अपने तीसरे तेजस्वी नेत्र की सृष्टि की है। उसी तीसरे नेत्र का यह महान तेज था, जिसने इस पर्वत को मथ डाला। देवि! फिर तुम्हारा प्रिय करने के लिये मैंने इस गिरिराज हिमवान को पुनः प्रकृतिस्थ कर दिया है।
उमा ने कहा- भगवन! (आपके चार मुख क्यों हैं।) आपका पूर्व दिशावाला मुख चन्द्रमा के समान कान्तिमान एवं देखने में अत्यन्त प्रिय है। उत्तर और पश्चिम दिशा के मुख भी पूर्व की ही भाँति कमनीय कान्ति से युक्त हैं। परंतु दक्षिण दिशा वाला मुख बड़ा भयंकर है। यह अन्तर क्यों? तथा आपके सिर पर कपिल वर्ण की जटाएँ कैसे हुईं? क्या कारण है कि आपका कण्ठ मोर की पाँख के समान नीला हो गया? देव! आपके हाथ में पिनाक क्यों सदा विद्यमान रहता है? आप किसलिये नित्य जटाधारी ब्रह्मचारी के वेश में रहते हैं? प्रभो! वृषध्वज! मेरे इस सारे संशय का समाधान कीजिये, क्योंकि मैं आपकी सहधर्मिणी और भक्त हूँ।
शिव के भिन्न रूपों का वर्णन
भीष्म जी कहते हैं- राजन! गिरिराज कुमारी उमा के इस प्रकार पूछने पर पिनाकधारी भगवान शिव उनके धैर्य और बुद्धि से बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात उन्होंने पार्वती जी से कहा- ‘सुभगे! रुचिरानने! जिन हेतुओं से मेरे ये रूप हुए हैं, उन्हें बता रहा हूँ, सुनो।[1]
भगवान शिव ने कहा- प्रिये! पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने एक सर्वोत्तम नारी की सृष्टि की थी। उन्होंने सम्पूर्ण रत्नों का तिल-तिल भर सार उद्धृत करके उस शुभलक्षणा सुन्दरी के अंगों का निर्माण किया था, इसलिये वह तिलोत्तमा नाम से प्रसिद्ध हुई। देवि! शुभे! इस पृथ्वी पर तिलोत्तमा के रूप की कहीं तुलना नहीं थी। वह सुमुखी बाला मुझे लुभाती हुई मेरी परिक्रमा करने के लिये आयी। देवि! वह सुन्दर दाँतों वाली सुन्दरी निकट से मेरी परिक्रमा करती हुई जिस-जिस दिशा की ओर गयी, उस-उस दिशा की ओर मेरा मनोरम मुख प्रकट होता गया। तिलोत्तमा के रूप को देखने की इच्छा से मैं योगबल से चतुर्मूर्ति एवं चतुर्मुख हो गया। इस प्रकार मैंने लोगों को उत्तम योगशक्ति का दर्शन कराया। मैं पूर्व दिशा वाले मुख के द्वारा इन्द्रपद का अनुशासन करता हूँ। अनिन्दिते! मैं उत्तरवर्ती मुख के द्वारा तुम्हारे साथ वार्तालाप के सुख का अनुभव करता हूँ। मेरा पश्चिम वाला मुख सौम्य है और सम्पूर्ण प्राणियों को सुख देने वाला है तथा दक्षिण दिशा वाला भयानक मुख रौद्र है, जो समस्त प्रजा का संहार करता है। लोगों के हित की कामना से ही मैं जटाधारी ब्रह्मचारी के वेष में रहता हूँ। देवताओं का हित करने के लिये पिनाक सदा मेरे हाथ में रहता है। पूर्वकाल में इन्द्र ने मेरी श्री प्राप्त करने की इच्छा से मुझ पर वज्र का प्रहार किया था। वह वज्र मेरा कण्ठ दग्ध करके चला गया। इससे मेरी श्रीकण्ठ नाम से ख्याति हुई। प्राचीन काल के दूसरे युग की बात है, बलवान देवताओं और असुरों ने मिलकर अमृत की प्राप्ति के लिये महान प्रयास करते हुए चिरकाल तक महासागर का मन्थन किया था। नागराज वासुकि की रस्सी से बँधी हुई मन्दराचलरूपी मथानी द्वारा जब महासागर मथा जाने लगा, तब उससे सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने वाला विष प्रकट हुआ। उसे देखकर सब देवताओं का मन उदास हो गया। देवि! तब मैंने तीनों लोकों के हित के लिये उस विष को स्वयं पी लिया। शुभे! उस विष के ही कारण मेरे कण्ठ में मोर पंख के समान नीले रंग का चिह्न बन गया। तभी से मैं नीलकण्ठ कहा जाने लगा। ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दी। अब और क्या सुनना चाहती हो?
