- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 141 में प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
शिव द्वारा शुभ धर्म का वर्णन
उमा ने कहा- भगवन! आपने चारों वर्णों के लिये हितकारी एवं शुभ धर्म का पृथक-पृथक् वर्णन किया है। अब मुझे वह धर्म बतलाइये, जो सब वर्णों के लिये समानरूप से उपयोगी हो।
श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! गुणों की अभिलाषा रखने वाले जगत्स्रष्टा ब्रह्मा जी ने समस्त लोकों का उद्धार करने के लिये जगत की सार वस्तु द्वारा मृत्युलोक में ब्राह्मणों की सृष्टि की है। ब्राह्मण इस भूमण्डल के देवता हैं, अतः पहले उनके ही धर्म-कर्म और उनके फलों का वर्णन करता हूँ, क्योंकि ब्राह्मणों में जो धर्म होता है, उसे ही परम धर्म माना जाता है। ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण जगत की रक्षा के लिये तीन प्रकार के धर्म का विधान किया है। पृथ्वी की सृष्टि के साथ ही इन तीनों धर्मों की सृष्टि हो गयी है, इनको भी तुम मुझसे सुनो। पहला है वेदोक्त धर्म, जो सबसे उत्कृष्ट धर्म है। दूसरा है वेदानुकूल स्मृति-शास्त्र में वर्णित- स्मार्त्त धर्म और तीसरा है शिष्ट पुरुषों द्वारा आचरित धर्म (शिष्टाचार)। ये तीनों धर्म सनातन हैं। जो तीनों वेदों का ज्ञाता और विद्वान हो, पढ़ने-पढ़ाने का काम करके जीविका न चलाता हो, दान, धर्म और यज्ञ- इन तीन कर्मों का सदा अनुष्ठान करता हो, काम, क्रोध और लोभ- इन तीनों दोषों का त्याग कर चुका हो और सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखता हो- ऐसा पुरुष ही वास्तव में ब्राह्मण माना गया है। सम्पूर्ण भुवनों के स्वामी ब्रह्माजी ने ब्राह्मणों की जीविका के लिये ये छः कर्म बताये हैं, जो उनके लिये सनातन धर्म हैं। इनके नाम सुनो। यजन-याजन (यज्ञ करना-कराना), दान देना, दान लेना, वेद पढ़ना और वेद पढ़ाना। इन छः कर्मों का आश्रय लेने वाला ब्राह्मण धर्म का भागी होता है। इनमें भी सदा स्वाध्यायशील होना ब्राह्मण का मुख्य धर्म है, यज्ञ करना सनातन धर्म है और अपनी शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक दान देना उसके लिये प्रशस्त धर्म है।। सब प्रकार के विषयों से उपरत होना शम कहलाता है। यह सत्पुरुषों में सदा दृष्टिगोचर होता है। इसका पालन करने से शुद्ध चित्तवाले गृहस्थों को महान धर्म राशि की प्राप्ति होती है। गृहस्थ पुरुष को पंच महायज्ञों का अनुष्ठान करके अपने मन को शुद्ध बनाना चाहिये। जो गृहस्थ सदा सत्य बोलता, किसी के दोष नहीं देखता, दान देता, ब्राह्मणों का सत्कार करता, अपने घर को झाड़-बुहार कर साफ रखता, अभिमान को त्याग देता, सदा सरल भाव से रहता, स्नेहयुक्त वचन बोलता, अतिथि और अभ्यागतों की सेवा में मन लगाता, यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करता और अतिथि को शास्त्र की आज्ञा के अनुसार पाद्य, अर्द्य्य, आसन, शय्या, दीपक तथा ठहरन के लिये गृह प्रदान करता है, उसे धार्मिक समझना चाहिये। जो प्रातःकाल उठाकर आचमन करके ब्राह्मणों को भोजन के लिये निमन्त्रण देता और उसे ठीक समय पर सत्कारपूर्वक भोजन कराने के बाद कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे जाता है, उसके द्वारा सनातन धर्म का पालन होता है। शूद्र गृहस्थ को अपनी शक्ति के अनुसार तीनों वर्णों का निरन्तर सब प्रकार से आतिथ्य-सत्कार करना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीन वर्णों की परिचर्या में रहना उसके लिये प्रधान धर्म बतलाया गया है।[1]
