- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 47 में ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन हुआ है।[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर का संशय
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- संपूर्ण शास्त्रों के विधान के ज्ञाता तथा राजधर्म के विद्वानों में श्रेष्ठ पितामह। आप इस भूमण्डल में सम्पूर्ण संशयों का सर्वथा निवारण करने के लिये प्रसिद्ध हैं। मेरे हदय में एक संशय और है, उसका मेरे लिये समाधान कीजिये। राजन! इस उत्पन्न हुए संशय के विषय में मैं दूसरे किसी से नहीं पूछूँगा। महाबाहो! धर्म मार्ग का अनुसरण करने वाले मनुष्य का इस विषय में जैसा कर्तव्य हो, इस सबकी आप स्पष्टरूप से व्याख्या करें। पितामह! ब्राह्मण के लिये चार स्त्रियाँ शास्त्र-विहित हैं- ब्राहाणी, क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा। इनमें से शूद्रा केवल रति की इच्छा वाले कामी पुरुष के लिये विहित है। कुरुश्रेष्ठ! किस पुत्र को पिता के धन में से कौन-सा भाग मिलना चाहिये? उनके लिये जो भाग नियत किया गया है, उसका वर्णन मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ।
भीष्म का संवाद
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीनों वर्ण द्विजाति कहलाते हैं, अत: इन तीन वर्णों में ही ब्राह्मण का विवाह धर्मत: विहित है। परंतप नरेश! अन्याय से, लोभ से अथवा कामना से शूद्र जाति की कन्या भी ब्राह्मण की भार्या हेाती है, परंतु शास्त्रों में इसका कहीं विधान नहीं मिलता है। शूद्र जाति की स्त्री को अपनी शय्या पर सुलाकर ब्राह्मण अधोगति को प्राप्त होता है। साथ ही शास्त्रीय विधि के अनुसार वह प्रायश्चित का भागी होता है। युधिष्ठिर! शूद्रा के गर्भ से संतान उत्पन्न करने पर ब्राह्मण को दूना पाप लगता है और उसे दूने प्रायश्चित का भागी होना पड़ता है।
पैतृक धन के भाग का वर्णन
भरतनन्दन! अब मैं ब्राह्मण आदि वर्णों की कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न होने वाले पुत्रों को पैतृक धन का जो भाग प्राप्त होता है, उसका वर्णन करूँगा। ब्राह्मण की ब्राहाणी पत्नी से जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह उत्तम लक्षणों से सम्पन्न गृह आदि, बैल, सवारी तथा अन्य जो-जो श्रेष्ठतम पदार्थ हों, उन सबको अर्थात पैतृक धन के प्रधान अंश को पहले ही अपने अधिकार में कर ले। युधिष्ठिर! फिर ब्राह्मण का जो शेष धन हो, उसके दस भाग करने चाहिये। पिता के उस धन में से पुन: चार भाग ब्राह्मणी के पुत्र को ही ले लेने चाहिये। क्षत्रिया का जो पुत्र है, वह भी ब्राह्मण ही होता है- इसमें संशय नही है। वह माता की विशिष्टता के कारण पैतृक धन के तीन भाग ले लेने का अधिकारी है। युधिष्ठिर! तीसरे वर्ण की कन्या वैश्या में जो ब्राह्मण से पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राह्मण के धन में से दो भाग लेने चाहिये। भारत! ब्राह्मण में शूद्रा में जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे तो धन न देने का ही विधान है तो भी शूद्र के पुत्र को पैतृक धन का स्वल्पतम भाग- एक अंश दे देना चाहिये। भारत! ब्राह्मण से शूद्रा में जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे तो धन न देने का ही विधान है तो भी शूद्र के पुत्र को पैतृक धन का स्वल्पतम भाग-एक अंश दे देना चाहिये। दस भागों में विभक्त हुए बँटवारे का यही क्रम होता है। परंतु जो समान वर्ण की स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्र हैं, उन सबके लिये बराबर भागों की कल्पना करनी चाहिये।
ब्राह्मण से शूद्रा के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राह्मण नहीं मानते हैं; क्योंकि उसमें ब्राह्मणों- चित निपुणता नहीं पायी जाती। शेष तीन वर्ण की स्त्रियों से ब्राह्मण द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह ब्राह्मण होता है। चार ही वर्ण बताये हैं, पाँचवाँ वर्ण नहीं मिलता। शूद्रा का पुत्र ब्राह्मण पिता के धन से उसका दसवाँ भाग ले सकता है। वह भी पिता के देने पर ही उसे लेना चाहिये, बिना दिये उसे लेने का कोई अधिकार नहीं है। भरतनन्दन! किंतु शूद्रा के पुत्र को भी धन का भाग अवश्य दे देना चाहिये। दया सबसे बड़ा धर्म है। यह समझकर उसे धन का भाग दिया जाता है। दया जहाँ भी उत्पन्न हो, वह गुणकारक ही होती है। भारत! ब्राह्मण के अन्य वर्ण की स्त्रियों से पुत्र हो या न हो, वह शूद्रा के पुत्र को दसवें भाग से अधिक धन न दें। जब ब्राह्मण के पास तीन वर्ष