उमा ने पूछा- सम्पूर्ण लोकों को सुख देने वाले नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। देवदेवेश्वर! बहुत से आयुधों के होते हुए भी आप पिनाक को ही किसलिये धारण करना चाहते हैं? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्री महेश्वर ने कहा- पवित्र मुस्कान वाली महादेवि! सुनो! मुझे जिस प्रकार धर्मानुकूल शस्त्रों की प्राप्ति हुई है, उसे बता रहा हूँ। युगान्तर में कण्वनाम से प्रसिद्ध एक महामुनि हो गये हैं। उन्होंने दिव्य तपस्या करनी आरम्भ की।[2]
प्रिये! उसके अनुसार घोर तपस्या करते हुए मुनि के मस्तक पर कालक्रम से बाँबी जम गयी। वह सब अपने मस्तक पर लिये-दिये वे पूर्ववत तपश्चर्या में लगे रहे। मुनि की तपस्या से पूजित हुए ब्रह्मा जी उन्हें वर देने के लिये गये। वर देकर भगवान ब्रह्मा ने वहाँ एक बाँस देखा और उसके उपयोग के लिये कुछ विचार किया। भामिनि! उस बाँस के द्वारा जगत का उपकार करने के उद्देश्य से कुछ सोचकर ब्रह्मा जी ने उस वेणु को हाथ में ले लिया और उसे धनुष के उपयोग में लगाया। लोक पितामह ब्रह्मा ने भगवान विष्णु की और मेरी शक्ति जानकर उनके और मेरे लिये तत्काल दो धनुष बनाकर दिये। मेरे धनुष का नाम पिनाक हुआ और श्रीहरि के धनुष का नाम शारंग। उस वेणु के अवशेष भाग से एक तीसरा धनुष बनाया गया, जिसका नाम गाण्डीव हुआ। गाण्डीव धनुष सोम को देकर ब्रह्मा जी फिर अपने लोक को चले गये। अनिन्दिते! शस्त्रों की प्राप्ति का यह सारा वृत्तान्त मैंने तुम्हें कह सुनाया। उमा ने पूछा- सत्पुरुषों में श्रेष्ठ महादेव! इस जगत में अन्य सब सुन्दर वाहनों के होते हुए क्यों वृषभ ही आपका वाहन बना है?
श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! ब्रह्मा जी ने देवताओं के लिये दूध देने वाली सुरभि नामक गाय की सृष्टि की, जो मेघ के समान दूधरूपी जल की वर्षा करने वाली थी। उत्पन्न हुई सुरभि अमृतमय दूध बहाती हुई अनेक रूपों में प्रकट हो गयी। एक दिन उसके बछड़े के मुख से निकला हुआ फेन मेरे शरीर पर पड़ गया। इससे मैंने कुपित होकर गौओं को ताप देना आरम्भ किया। मेरे रोष में दग्ध हुई गौओं के रंग नाना प्रकार के हो गये। अब अर्थनीति के ज्ञाता लोकगुरु ब्रह्मा ने मुझे शान्त किया तथा ध्वज-चिह्न और वाहन के रूप में यह वृषभ मुझे प्रदान किया।।
उमा ने पूछा- भगवन! स्वर्गलोक में अनेक प्रकार के सर्वगुणसम्पन्न निवासस्थान हैं, उन सबको छोड़कर आप श्मशान-भूमि में कैसे रमते हैं? श्मशानभूमि तो केशों और हड्डियों से भरी होती है। उस भयानक भूमि में मनुष्यों की खोपडियाँ और घड़ें पड़े रहते हैं। गीधों और गीदड़ों की जमातें जुटी रहती हैं। वहाँ सब ओर चिताएँ जला करती हैं। मांस, वसा और रक्त की कीच-सी मची रहती है। बिखरी हुई आँतों वाली हड्डियों के ढेर पड़े रहते हैं और सियारिनों की हुआँ-हुआँ की ध्वनि वहाँ गूँजती रहती है, ऐसे अपवित्र स्थान में आप क्यों रहते हैं?