प्रवृत्तिरूप धर्म का वर्णन
प्रवृत्तिरूप धर्म का विधान गृहस्थों के लिये किया गया है। वह सब प्राणियों का हितकारी और शुभ है। अब मैं उसी का वर्णन करता हूँ। अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को सदा अपनी शक्ति के अनुसार दान करना चाहिये। सदा यज्ञ करना चाहिये और सदा ही पुष्टिजनक कर्म करते रहना चाहिये। मनुष्य को धर्म के द्वारा धन का उपार्जन करना चाहिये। धर्म से उपार्जित हुए धन के तीन भाग करने चाहिये और प्रयत्नपूर्वक धर्मप्रधान कर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। अपनी उन्नति चाहने वाले पुरुष को धन के उपर्युक्त तीन भागों में से एक भाग के द्वारा धर्म और अर्थ की सिद्धि करनी चाहिये। दूसरे भाग को उपभोग में लगाना चाहिये और तीसरे अंश को बढ़ाना चाहिये (प्रवृत्तिधर्म का वर्णन किया गया है)। इससे भिन्न निवृत्तिरूप धर्म है। वह मोक्ष का साधन है। देवि! मैं यथार्थरूप से उसका स्वरूप बताता हूँ, उसे सुनो! मोक्ष की अभिलाष रखने वाले पुरुषों को सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करनी चाहिये। यही उनका धर्म है। उन्हें सदा एक ही गाँव में नहीं रहना चाहिये और अपने आशारूपी बन्धनों को तोड़ने का प्रयत्न करना चाहिये। यही मुमुक्षु के लिये प्रशंसा की बात है। मोक्षाभिलाषी पुरुष को न तो कुटी में आसक्ति रखनी चाहिये न जल में, न वस्त्र में, न आसन में, न त्रिदण्ड में, न शय्या में, न अग्नि में और न किसी निवासस्थान में ही आसक्त होना चाहिये। मुमुक्षु को अध्यात्मज्ञान का ही चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करना चाहिये। उसे उसी में सदा स्थित रहना चाहिये। निरन्तर योगाभ्यास में प्रवृत्त होकर तत्त्व का विचार करते रहना चाहिये। संन्यासी द्विज को उचित है कि वह सब प्रकार की आसक्तियों और स्नेहबन्धनों से मुक्त होकर सर्वदा वृक्ष के नीचे, सूने घर में अथवा नदी के किनारे रहता हुआ अपने अन्तःकरण में ही परमात्मा का ध्यान करे। जो युक्तचित्त होकर संन्यासी होता है और मोक्षोपयोगी कर्म श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि के द्वारा समय व्यतीत करता हुआ निराहार (विषय सेवन से रहित) और ठूठे काठ की भाँति स्थिर रहता है, उसको सनातन धर्म का मोक्ष रूप धर्म प्राप्त होता है। संन्यासी किसी एक स्थान में आसक्ति न रखे, एक ही ग्राम में न रहे तथा किसी एक ही किनारे पर सर्वदा शयन न करे। उसे सब प्रकारकी आसक्तियों से मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरना चाहिये। यह मोक्षधर्म के ज्ञाता सत्पुरुषों का वेदप्रतिपादित धर्म एवं सन्मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलता है, उसको ब्रह्मपद की प्राप्ति होतीहै। संन्यासी चार प्रकार के होते हैं- कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस। इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है। इस परमहंस धर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले आत्म ज्ञान से बढ़कर दूसरा कुछ भी नहीं है। यह परमहंस-ज्ञान किसी से निष्कृष्ट नहीं है। परमहंस-ज्ञान के सम्मुख परमात्मा तिरोहित नहीं है। यह दुःख-सुख से रहित सौम्य अजर-अमर और अविनाशी पद है।[2]