तक निर्वाह होने से अधिक धन एकत्र हो जाये तब वह धन से यज्ञ करे। धन का व्यर्थ संग्रह न करे। स्त्री को पति के धन से जो हिस्सा मिलता है, उसका उपभोग ही (उसके लिये) फल माना गया है। पति के द्वारा दिये हुए स्त्री धन से पुत्र आदि को कुछ नहीं लेना चाहिये। युधिष्ठिर! ब्राह्मणी को पिता की ओर से जो धन मिला हो, उस धन को उसकी पुत्री ले सकती है; क्योंकि जैसा पुत्र है, वैसी ही पुत्री भी है। कुरुनन्दन! भरतकुलभूषण नरेश! पुत्री पुत्र के समान ही है- ऐसा शास्त्र का विधान है। इस प्रकार वही धन के विभाजन की धर्मयुक्त प्रणाली बतायी गयी है। इस तरह धर्म का चिन्तन एवं अनुस्मरण करते हुए ही धन का उपार्जन एवं संग्रह करें। परंतु उसे व्यर्थ न होने दें- यज्ञ-यागादि के द्वारा सफल कर लें।
युधिष्ठिर का प्रस्न
युधिष्ठिर ने पूछा-दादा जी! यदि ब्राह्मण से शूद्रा में उत्पन्न हुए पुत्र को धन न देने योग्य बताया गया है तो किस विशेषता के कारण उसको पैतृक धन का दसवाँ भाग भी दिया जाता है? ब्राह्मण से ब्राह्मणी में उत्पन्न हुआ पुत्र ब्राह्मण हो- इसमें कोई संशय ही नहीं, वैसे ही क्षत्रिया और वैश्या के गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र भी ब्राह्मण ही होते हैं। नृपश्रेष्ठ! जब आपने ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों वाली स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्रों को ब्राह्मण ही बताया है, तब वे पैतृक धन का समान भाग क्यों नही पाते हैं? क्यों वे विषम भाग ग्रहण करें?
भीष्म का उत्तर
भीष्म जी ने कहा- शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! लोक में सब स्त्रियों का ‘दारा’ इस एक नाम से ही परिचय दिया जाता है। इस तथाकथित नाम से ही चारों वर्णों की स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्रों में महान अन्तर हो जाता है[2] ब्राह्मण पहले अन्य तीनों वर्णों की स्त्रियों को ब्याह लाने के पश्चात भी यदि ब्राह्मण कन्या से विवाह करे तो वही अन्य स्त्रियों की अपेक्षा ज्येष्ठ, अधिक आदर-सत्कार के योग्य तथा विशेष गौरव की अधिकारिणी होगी।[3]
ब्राह्मणी के कार्य
युधिष्ठिर! पति को स्नान कराना, उनके लिये श्रृंगार-सामग्री प्रस्तुत करना, दाँत की सफाई के लिये दातून और मंजन देना, पति के नेत्रों में आँजन या सुरमा लगाना, प्रतिदिन हवन और पूजन के समय हव्य और काव्य की सामग्री जुटाना तथा घर में और भी धार्मिक कृत्य हों उसके सम्पादन में योग देना-ये सब कार्य ब्राह्मण के लिये ब्राह्मणी को करना चाहिये। उसके रहते हुए दूसरे किसी वर्ण वाली स्त्री को यह सब करने का अधिकार नहीं है। पति को अन्न, पान, माला, वस्त्र, और आभूषण- ये सब वस्तुएं ब्राह्मणी ही समर्पित करे; क्योंकि वही उसके लिये सब स्त्रियों से अधिक गौरव की अधिकारिणी है। महाराज कुरुनंदन! मनु ने भी जिस धर्मशास्त्र का प्रतिपादन किया है, उसमें भी यही सनातन धर्म देखा गया है। युधिष्ठिर! यदि ब्राह्मण काम के वशीभूत होकर इस शास्त्रीय पद्धति के विपरीत बर्ताव करता है, वह ब्राह्मण चाण्डाल समझा जाता है। जैसा कि पहले कहा गया है। राजन! ब्राह्मण के समान ही जो क्षत्रिय का पुत्र होगा, उसमें भी उभवर्ण सम्बन्धी अन्तर तो रहेगा ही। क्षत्रिय कन्या संसार में अपनी जाति द्वारा ब्राह्मण-कन्या के बराबर नहीं हो सकती। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार ब्राह्मणी का पुत्र क्षत्रिया के पुत्र से प्रथम एवं ज्येष्ठ होगा। युधिष्ठिर! इसलिये पिता के धन में से ब्राह्मणी के पुत्र को अधिक-से अधिक भाग देना चाहिये। जैसे क्षत्रिया कभी ब्राहाणी के समान नहीं हो सकती वैसे ही वैश्या भी कभी क्षत्रिया के तुल्य नहीं हो सकती। राजा युधिष्ठिर! लक्ष्मी, राज्य और कोष- यह सब शास्त्र में क्षत्रियों के लिये ही विहीत देखा जाता है। राजन! क्षत्रिय अपने धर्म के अनुसार समुन्द्रपर्यन्त पृथ्वी तथा बहुत बड़ी सम्पति प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर! राजा (क्षत्रिय) दण्ड धारण करने वाला होता है। क्षत्रिय के सिवा और किसी से रक्षा का कार्य नहीं हो सकता। राजन! महाभाग! ब्राह्मण देवताओं के भी देवता हैं; अत: उनका विधिपूर्वक पूजन-आदर-सत्कार करते हुए ही उनके साथ बर्ताव करें। ऋषियों द्वारा प्रतिपादित अविनाशी सनातन धर्म को लुप्त होता जानकर क्षत्रिय अपने धर्म के अनुसार उसकी रक्षा करता है। डाकुओं द्वारा लूटे जाते हुए सभी वर्णों के धन और स्त्रियों का राजा ही रक्षक होता है। इन सब दृष्टियों से क्षत्रिया का पुत्र वैश्या के पुत्र से श्रेष्ठ होता है- इसमें कोई संशय नहीं है। युधिष्ठिर! इसलिये शेष पैतृक धन में से उसको भी विशेष भाग लेना ही चाहिये।