श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! मैं पवित्र स्थान ढूँढ़ने के लिये सदा सारी पृथ्वी पर दिन-रात विचरता रहता हूँ, परंतु श्मशान से बढ़कर दूसरा कोई पवित्रतर स्थान यहाँ मुझे नहीं दिखायी दे रहा है। इसलिये सम्पूर्ण निवास स्थानों में से श्मशान में ही मेरा मन अधिक रमता है। वह श्मशान भूमि बरगद की डालियों से आच्छादित और मुर्दों के शरीर से टूटकर गिरी हुई पुष्पमालाओं के द्वारा विभूषित होती है।[3]
पवित्र मुस्कान वाली देवि! ये मेरे भूतगण श्मशान में ही रमते हैं। इन भूतगणों के बिना मैं कहीं भी रह नहीं सकता। शुभे! यह श्मशान का निवास ही मैंने अपने लिये पवित्र और स्वर्गीय माना है। यही परम पुण्यस्थली है। पवित्र वस्तु की कामना रखने वाले उपासक इसी की उपासना करते हैं। अनिन्दिते! इस श्मशान भूमि से अधिक पवित्र दूसरा कोई स्थान नहीं है, क्योंकि वहाँ मनुष्यों का अधिक आना-जाना नहीं होता। इसीलिये वह स्थान पवित्रतम माना गया है। प्रिये! वह वीरों का स्थान है, इसलिये मैंने वहाँ अपना निवास बनाया है। वह मृतकों की सैकड़ों खोपड़ियों से भरा हुआ भयानक स्थान भी मुझे सुन्दर लगता है। दोपहर के समय, दोनों संध्याओं के समय तथा आर्द्रा नक्षत्र में दीर्घायु की कामना रखने वाले अथवा अशुद्ध पुरुषों को वहाँ नहीं जाना चाहिये ऐसी मर्यादा है। मेरे सिवा दूसरा कोई भूतजनित भय का नाश नहीं कर सकता। इसलिये मै श्मशान में रहकर समस्त प्रजाओं का प्रतिदिन पालन करता हूँ। मेरी आज्ञा मानकर ही भूतों के समुदाय अब इस जगत में किसी की हत्या नहीं कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत के हित के लिये मैं उन भूतों को श्मशान भूमि में रमाये रखता हूँ। श्मशान भूमि में रहने का सारा रहस्य मैंने तुमको बता दिया। अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- भगवन! देवदेवेश्वर! त्रिनेत्र! वृषभध्वज! आपका रूप पिंगल, विकृत और भयानक प्रतीत होता है। आपके सारे शरीर में भभूति पुती हुई है, आपकी आँख विकराल दिखायी देती है, दाढ़ें तीखी हैं और सिर पर जटाओं का भार लदा हुआ है, आप बाघम्बर लपेटे हुए हैं और आपके मुख पर कपिल रंग की दाढ़ी-मूँछ फैली हुई है।। आपका रूप ऐसा रौद्र, भयानक, घोर तथा शूल और पट्टिश आदि से युक्त किसलिये है? यह मुझे बताने की कृपा करें।
श्रीमहेश्वर ने कहा- प्रिये! मैं इसका भी यथार्थ कारण बताता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जगत के सारे पदार्थ दो भागों में विभक्त हैं- शीत और उष्ण (अग्नि और सोम)। अग्नि-सोम-रूप यह सम्पूर्ण जगत उन शीत और उष्ण तत्त्वों में गुँथा हुआ है। सौम्य गुण की स्थिति सदा भगवान विष्णु में है और मुझमें आग्नेय (तैजस) गुण प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस विष्णु और शिवरूप शरीर से मैं सदा समस्त लोकों की रक्षा करता हूँ। देवि! यह जो विकराल नेत्रों से युक्त और शूल-पट्टिश से सुशोभित भयानक आकृति वाला मेरा रूप है, यही आग्नेय है। यह सम्पूर्ण जगत के हित में तत्पर रहता है।। शुभानने! यदि मैं इस रूप को त्याग कर इसके विपरीत हो जाऊँ तो उसी समय सम्पूर्ण लोकों की दशा विपरीत हो जायगी। देवि! इसलिये लोकहित की इच्छा से ही मैंने यह रूप धारण किया है। अपने रूप का यह सारा रहस्य बता दिया, अब और क्या सुनना चाहती हो?।[4]
नारद द्वारा शंकर की स्तुति