उमा बोलीं- भगवन! आपने सत्पुरुषों द्वारा आचरण में लाये हुए गार्हस्थय धर्म और मोक्षधर्म का वर्णन किया। ये दोनों ही मार्ग जीव जगत का महान कल्याण करने वाले हैं। धर्मज्ञ! अब मैं ऋषि धर्म सुनना चाहती हूँ। तपोवन निवासी मुनियों के प्रति सदा ही मेरे मन में स्नेह बना रहता है। महेश्वर! ये ऋषि लोग जब अग्नि में घी की आहुति देते हैं, उस समय उसकेस धूम से प्रकट हुई सुगन्ध मानो सारे तपोवन में छा जाती है। उसे देखकर मेरा चित्त सदा प्रसन्न रहता है। विभो! देव! यह मैंने मुनिधर्म के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की है। देवदेव! आप सम्पूर्ण धर्मों का तत्त्व जानने वाले हैं, अतः महादेव! मैंने जो कुछ पूछा है, उसका पूर्णरूप से यथावत वर्णन कीजिये। श्रीभगवान शिव बोले- शुभे! तुम्हारे इस प्रश्न से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। अब मैं मुनियों के सर्वोत्तम धर्म का वर्णन करता हूँ, जिसका पालन करके वे अपनी तपस्या के द्वारा परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं। महाभागे! धर्मज्ञे! सबसे पहले धर्मवेत्ता साधु पुरुष फेनप ऋषियों का जो धर्म है, उसी का मुझसे वर्णन सुनो। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने यज्ञ करते समय जिसका पान किया हुआ जो स्वर्ग में फैला हुआ है, वह अमृत (ब्रह्मा जी के द्वारा पीया गया इसलिये) ब्रह्म कहलाता है। उसके फेनको जो थोड़ा-थोड़ा संग्रह करके सदा पान करते हैं (और उसी के आधार पर जीवन-निर्वाह करके तपस्या में लगे रहते हैं,) वे फेनप[3] कहलाते हैं। तपोधने! यह धर्माचरण का मार्ग उन विशुद्ध फेनप महात्माओं का ही मार्ग है। अब बालखिल्य नाम वाले ऋषिगणों द्वारा जो धर्म का मार्ग बताया गया है, उसको सुनो। वालखिल्यगण तपस्या से सिद्ध हुए मुनि हैं। वे सब धर्मों के ज्ञाता हैं और सूर्यमण्डल में निवास करते हैं। वहाँ वे उन्छवृत्ति का आश्रय ले पक्षियों की भाँति एक-एक दाना बीनकर उसी से जीवन-निर्वाह करते हैं। मृगछाला, चीर और वल्कल- ये ही उनके वस्त्र हैं। वे बालखिल्य शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों से रहित, सन्मार्ग पर चलने वाले और तपस्या के धनी हैं। उनमें से प्रत्येक का शरीर अंगूठे के सिरे के बराबर है। इतने लघुकाय होने पर भी वे अपने-अपने कर्तव्य में स्थित हो सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं। उनके धर्म का फल महान है। वे देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये उनके समान रूप धारण करते हैं। वे तपस्या से सम्पूर्ण पापों को दग्ध करके अपने तेज से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। इनके अतिरिक्त दूसरे भी बहुत-से शुद्धचित्त, दयाधर्मपरायण एवं पुण्यात्मा संत हैं, जिनमें कुछ चक्रचर (चक्र के समान विचरने वाले), कुछ सोमलोक में रहने वाले तथा कुछ पितृलोक के निकट निवास करने वाले हैं। ये सब शास्त्रीय विधि के अनुसार उन्छवृत्ति से जीविका चलाते हैं।[4]
ऋषियों का परम कर्तव्य वर्णन