धन के विभाजन का विधिपूर्वक वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आपने ब्राह्मण के धन का विभाजन विधिपूर्वक बता दिया। अब यह बताइये कि अन्य वर्णों के धन के बँटवारे का कैसा नियम होना चाहिये? भीष्म जी ने कहा- कुरुनन्दन! क्षत्रिय के लिये भी दो वर्णों की भार्याएँ शास्त्रविहीत हैं। तीसरी शूद्रा भी उसकी भार्या हो सकती है। परंतु शास्त्र से उसका समर्थन नहीं होता। राजा युधिष्ठिर! क्षत्रियों के लिये भी बँटवारे का यही क्रम है। क्षत्रिय के धन को आठ भागों में विभक्त करना चाहिये। क्षत्रिय का पुत्र उस पैतृक धन में से चार भाग स्वयं ग्रहण कर ले तथा पिता की जो युद्ध सामग्री है, उसको भी वही ले ले। शेष धन में से तीन भाग वैश्या का पुत्र ले ले और अवशिष्ट आठवाँ भाग शूद्रा का पुत्र प्राप्त करे। वह भी पिता के देने पर ही उसे लेना चाहिये। बिना दिया हुआ धन ले जाने का उसे अधिकार नही है।[4]
कुरुनन्दन! वैश्य की एक ही वैश्यकन्या धर्मानुसार भार्या हो सकती है। दूसरी शूद्रा भी होती है, परंतु शास्त्र से उसका समर्थन नहीं होता है। भरतश्रेष्ठ! कुन्तीकुमार! वैश्य के वैश्या और शूद्रा दोनों के गर्भ से पुत्र हों तो उनके लिये भी धन के बँटवारे का वैसा ही नियम है। भरतभूषण नरेश! वैश्य के धन को पाँच भागों में विभक्त करना चाहिये। फिर वैश्या और शूद्रा के पुत्रों में उस धन का विभाजन कैसे करना चाहिये, यह बताता हूँ। भरतनन्दन! उस पैतृक धन में से चार भाग तो वैश्या के पुत्र को ले लेने चाहियें और पाँचवाँ अंश शूद्रा के पुत्र का भाग बताया गया है। वह भी पिता के देने पर उस धन को ले सकता है। बिना दिया हुआ धन लेने का उसे कोई अधिकार नहीं है। तीनों वर्णों से उत्पन्न हुआ शूद्र सदा धन न देने के योग्य ही होता है। शूद्र की एक ही अपनी जाति की ही स्त्री भार्या होती है। दूसरी किसी प्रकार नहीं। उसके सभी पुत्र, व सौ भाई क्यों न हों, पैतृक धन में से समान भाग के अधिकारी होते हैं। समस्त वर्णों के सभी पुत्रों का, जो समान वर्ण की स्त्री से उत्पन्न हुए हैं, सामान्यत: पैतृक धन में समान भाग माना गया है। कुन्तीन्दन! ज्येष्ठ पुत्र का भाग भी ज्येष्ठ होता है। उसे प्रधानत: एक अंश अधिक मिलता है। पूर्वकाल में स्वयम्भू ब्रह्मा जी ने पैतृक धन के बँटवारे की यह विधि बतायी थी। नरेश्वर! समान वर्ण की स्त्रियों में जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, उनमें यह दूसरी विशेषता ध्यान देने योग्य है। विवाह की विशिष्टता के कारण उन पुत्रों में भी विशिष्टता आ जाती है। अर्थात पहले विवाह की स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र श्रेष्ठ और दूसरे विवाह की स्त्री से पैदा हुआ पुत्र कनिष्ठ होता है। तुल्य वर्णवाली स्त्रियों से उत्पन्न हुए उन पुत्रों में भी जो ज्येष्ठ है, वह एक भाग ज्येष्ठांश ले सकता है। मध्यम पुत्र को मध्यम और कनिष्ठ पुत्र को कनिष्ठ भाग लेना चाहिये। इस प्रकार सभी जातियों में समान वर्ण की स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र ही श्रेष्ठ होता है। मरीचि का पुत्र महर्षि कश्यप ने भी यही बात बतायी है।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-16
- ↑ ’दार’ शब्द की व्युत्पति इस प्रकार है- ‘आद्रियन्ते त्रिवर्गार्थिभि: इति दारा’। धर्म, अर्थ और काम की इच्छा रखने वाले पुरुषों द्वारा आदर किया जाता है, वे दारा हैं, वे दारा हैं। जहाँ तक भोग विषयक आदर है,वह तो सभी स्त्रियों के साथ समान है, परंतु व्यवहारिक जगत में जो पति के द्वारा आदर प्राप्त होता है, वह वर्णक्रम से यथायोग्य न्यूनाधिक मात्रा में ही उपलब्ध होता है। यही बात उनके पुत्रों के सम्बन्ध में भी लागू होती है। इसीलिये उनके पुत्रों को पैतृक धन के विषय में कम और अधिक भाग ग्रहण करने का अधिकार है।
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 17-31
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 32-50
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 51-61
संबंधित लेख
महाभारत अनुशासन पर्व में उल्लेखित कथाएँ
दान-धर्म-पर्व
युधिष्ठिर की भीष्म से उपदेश देने की प्रार्थना
| भीष्म द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन
| प्रजापति मनु के वंश का वर्णन
| अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय
| विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति विषयक युधिष्ठिर का प्रश्न