नारद जी कहते हैं- देवेश्वर भगवान शंकर के ऐसा कहने पर सभी महर्षि बड़े विस्मित हुए और हाथ जोड़कर अपनी वाणी द्वारा उन महादेव जी की स्तुति करने लगे। ऋषि बोले- सर्वेश्वर शंकर! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत के गुरुदेव! आपको नमस्कार है। देवताओं के भी आदि देवता! आपको नमस्कार है। चन्द्रकलाधारी शिव! आपको नमस्कार है। अत्यन्त घोर से भी घोर रुद्रदेव! शंकर! आपको बार-बार नमस्कार है। अत्यन्त शान्त से भी शान्त शिव! आपको नमस्कार है। चन्द्रमा के पालक! आपको नमस्कार है।। उमासहित महादेव जी को नमस्कार है। चतुर्मुख! आपको नमस्कार है। गंगा जी के जल को सिर पर धारण करने वाले भूतनाथ शम्भो! आपको नमस्कार है। हाथों में त्रिशूल धारण करने वाले तथा सर्पमय आभूषणों से विभूषित आप महादेव को नमस्कार है। दक्ष-यज्ञ को दग्ध करने वाले त्रिलोचन! आपको नमस्कार है। लोक रक्षा में तत्पर रहने वाले शंकर! आपके बहुत से नेत्र हैं, आपको नमस्कार है। अहो! महादेव जी का कैसा माहात्म्य है। अहो! रुद्रदेव की कैसी कृपा है। ऐसी धर्मपरायणता देवदेव महादेव के ही योग्य है। नारद जी कहते हैं- जब मुनि इस प्रकार स्तुति कर रहे थे, उसी समय अवसर को जानने वाली देवी पार्वती मुनियों की प्रसन्नता के लिये भगवान शंकर से परम हित की बात बोलीं। उमा ने पूछा- सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ! सर्वभूतेश्वर! भगवन! वरदायक! पिनाकपाणे! मेरे मन में यह एक और महान संशय है। प्रभो! यह जो मुनियों का सारा समुदाय यहाँ उपस्थित है, सदा तपस्या में संलग्न रहा है और तपस्वी का वेष धारण किये लोक में भ्रमण कर रहा है, इन सबकी आकृति भिन्न-भिन्न प्रकार की है। शत्रुदमन शिव! इस ऋषिसमुदाय का तथा मेरा भी प्रिय करने की इच्छा से आप मेरे इस संदेह का समाधान करें। प्रभो! धर्मज्ञ! धर्म का क्या लक्षण बताया गया है? तथा जो धर्म को नहीं जानते हैं ऐसे मनुष्य उस धर्म का आचरण कैसे कर सकते हैं? यह मुझे बताइये। नारद जी कहते हैं- तदनन्तर समस्त मुनि समुदाय ने देवी पार्वती की ऋग्वेद के मन्त्रार्थों से सुशोभित वाणी तथा उत्तम अर्थयुक्त स्तोत्रों द्वारा स्तुति एवं प्रशंसा की।
श्री महेश्वर ने कहा- देवि! किसी भी जीव की हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया करना, मन और इन्द्रियों पर काबू रखना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना गृहस्थ- आश्रम का उत्तम धर्म है। (उक्त गृहस्थ-धर्म का पालन करना,) परायी स्त्री के संसर्ग से दूर रहना, धरोहर और स्त्री की रक्षा करना, बिना दिये किसी की वस्तु न लेना तथा मांस और मदिरा को त्याग देना- ये धर्म के पाँच भेद हैं, जो सुख की प्राप्ति कराने वाले हैं। इनमें से एक-एक धर्म की अनेक शाखाएँ हैं। धर्म को श्रेष्ठ मानने वाले मनुष्यों को चाहिये कि वे पुण्यप्रद धर्म का पालन अवश्य करें।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 140 श्लोक 37-51
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-1
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-2
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-3
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-4
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| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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