कोई ऋषि सम्प्रक्षाल[5], कोई अश्मकुट्ट[6] और कोई दन्तोलूखलिक[7] हैं। ये लोग सोमप (चन्द्रमा की किरणों का पान करने वाले) और उष्णप (सूर्य की किरणों का पान करने वाले) देवताओं के निकट रहकर अपनी स्त्रियों सहित उन्छवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते और इन्द्रियों को काबू में रखते हैं। अग्निहोत्र, पितरों का पूजन (श्राद्ध) और पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान यह उनका मुख्य धर्म कहा जाता है। देवि! चक्र की तरह विचरने वाले और देवलोक में निवास करने वाले पूर्वोक्त ब्राह्मणों ने इस ऋषिधर्म का सदा ही अनुष्ठान किया है। इसके अतिरक्त दूसरा भी जो ऋषियों का धर्म है, उसे मुझसे सुनो। सभी आर्षधर्मों में इन्द्रियसंयमपूर्वक आत्मज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। फिर काम और क्रोध को भी जीतना चाहिये। ऐसा मेरा मत है। प्रत्येक ऋषि के लिये अग्निहोत्र का सम्पादन, धर्मसत्र में स्थिति, सोमयज्ञ का अनुष्ठान, यज्ञविधि का ज्ञान और यज्ञ में दक्षिणा देना- इन पाँच कर्मों का विधान आवश्यक है। नित्य यज्ञ का अनुष्ठान और धर्म का पालन करना चाहिये। देवपूजा और श्राद्ध में प्रीति रखना चाहिये। उन्छवृत्ति से उपार्जित किये हुए अन्न के द्वारा सबका आतिथ्य-सत्कार करना ऋषियों का परम कर्तव्य है। विषय भोगों से निवृत्त रहना, गोरस का आहार करना, शम के साधन में प्रेम रखना, खुले मैदान चबूतरे पर सोना, योग का अभ्यास करना, साग-पातका सेवन करना, फल-मूल खाकर रहना, वायु, जल और सेवा का आहार करना- ये ऋषियों के नियम हैं। इनका पालन करने से वे अजित-सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त करते हैं।। जब गृहस्थों के यहाँ रसोईघर का धुआँ निकलना बंद हो जाय, मूसल से धान कूटने की आवाज न आये- सन्नाटा छाया रहे, चूल्हे की आग बुझ जाय, घर के सब लोग भोजन कर चुकें, बर्तनों का इधर-उधर ले जाया जाना रुक जाय और भिक्षुक भीख माँगकर लौट गये हों, ऐसे समय तक ऋषि को अतिथियों की बाट जोहनी चाहिये और उसके बचे-खुचे अन्न को स्वयं ग्रहण करना चाहिये। ऐसा करने से सत्यधर्म में अनुराग रखने वाला शान्त पुरुष मुनिधर्म से युक्त होता है अर्थात् उसे मुनिधर्म के पालन का फल मिलता है। जिसे गर्व और अभिमान नहीं है, जो अप्रसन्न और विस्मित नहीं होता, शत्रु और मित्र को समान समझता तथा सबके प्रति मैत्री का भाव रखता है, वही धर्मवेत्ताओं में उत्तम ऋषि है।[8]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-11
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-12
- ↑ कुछ लोग दूध के समय बछड़ो के मुहँ में लगे हुए फेन को ही वह अमृत मानते हैं उसी का पान करने वाले उनके मत में फेनप हैं। आचार्य नीलकण्ठ अन्न के आग्रभाग (रसोई से निकाले गये अग्राशन) को फेन और उसका उपयोग करने वाले को फेनप कहते हैं।
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-13
- ↑ जो भोजन के पश्चात् पात्र को धो-पोंछकर रख देते हैं, दूसरे दिन के लिए कुछ भी नहीं बचाते हैं, उन्हें सम्प्रक्षाल कहते हैं।
- ↑ पत्थर से फोड़कर खाने वाले को अश्मकुट्ट कहते हैं।
- ↑ जो दाँतो से ही ओखली का काम लेते है अर्थात अन्न को ओखली में न कूटकर दाँतों से ही चबाकर खाते हैं वे दन्तोलूखलिक कहलाते हैं।
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-14
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| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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