| अजमीढ के वंश का वर्णन
| विश्वामित्र के जन्म की कथा
| विश्वामित्र के पुत्रों के नाम
| इन्द्र और तोते का स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुष की श्रेष्ठता विषयक संवाद
| दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का वर्णन
| कर्मों के फल का वर्णन
| श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा
| ब्राह्मण विषयक सियार और वानर के संवाद का वर्णन
| शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा
| लक्ष्मी के निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानों का वर्णन
| भीष्म का युधिष्ठिर से कृतघ्न की गति और प्रायश्चित का वर्णन
| स्त्री-पुरुष का संयोग विषयक भंगास्वन का उपाख्यान
| भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश
| भीष्म का श्रीकृष्ण से महादेव का माहात्म्य बताने का अनुरोध
| श्रीकृष्ण द्वारा महात्मा उपमन्यु के आश्रम का वर्णन
| उपमन्यु का शिव विषयक आख्यान
| उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या
| उपमन्यु द्वारा महादेव की स्तुति
| उपमन्यु को महादेव का वरदान
| श्रीकृष्ण को शिव-पार्वती का दर्शन
| शिव और पार्वती का श्रीकृष्ण को वरदान
| महात्मा तण्डि द्वारा महादेव की स्तुति और प्रार्थना
| महात्मा तण्डि को महादेव का वरदान
| उपमन्यु द्वारा शिवसहस्रनामस्तोत्र का वर्णन
| शिवसहस्रनामस्तोत्र पाठ का फल
| ऋषियों का शिव की कृपा विषयक अपने-अपने अनुभव सुनाना
| श्रीकृष्ण द्वारा शिव की महिमा का वर्णन
| अष्टावक्र मुनि का उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान
| कुबेर द्वारा अष्टावक्र का स्वागत-सत्कार
| अष्टावक्र का स्त्रीरूपधारिणी उत्तर दिशा के साथ संवाद
| अष्टावक्र का वदान्य ऋषि की कन्या से विवाह
| युधिष्ठिर के विविध धर्मयुक्त प्रश्नों का उत्तर
| श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण
| देवता और पितरों के कार्य में आमन्त्रण देने योग्य पात्रों का वर्णन
| नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन
| ब्रह्महत्या के समान पापों का निरूपण
| विभिन्न तीर्थों के माहात्मय का वर्णन
| गंगाजी के माहात्म्य का वर्णन
| ब्राह्मणत्व हेतु तपस्यारत मतंग की इन्द्र से बातचीत
| इन्द्र द्वारा मतंग को समझाना
| मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान
| वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध
| प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध
| वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा
| नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण
| नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन
| वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा
| वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति
| भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन
| भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा
| ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद
| दानपात्र की परीक्षा
| पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन
| युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न
| भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा
| विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना
| विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति
| विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान
| विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना
| देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना
| भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश
| कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार
| कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार
| स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन
| ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन
| वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन
| नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन
| गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ
| च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना
| नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना
| च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन
| च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति
| राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा
| च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना
| च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना
| च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान
| च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना
| विविध प्रकार के तप और दानों का फल
| जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल
| भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा
| भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश
| श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल
| राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश
| भूमिदान का महत्त्व
| भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| अन्न दान का विशेष माहात्म्य
| विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य
| सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा
| जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य
| अन्न और जल के दान की महिमा
| तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य
| गोदान की महिमा
| गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति
| राजा नृग का उपाख्यान
| पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना
| यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन
| गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना
| दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम
| गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य
| व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व
| गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना
| गोदान करने वाले नरेशों के नाम
| कपिला गौओं की उत्पत्ति
| कपिला गौओं की महिमा का वर्णन
| वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना
| गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति
| विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति
| गौओं तथा गोदान की महिमा
| व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन
| व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन
| व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन
| लक्ष्मी और गौओं का संवाद
| गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना
| ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना
| भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना
| सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा
| पार्वती का देवताओं को शाप
| तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना
| ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन
| देवताओं द्वारा अग्नि की खोज
| गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना
| कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति
| महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति
| कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण
| कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध
| विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल
| श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन
| विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल
| पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन
| पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन
| श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता
| निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान
| श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश
| विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन
| पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना
| श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद
| भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना
| वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा
| भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा
| इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत
| अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ
| इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना
| सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना
| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज